माइक्रो कविताएं लिखने वाली 'महाकाया' का महाप्रस्थान, अलविदा प्रदीप चौबे
प्रदीप चौबे को यमराज मिल गया। उन्हें ही मिल सकता था। जिंदा आदमी को यमराज मिलते कभी नहीं देखा-सुना है लेकिन उन्हें मिल गया था। यमराज ने पूछा- चौबे जी नरक जाना चाहेंगे या स्वर्ग। चौबे तपाक से बोले- नरक। क्यों? उत्तर मिला- पब्लिक तो वहीं मिलेगी। हास्य कवि को और क्या चाहिए?
पता नहीं प्रदीप चौबे अभी परलोक के किस मोहल्ले में होंगे, किस देश में होंगे। किस गांव में होंगे। वैसे वह मंचों से यह भी तो कहते रहे हैं कि मैं कॉन्फिडेंस का कवि हूं। तालियों की आदत लगाई ही नहीं। सामने एक भी श्रोता हो तो वह कविता पढ़ जाते हैं। उन्ही के मुताबिक एक किस्सा है जो वह मंचों से सुनाते थे कि किसी बड़े कवि सम्मेलन के आखिर में पंडाल में सिर्फ दो लोग बचे थे। एक श्रोता और एक कवि। प्रदीप चौबे कविता पढ़ रहे थे। उन्होंने उस एक श्रोता से कहा, जरूर आप मेरे लिए बैठे हैं, तो श्रोता ने कहा, अरे नहीं, आप पढ़के उतरिए। आपके बाद हमारा नंबर है।
अभी तक चौबे को कॉन्फिडेंस था कि वह एक श्रोता के लिए भी कविता पढ़ते थे। चाहे वह आखिरी श्रोता उनका उत्तरवर्ती कवि ही क्यों न हो। उस दिन उन्हें एक और शब्द मिला - 'ओवर-कॉन्फिडेंस', जो उनके श्रोता-कवि के पास था। जाहिर है, वह दूसरा कवि भी प्रदीप चौबे ही था। ऐसे में इतने जन-विरल परिसर में रहने वाले कवि की इच्छा के विरुद्ध और उनकी किस्मत की मंशा के समर्थन में इसकी पुरजोर संभावना है कि वह स्वर्ग की किसी शानदार कॉलोनी का बाशिंदा हुआ होगा।
एक तीसरी बात भी जो चौबे अपने बारे में मंचों से कहते थे, वो यह कि कविताएं वह लंबी नहीं लिखते हैं। वह इशारों के कवि हैं। इशारों में कहते-
'आप मुझे सुन रहे हैं यह मेरी खुशनसीबी है, आपकी जो हो'
.......
"पूछताछ काउंटर पर किसी को भी न पाकर
हमने प्रबंधक से कहा जाकर-
‘पूछताछ बाबू सीट पर नहीं है उसे कहां ढूंढें?
जवाब मिला – ‘पूछताछ काउंटर पर पूछें!’"
.........
"पलक झपकते ही हमारी अटैची साफ हो गई
झपकी खुली तो सामने लिखा था-
इस स्टेशन पर सफाई का मुफ्त प्रबंध है।"
"पूछताछ काउंटर पर किसी को भी न पाकर
हमने प्रबंधक से कहा जाकर-
‘पूछताछ बाबू सीट पर नहीं है उसे कहां ढूंढें?
जवाब मिला – ‘पूछताछ काउंटर पर पूछें!’"
.........
"पलक झपकते ही हमारी अटैची साफ हो गई
झपकी खुली तो सामने लिखा था-
इस स्टेशन पर सफाई का मुफ्त प्रबंध है।"
और, एक कविता में-
"हमारे पिता जी बहुत अच्छे पिताजी थे
उनकी बड़ी तमन्ना थी कि उनके घर में कोई फौज में जाए
उनको मैं ही पसंद आया
एक दिन मुझसे बोले- मैं देश की सेवा करना चाहता हूं
तू कल फौज में भर्ती हो जा"
यह दुनिया 'निंदक नियरे राखिए' की उल्टी दिशा में काफी आगे निकलती जा रही है। मजाक छोड़िए, लोग अपनी आलोचना तक सहन नहीं कर पाते। ऐसे में प्रदीप चौबे अपनी कायिक अवस्था को किसी कमी की तरह नहीं देखते, उस पर अफसोस नहीं करते, रोते नहीं बल्कि उसे हास्य की सामग्री बनाकर अपना ही मजाक उड़ाते हैं। अपने मोटापे पर उन्होंने न जाने कितने चुटकुले बनाए हैं। कितनी कविताएं भी लिखीं। लगभग उनकी हर कविता में यह चीज देखी जा सकती है। चाहे वह रेलयात्रा के कुली का जिक्र हो जिसके लिए
'बाबूजी आप किस सामान से कम हैं'
या फिर वह रिक्शावाला, जो उन्हें दो रुपये किलो के हिसाब से ले जाने की शर्त रखता है। अपना ही मजाक बनाते हुए कवि कहते हैं कि लोग किलोमीटर में यात्रा करते हैं और मैं किलो में करता हूं। ऐसा करते हुए वह अपने आपको डायनासोर तक कहने से गुरेज नहीं करते।
"मैं एक पिच्चर देखने गया जुरासिक पार्क। उसका हीरो डायनासोर था। जैसे ही मैं हॉल में पहुंचा लोगबाग मुझे देखकर ऐसे घूरने लगे जैसे मैं ही डायनासोर हूं। कुछ लोग तो टिकट फाड़कर घर जाने लगे। बोले- अब पिच्चर क्या देखना। हीरो तो यहीं है।"
अपना मजाक बनाना इतना आसान नहीं था। किसी ने लिखा है-
"इतना आसान नहीं खुद का तमाशा करना
कलेजा चाहिए औरों को हंसाने के लिए।"
औरों को हंसाते-हंसाते सामाजिक-राजनीतिक अव्यवस्थाओं की तस्वीर दिखा जाना प्रदीप चौबे अच्छी तरह से जानते थे। इसका अक्स उनकी खुद की शवयात्रा पर लिखी कविता और रेलयात्रा कविता में देखी जा सकती है। शवयात्रा कविता में बेहद औपचारिक और स्वार्थी हो चुके सामाजिक संबंधों का प्रतिबिंब पेश करते हुए चौबे उनके अंतिम यात्रा में आए लोगों के आपसी संवाद के माध्यम से कितनी बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं।
“हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे
एक हमारे बैंक का मित्र बोला -
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी
ये थोड़े दिन और इंतज़ार करता
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते।”
उनकी रेलयात्रा कविता तो जैसे आम आदमी की खीझ है।
भारतीय रेल की जनरल बोगी
पता नहीं आपने भोगी कि नहीं भोगी।
सब जानते हैं कि जनरल बोगी में यात्रा नहीं होती। उसे भोगा जाता है। नरक की तरह। एक जनरल डिब्बे की क्या दुनिया है, क्या व्यथा है, क्या चिड़चिड़ापन है और इन सबसे कैसे हास्य तैयार होता है, वह सब इस कविता में आसानी से देखा जा सकता है। बहुत सी चीजों से हम समझौता कर ले जाते हैं। उस समझौते की हंसी उड़ाकर विद्रोह के बीज बोने का काम भी उन्हें आता है, यह प्रदीप चौबे ने इसी कविता में सिद्ध किया है।
"किसी ने पूछा- पंखे कहां हैं
उत्तर मिला- पंखों पर आपको क्या आपत्ति है
जानते नहीं, रेल हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है
कोई राष्ट्रीय चोर हमें घिस्सा दे गया है
संपत्ति में से अपना हिस्सा ले गया है"
यह व्यंग्य किसी प्रशासन पर नहीं बल्कि जनता पर था। हास्य-व्यंग्य में ज्यादातर निशाना प्रशासनिक संस्थाएं होती हैं। प्रदीप चौबे जरूरत पड़ने पर आम आदमी पर भी व्यंग्य करते हैं।
"टीचर के पास बटुआ
इससे अच्छा मजाक इतिहास में आज तक नहीं हुआ।"
मैं हास्य कवि प्रदीप चौबे से कभी मिला नहीं। यह जानने की बड़ी अभिलाषा थी कि जिस ‘महाकाया’ के कवि सम्मेलन के मंचों पर उपस्थित रहने भर से ही माहौल हंसने-परिहास करने लगता था, उसका व्यक्तिगत जीवन भी क्या ऐसी ही चुहलबाजी, हास-परिहास से भरा था। लेकिन, चौबे से कभी मिलना नहीं हुआ। ग्वालियर उनका घर था। कभी ग्वालियर जाना भी नहीं हो पाया। कवि सम्मेलन में भी कभी उन्हें सामने से नहीं सुना। यू ट्यूब पर उन्हें खूब सुना है। पिछले साल का एक विडियो हाल ही में देखा था। चौबेजी के गुदगुदाने वाले चेहरे पर एक अजीब सी उदासी और असमर्थता थी। देखकर बड़ी तकलीफ हुई। यह तकलीफ आज के शोक के साथ घुल गई है। यह और पीड़ादायक है।
प्रदीप चौबे हमारे बीच नहीं हैं। माइक्रो कविताएं लिखने वाली महाकाया का महाप्रस्थान हो चुका है। हास्य का आकाशदीप सशरीर बुझ चुका है लेकिन अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाते हुए संसार को मुस्कुराने-हंसने के तमाम बहाने देकर हमारा पूर्वज विदा हुआ है। उसके लगाए हास्य के पौधे हंसी की हवाएं न जाने कितनी नस्लों तक फैलाते रहेंगे। हम हंसते रहेंगे और प्रदीप चौबे को जीवनभर याद करते रहेंगे।
विदा हास्यकवि
मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा-
'आपका ट्रंक काल है साहब'