Friday, 12 April 2019

अलविदा 'लाफिंग गैस सिलेंडर' प्रदीप चौबे

माइक्रो कविताएं लिखने वाली 'महाकाया' का महाप्रस्थान, अलविदा प्रदीप चौबे

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प्रदीप चौबे को यमराज मिल गया। उन्हें ही मिल सकता था। जिंदा आदमी को यमराज मिलते कभी नहीं देखा-सुना है लेकिन उन्हें मिल गया था। यमराज ने पूछा- चौबे जी नरक जाना चाहेंगे या स्वर्ग। चौबे तपाक से बोले- नरक। क्यों? उत्तर मिला- पब्लिक तो वहीं मिलेगी। हास्य कवि को और क्या चाहिए?

पता नहीं प्रदीप चौबे अभी परलोक के किस मोहल्ले में होंगे, किस देश में होंगे। किस गांव में होंगे। वैसे वह मंचों से यह भी तो कहते रहे हैं कि मैं कॉन्फिडेंस का कवि हूं। तालियों की आदत लगाई ही नहीं। सामने एक भी श्रोता हो तो वह कविता पढ़ जाते हैं। उन्ही के मुताबिक एक किस्सा है जो वह मंचों से सुनाते थे कि किसी बड़े कवि सम्मेलन के आखिर में पंडाल में सिर्फ दो लोग बचे थे। एक श्रोता और एक कवि। प्रदीप चौबे कविता पढ़ रहे थे। उन्होंने उस एक श्रोता से कहा, जरूर आप मेरे लिए बैठे हैं, तो श्रोता ने कहा, अरे नहीं, आप पढ़के उतरिए। आपके बाद हमारा नंबर है।

अभी तक चौबे को कॉन्फिडेंस था कि वह एक श्रोता के लिए भी कविता पढ़ते थे। चाहे वह आखिरी श्रोता उनका उत्तरवर्ती कवि ही क्यों न हो। उस दिन उन्हें एक और शब्द मिला - 'ओवर-कॉन्फिडेंस', जो उनके श्रोता-कवि के पास था। जाहिर है, वह दूसरा कवि भी प्रदीप चौबे ही था। ऐसे में इतने जन-विरल परिसर में रहने वाले कवि की इच्छा के विरुद्ध और उनकी किस्मत की मंशा के समर्थन में इसकी पुरजोर संभावना है कि वह स्वर्ग की किसी शानदार कॉलोनी का बाशिंदा हुआ होगा।

एक तीसरी बात भी जो चौबे अपने बारे में मंचों से कहते थे, वो यह कि कविताएं वह लंबी नहीं लिखते हैं। वह इशारों के कवि हैं। इशारों में कहते-

'आप मुझे सुन रहे हैं यह मेरी खुशनसीबी है, आपकी जो हो'
.......

"पूछताछ काउंटर पर किसी को भी न पाकर 
हमने प्रबंधक से कहा जाकर- 
‘पूछताछ बाबू सीट पर नहीं है उसे कहां ढूंढें? 

जवाब मिला – ‘पूछताछ काउंटर पर पूछें!’"

.........

"पलक झपकते ही हमारी अटैची साफ हो गई 
झपकी खुली तो सामने लिखा था- 

इस स्टेशन पर सफाई का मुफ्त प्रबंध है।"

और, एक कविता में-

"हमारे पिता जी बहुत अच्छे पिताजी थे
उनकी बड़ी तमन्ना थी कि उनके घर में कोई फौज में जाए
उनको मैं ही पसंद आया
एक दिन मुझसे बोले- मैं देश की सेवा करना चाहता हूं
तू कल फौज में भर्ती हो जा"

यह दुनिया 'निंदक नियरे राखिए' की उल्टी दिशा में काफी आगे निकलती जा रही है। मजाक छोड़िए, लोग अपनी आलोचना तक सहन नहीं कर पाते। ऐसे में प्रदीप चौबे अपनी कायिक अवस्था को किसी कमी की तरह नहीं देखते, उस पर अफसोस नहीं करते, रोते नहीं बल्कि उसे हास्य की सामग्री बनाकर अपना ही मजाक उड़ाते हैं। अपने मोटापे पर उन्होंने न जाने कितने चुटकुले बनाए हैं। कितनी कविताएं भी लिखीं। लगभग उनकी हर कविता में यह चीज देखी जा सकती है। चाहे वह रेलयात्रा के कुली का जिक्र हो जिसके लिए

'बाबूजी आप किस सामान से कम हैं'

या फिर वह रिक्शावाला, जो उन्हें दो रुपये किलो के हिसाब से ले जाने की शर्त रखता है। अपना ही मजाक बनाते हुए कवि कहते हैं कि लोग किलोमीटर में यात्रा करते हैं और मैं किलो में करता हूं। ऐसा करते हुए वह अपने आपको डायनासोर तक कहने से गुरेज नहीं करते।

"मैं एक पिच्चर देखने गया जुरासिक पार्क। उसका हीरो डायनासोर था। जैसे ही मैं हॉल में पहुंचा लोगबाग मुझे देखकर ऐसे घूरने लगे जैसे मैं ही डायनासोर हूं। कुछ लोग तो टिकट फाड़कर घर जाने लगे। बोले- अब पिच्चर क्या देखना। हीरो तो यहीं है।"

अपना मजाक बनाना इतना आसान नहीं था। किसी ने लिखा है-

"इतना आसान नहीं खुद का तमाशा करना
कलेजा चाहिए औरों को हंसाने के लिए।"

औरों को हंसाते-हंसाते सामाजिक-राजनीतिक अव्यवस्थाओं की तस्वीर दिखा जाना प्रदीप चौबे अच्छी तरह से जानते थे। इसका अक्स उनकी खुद की शवयात्रा पर लिखी कविता और रेलयात्रा कविता में देखी जा सकती है। शवयात्रा कविता में बेहद औपचारिक और स्वार्थी हो चुके सामाजिक संबंधों का प्रतिबिंब पेश करते हुए चौबे उनके अंतिम यात्रा में आए लोगों के आपसी संवाद के माध्यम से कितनी बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। 

“हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे

एक हमारे बैंक का मित्र बोला -
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी

ये थोड़े दिन और इंतज़ार करता
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते।”

उनकी रेलयात्रा कविता तो जैसे आम आदमी की खीझ है। 

भारतीय रेल की जनरल बोगी 
पता नहीं आपने भोगी कि नहीं भोगी।

सब जानते हैं कि जनरल बोगी में यात्रा नहीं होती। उसे भोगा जाता है। नरक की तरह। एक जनरल डिब्बे की क्या दुनिया है, क्या व्यथा है, क्या चिड़चिड़ापन है और इन सबसे कैसे हास्य तैयार होता है, वह सब इस कविता में आसानी से देखा जा सकता है। बहुत सी चीजों से हम समझौता कर ले जाते हैं। उस समझौते की हंसी उड़ाकर विद्रोह के बीज बोने का काम भी उन्हें आता है, यह प्रदीप चौबे ने इसी कविता में सिद्ध किया है। 

"किसी ने पूछा- पंखे कहां हैं
उत्तर मिला- पंखों पर आपको क्या आपत्ति है
जानते नहीं, रेल हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है
कोई राष्ट्रीय चोर हमें घिस्सा दे गया है
संपत्ति में से अपना हिस्सा ले गया है"

यह व्यंग्य किसी प्रशासन पर नहीं बल्कि जनता पर था। हास्य-व्यंग्य में ज्यादातर निशाना प्रशासनिक संस्थाएं होती हैं। प्रदीप चौबे जरूरत पड़ने पर आम आदमी पर भी व्यंग्य करते हैं।

"टीचर के पास बटुआ
इससे अच्छा मजाक इतिहास में आज तक नहीं हुआ।"

मैं हास्य कवि प्रदीप चौबे से कभी मिला नहीं। यह जानने की बड़ी अभिलाषा थी कि जिस ‘महाकाया’ के कवि सम्मेलन के मंचों पर उपस्थित रहने भर से ही माहौल हंसने-परिहास करने लगता था, उसका व्यक्तिगत जीवन भी क्या ऐसी ही चुहलबाजी, हास-परिहास से भरा था। लेकिन, चौबे से कभी मिलना नहीं हुआ। ग्वालियर उनका घर था। कभी ग्वालियर जाना भी नहीं हो पाया। कवि सम्मेलन में भी कभी उन्हें सामने से नहीं सुना। यू ट्यूब पर उन्हें खूब सुना है। पिछले साल का एक विडियो हाल ही में देखा था। चौबेजी के गुदगुदाने वाले चेहरे पर एक अजीब सी उदासी और असमर्थता थी। देखकर बड़ी तकलीफ हुई। यह तकलीफ आज के शोक के साथ घुल गई है। यह और पीड़ादायक है।

प्रदीप चौबे हमारे बीच नहीं हैं। माइक्रो कविताएं लिखने वाली महाकाया का महाप्रस्थान हो चुका है। हास्य का आकाशदीप सशरीर बुझ चुका है लेकिन अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाते हुए संसार को मुस्कुराने-हंसने के तमाम बहाने देकर हमारा पूर्वज विदा हुआ है। उसके लगाए हास्य के पौधे हंसी की हवाएं न जाने कितनी नस्लों तक फैलाते रहेंगे। हम हंसते रहेंगे और प्रदीप चौबे को जीवनभर याद करते रहेंगे।

विदा हास्यकवि

मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा-
'आपका ट्रंक काल है साहब' 

Thursday, 11 April 2019

डरिए नहीं, डराने वालों को कीजिए रिजेक्ट

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डर हमेशा कमजोरी का पर्यायवाची नहीं होता। दुनिया की सबसे बड़ी विभत्सताएं इसी के साए में पली-बढ़ी और घटित हुई हैं। डर का इस्तेमाल सत्ता एक्सीलरेटर की तरह करती है। जितना ज्यादा जोर देंगे, उनकी गाड़ी उतनी ही आगे बढ़ेगी। यह सच नहीं है क्या कि डर इंसान के अंदर एक अबूझ, बर्बर और अनजान ताकत पैदा कर देता है। इस बारे में उस डरे हुए इंसान को भी पता नहीं होता। दुनिया भर में धर्म संरक्षण, जाति संरक्षण और राष्ट्रीयता संरक्षण के नाम पर जितने भी नरसंहार हुए हैं, उनके मूल में क्या इसी डर के बीजरोपण का मंत्र नहीं है।

'तुम प्रतिकार करो, प्रहार करो, नहीं तो तुम्हारा अस्तित्व खत्म हो जाएगा।' यह ध्येय वाक्य किसे उन्मादी नहीं बना देगा। आखिर हर कोई बच जाना तो चाहता ही है। सत्ताएं यही डर आपके भीतर बोती हैं। आप अपने ही देश को लीजिए। चुनाव का मौसम चल रहा है। वादों-दावों के बीच अक्सर दलों के नेता इस बात पर जोर डालना नहीं भूलते कि 'फलां पार्टी सत्ता में आएगी तो आपको बरबाद कर देगी। देश को विनष्ट कर देगी। आपके धर्म को खत्म कर देगी। आपके बीच खाई पैदा कर देगी। आपके समुदाय के लोगों का खात्मा कर देगी', वगैरह-वगैरह। यह डर का बीज नहीं है तो क्या है।

डर के आधार पर आपसे वोट ही नहीं मांगे जाते, आपको भड़काया जाता है। आपके मन में नफरत बोई जाती है। दो घरों के बीच दीवार नहीं खड़ी की जाती, खाई खोदी जाती है। सत्ताएं आपके सामाजिक साहचर्य की क्षमता, योग्यता, विवेक और प्रतिभा पर सवाल उठाती हैं। वे लगातार आपके अंदर प्रेम के साम्राज्य को चुनौती देती हैं। वे वहां नफरत की कॉलोनियां बनाती हैं और आपका हृदय उन्माद का उपनिवेश होता जाता है। इसलिए, गुलामी से बचना है तो विवेक जगाइए। प्रेम बढ़ाइए। डरिए नहीं क्योंकि डर बर्बरता को जन्म दे सकता है, संरक्षण की गारंटी नहीं।

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डर के बीज से उगी वीरता कभी सार्थक और उपयोगी नहीं हो सकती। अफ्रीका के रवांडा में 25 साल पहले एक भीषण नरसंहार हुआ था। उसकी बुनियाद नफरत थी और नफरत की जड़ में था लोगों के मानस में बोया गया डर का रक्तबीज। हुतु समुदाय के लोगों में यह डर भरा गया कि तुत्सी लोग गैर-ईसाई हैं और वह तुत्सी-साम्राज्य कायम करना चाहते हैं। रवांडा के एक रेडियो स्टेशन ने यह आह्वान किया था कि तुत्सियों का सफाया करने का वक्त आ गया है क्योंकि हमें अपना अस्तित्व बचाना है। तकरीबन 8 लाख लोग इस डर की भेंट चढ़ गए। उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इनमें केवल अल्पसंख्यक तुत्सी ही नहीं थे बल्कि हुतु समुदाय के वे लोग भी शामिल थे जो शांति की बात करते थे। जो थोड़े नरम थे।

हमारे देश में अभी ऐसा माहौल नहीं है कि हम नरसंहार तक पहुंचे लेकिन यह जानने-समझने वाली बात तो जरूर है कि चिंगारियों की तीव्रता ज्यादा नहीं होती लेकिन असावधानी उनके विकराल रूप को आमंत्रण दे सकती है। बीज और फिर पौध कोई विशालकाय पदार्थ नहीं होता लेकिन धीरे-धीरे पोषण मिलने पर वह हमारी बेखबरी के पीछे एक बड़ा वृक्ष बन जाता है। इसलिए, बेखबर न रहिए। हवा की गंध को सूंघिए, पहचानिए और कोशिश कीजिए कि जितनी मात्रा में लोग आग बो रहे हैं, हम उस हिसाब से उस पर पानी डालें। मन की मजबूती में भय नहीं पनपता। भय की अनुपस्थिति में हिंसा नहीं जनमती। ऐसे में चुनाव प्रचार में वादों-दावों और उकसाए जाने वाले भाषणों में डराने की भाषा को पहचानिए।

नेताओं की उकसाने वाली भाषाएं अराजकत तत्वों को अभयदान देती हैं। वह जिस भीड़ की आड़ लेते हैं, वह ऐसे ही कथित संरक्षणजन्य भय के बहकावे में आकर उनके साथ होती हैं। पहलू खान, अखलाक, जुनैद और ऐसे ही न जाने कितने ही अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दोष रवांडा की तर्ज पर बहुसंख्यक समुदाय की भीड़ का शिकार हो रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केवल निजी राजनैतिक फायदे के लिए सामाजिक सद्भाव में भय का यह जहर घोला जाता है। नयति इति नेता के भावार्थ से उपजने वाले शब्द को धारण करने वाले लोग समावेशी राजनीति करने की बजाय सामुदायिक और विभाजनकारी राजनीति को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं।

अगर हमें यह लगता है कि ऐसे लोगों की भारतीय राजनीति में जगह नहीं है तो इन डराने वाले नेताओं को रिजेक्ट कीजिए और डरना भी बंद कर दीजिए। अपने विवेक पर भरोसा रखिए। सामाजिक विश्वास बनाए रखिए क्योंकि बांटना अगर सत्तालोलुपता की जिम्मेदारी है तो नागरिकता की जिम्मेदारी है कि वह पुल बने। ताकि, सारी घृणा, सारे षड्यंत्र उसके नीचे से बह जाएं और लोगों का एक-दूसरे के गांव-देश में आना-जाना बना रहे।

अपनी नागरिकताओं की ओर लौटें

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◆ जरूरत है कि हम अपनी नागरिकताओं की ओर लौटें

मतदान सामूहिक हिस्सेदारी नहीं है। यह व्यक्तिगत दायित्व है। अपने लिए बेहतर के चुनाव का। इसके आपके अपने मापदंड हों। आपकी प्राथमिकताएं तय करें कि आपके क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कौन बेहतर कर सकता है। किसी को वोट देने का आधार यह न हो कि 'उसकी लहर है' या 'वह जीत रहा है'। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोगों से यह कहते सुना जा सकता है कि जो जीत रहा है उसे वोट देकर अपना वोट खराब करने से बचा जाए। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि वोट आपने चाहे हारने वाले को दिया या जीतने वाले को, वह खराब नहीं होता। या तो आप सत्ता चुनते हैं या विपक्ष। महत्वपूर्ण दोनों हैं।

आपका वोट आपकी अभिव्यक्ति है। लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति, जिसमें एक विचार, दृष्टि या नेतृत्व की सार्थकता या असार्थकता पर आप अपने विचार की मुहर लगाते हैं। यह कतई गोपनीय होना चाहिए। परिवार में ही अलग-अलग सदस्यों के मतांतर हों तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन आपको अपने मापदंडों के आधार पर प्रत्याशी चुनने चाहिए। यही तो चुनाव की मूल आत्मा है। अलग-अलग लोगों के मापदंड पर सबसे बेहतर कौन है? सामूहिक सलाह से वोट डालने में एक नुकसान है। उभयनिष्ठ सहमति बनाने के दौरान आपके अपने कई मापदंड हटाने पड़ते हैं। इसलिए अपने स्केल पर प्रत्याशियों को मापिए और फिर मतदान किसे करना है, इसका फैसला लीजिए।

चुनाव प्रचार का अधिकार प्रत्येक प्रत्याशी को संविधान देता है। वह किस तरह से अपना प्रचार करते हैं इसे सेंसर करने के लिए बहुत कसौटियां निर्धारित नहीं हैं। ऐसे में सुप्रचार और कुप्रचार के अंतर को अपने विवेक से समझना भी हमारे लिए चुनौती है। कोरी घोषणाओं से प्रभावित हुए बिना उनके शोध और उनकी व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर ही किसी के समर्थन अथवा विरोध का फैसला लेना चाहिए। चुनाव का वक्त केवल नेताओं की परीक्षा का मौसम नहीं होता। यह मतदाताओं के लिए उससे ज्यादा कठिन परीक्षा की घड़ी होती है।

असीमित दल बनाने के संवैधानिक अधिकार ने दलों की गिनती में बेतहाशा वृद्धि की है। जाति-धर्म-विचारधारा-लिंग-समुदाय के आधार पर बने अनेक दल चुनाव के दौरान अपनी दावेदारी पेश करते हैं। हममें से ज्यादातर देशवासियों की राजनैतिक निष्ठाएं पहले से ही निर्धारित हैं। हमारी प्रतिबद्धता घोषित है। हमने समाज को कुछ खांचों में विभाजित कर दिया है। यहां अपने विचारों के आधार पर लोग दलों के निष्ठावान कार्यकर्ता घोषित कर दिए जाते हैं। निष्पक्ष, जनहितकारी और पारदर्शी सरकार के चुनाव के लिए हमें इन पूर्वागर्हों से बाहर निकलना होगा। हमें अपनी नागरिकताओं की ओर लौटना होगा। भाजपाई, कांग्रेसी, सपाई या बसपाई होने से पहले नागरिक जिम्मेदारी के अनुच्छेदों पर दृष्टि डालनी होगी।

नागरिक होंगे तभी अपने देश के लिए नेता चुन पाएंगे। दल का समर्थक होकर हम सिर्फ दल का नेता चुनने की ही योग्यता रखते हैं। एक बात और, राजनैतिक दलों के निर्णयों में हमारी सहभागिता नहीं होनी चाहिए। सरकार बनेगी कैसे? आंकड़े कैसे पूरे होंगे? प्रधानमंत्री कौन बनेगा? जैसी चिंताएं हमारी नहीं हैं। हमारी चिंता है कि हम अपने क्षेत्र से सबसे बेहतर प्रतिनिधि कैसे भेज सकते हैं। अगर हर कोई अपने क्षेत्र से बेहतर प्रतिनिधि भेजता है, कर्मठ सांसद भेजता है तो निश्चित रूप से जो भी सरकार बनेगी वह बेहतर ही होगी। दलों के दलदल में फंसे लोकतंत्र को कुछ ऐसे ही उपायों से उबारा जा सकता है।
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