राघवेंद्र शुक्ल 10/12/2016,शनिवार
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राज्यसभा में बोलते डा. मनमोहन सिंह |
“मैं
नोटबंदी के उद्देश्यों से असहमत नहीं हूँ,लेकिन इसे ठीक तरीके से लागू नहीं किया
गया।इसका असर क्या होगा,नहीं कह सकता,लेकिन इससे जीडीपी में 2 प्रतिशत की गिरावट आ
सकती है।छोटे उद्योगों और कृषि को भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है।प्रधानमंत्री
यह बताएं कि दुनिया में ऐसा कौन सा देश है जहाँ लोग बैंक में पैसा जमा करा सकते
हैं लेकिन अपना पैसा निकाल नहीं सकते”।
आमतौर पर मौन रहने वाले
पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में बहस के दौरान जब मौन तोड़ा तो
एक एक कर नोटबंदी से काले धन और कर-चोरी के खिलाफ जंग लड़ने के सरकार के सभी दावों
की धज्जियां उड़ाते चले गए।राज्यसभा में नोटबंदी को ‘कानूनन चलायी जा रही व्यवस्थित लूट’ बताने वाले पूर्व प्रधानमंत्री नें एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित अपने
लेख में प्रधानमंत्री के कर चोरी रोकने तथा आतंकियों द्वारा नकली नोटों के
इस्तेमाल को खत्म करने की मंशा की तारीफ तो की है,लेकिन साथ
ही साथ उन्होने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री नें 1 अरब से अधिक भारतीयों का विश्वास तोड़ा है।इसके पूर्व आरबीआई के पूर्व
गवर्नर रघुराम राजन ने भी विमुद्रीकरण की बजाय कर चोरी के खिलाफ कानूनों में सुधार
करने संबंधी आवश्यकता पर जोर दिया था।
राज्यसभा में या फिर
अपने लेख में डा. सिंह ने नोटबंदी को लेकर जो कुछ भी कहा उनमें बहुत कुछ नया नहीं था।8 नवंबर को
प्रधानमंत्री के उद्घोषणा करने के बाद से ही सभी दलों की प्रतिक्रियाओं में यही
बात निकल कर सामने आ रही थी,कि फैसला तो सही है,लेकिन तैयारी पूरी नहीं।सरकारी
पक्ष लगातार इस बात का खण्डन करता रहा।लेकिन उसके आश्वासन (या फिर सफाई कहें तो
ज्यादा बेहतर होगा) का प्रतिबिंब तमाम खाली पड़े एटीएम और लंबी लाईनों में घण्टों
लगे रहने के बावजूद खाली हाथ लौट रहे लोगों की हताश आँखों में साफ तौर पर देखा जा
सकता है।
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पीएनबी एटीएम के बाहर लगी लंबी लाइन |
भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्र रोहिन कुमार एक दिन के चार लेक्चर छोड़कर
एटीएम की लाइन में लगते हैं,और परीक्षाओं के मौसम में क्लास छोड़ने और सुबह 7 बजे
से ही वसंत कुंज के एक बैंक की लंबी लाइन में खड़े रहने जैसी बड़ी कीमत की अदायगी
के बावजूद उनके कोष में वही कुछ गिने चुने सिक्के दिखाई देते हैं जिनकी तेजी से
घटती संख्या उन्हे क्लास छोड़ लाईन में लगने पर मजबूर करती है।उसी संस्थान के
समरजीत,आशुतोष और विवेक कुमार क्लास न छोड़ने के विकल्प के रूप में लाईन लगने के
लिए रात का वक्त चुनते हैं,और रात 1 बजे से अपने ठिकाने(बेर सराय) से लगभग 3 किमी
दूर आर.के.पुरम के किसी एटीएम में कतारबद्ध होते हैं।हालांकि इन्हे निराशा हाथ लगने
की बजाय दो-दो हजार रूपये तो हाथ लगते हैं,मगर अभी भी वो उस समस्या से उतनी ही दूर
हैं जितना कि पहले थे,जिसके लिए उन्हे अपनी आरामदायी रातों को कुर्बान करना पड़ा
था।समर और विवेक को अपने कमरे का किराया देना(5500 रू. और 4000 रू. क्रमश) और
आशुतोष के लिए सर्दियों से संबंधित खरीददारी(स्वेटर,कंबल आदि) अपरिहार्य आवश्यकताओं
में है।यह तो राजधानी का सूरत-ए-हाल है।हमसे छोटे शहरों,कस्बों और गांवों की हालत
का अंदाजा भी नहीं लगाया जा रहा।हमने जब अपने घर पैसे अकाउंट में डालने की बात की
तो पता चला कि वहां तो लाठियां चल रही हैं बैंकों के सामने लगी कतारों पर।मतलब
अपने ही खून-पसीने की कमाई निकालने-जमा करने में पसीने के साथ-साथ खून भी छूटने लग
रहे हैं।
स्पष्ट है,समस्या सिर्फ लाईन में घण्टों खड़े रहना नहीं है,बल्कि पैसे निकालने
की निर्धारित सीमा(2500 रू) भी लोगों की परेशानी का कारण बना हुआ है।बैंकों में साढ़े
चार हजार तक के पुराने नोटों को बदलने का फैसला भी वापस लिया जा चुका है।अब पुराने
नोट बैंकों में केवल जमा किए जा सकते हैं।और तो और पेट्रोल पंपों पर पुराने नोट
देने की सुविधा भी 2 दिसंबर से बंद कर दी गयी है।कैशलेस अर्थव्यवस्था का लक्ष्य
पाने के लिए लोग अब कैशलेस होकर घूम रहे हैं।
परेशानियां यहीं खत्म नहीं होतीं।व्यक्तिगत स्तर की इन समस्याओं से इतर लघु
व्यापारिक तबका इससे भी गंभीर संकट से गुजर रहा है।छोटे
दुकानदारों,किसानों,दिहाड़ी मजदूरों पर नोटबंदी कहर बनकर टूटा है।शादी के मौसम में
जब बनारसी साड़ी का व्यापार बुलंदियां छूता है,ऐसे में नोटबंदी के फैसले ने बनारस
के गरीब बुनकरों की कमर तोड़कर रख दी है।सरइया,बनारस के बुनकर मोबीन से जब इस बाबत
पूछा जाता है तो हताश शब्दों में अपनी परेशानी बताते हुए वे कहते हैं कि “नोटबंदी के बाद से व्यापार ठप्प पड़ा हुआ
है।तानी-बानी और धागा देने वाले लोग चेक नहीं ले रहे हैं।ऐसे ही चलता रहा तो
भुखमरी की भी नौबत आ सकती है”।बनारस के लगभग 80
प्रतिशत(अनुमानित) करघे बंद हो गए हैं।औरंगाबाद में एटीएम की कतार में खड़े
निर्माण कार्य के सुपरवाईजर अपने मजदूरों की बगावत से डरे हुए हैं।उनका कहना है कि
“मजदूर अपने काम की मजदूरी चाहते हैं,और उनके पास उन्हे देने
के लिए पैसे नहीं हैं”।किसानों के लिए अब तक सिर्फ मौसम ही
सबसे बड़ी चुनौती थी,लेकिन इस बार उनके लिए नई चुनौतियों की सौगात सरकार की तरफ से
मिली है।नोटबंदी के बाद बाजार से गायब 85 फीसदी नकदी से उपजे
संकट की मार झेल रहे किसानों की आज की परेशानी कल देश के लिए विपत्ति भी बन सकती
है,इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।दिल्ली के ही एक गांव के किसान बुद्धा सिंह
एक पत्रकार को बताते हैं “हमें जितने बीजों,खादों और कीटनाशकों
की जरूरत है,हम वो नहीं खरीद पा रहे हैं”।ऐसे में यदि
उत्पादन पर असर पड़ता है तो भविष्य में जब स्थितियां सामान्य होंगी,और सबके पास
पर्याप्त नोट होगा,तब कम उत्पादन से उपजी महंगाई उन्हें अपनी जेब ढीली करने पर
विवश कर सकती है।
पश्चिम बंगाल के एक गांव
वृंदावनपुर के किसान संदीप बनर्जी अपने मजदूरों को मजदूरी देने को लेकर बहुत परेशान
थे।ऐसे में उन्होने मजदूरों को उनकी मजदूरी के रूप में पैसों के बदले अनाज देने की
तरकीब निकाली।इस बाबत बनर्जी अपनी समस्या बताते हुए कहते हैं “मैनें बड़ी मुश्किल से मजदूरों को अनाज लेने
के लिए मनाया है।मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था,क्योंकि बैंकों के पास पैसा नहीं
था”।गांव के लोग भी मुश्किलों से निपटने के लिए सामानों की
अदला बदली से अपनी जरूरतें पूरी कर रहे हैं।मजदूर महिला बिपक तारिणी बागदी बताती
हैं कि “जीवन में नोटों का ऐसा संकट पहले नहीं देखा था।पैसे
के बदले किसान हमें दो किलो चावल देते हैं।एक किलो हम घर के लिए रख लेते हैं.एक
किलो से हम दुकान से सामान बदल लेते हैं”।
जमीनी स्तर की इन समस्याओं से इतर बड़े आर्थिक नफा-नुकसान पर भी राष्ट्रीय
बहसें चल रहीं हैं।विमुद्रीकरण से काले धन के अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाने को
लेकर किये जा रहे सरकार के दावे भी वास्तविकता की जमीन छोड़ रहे हैं।देश की लगभग
86 फीसदी करेंसी 8 नवंबर की विमुद्रीकरण घोषणा की भेंट चढ़ चुकी है।एक आकलन के
मुताबिक देश में लगभग 6 लाख करोड़ रूपए काला धन नकदी के रूप में मौजूद है,(हालांकि
यह कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।)31 मार्च 2016 तक के आंकड़ों के मुताबिक 500 और
1000 रुपए के नोटों की कुल कीमत लगभग 14.5 लाख करोड़ रुपए है।आर्थिक मामलों के
जानकार यह मानते हैं कि यदि काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर हो गया होगा तो साढ़े 14
लाख करोड़ रुपए में से काला धन(6 लाख करोड़ रुपए) निकाल देने के बाद बचे करीब 8
लाख करोड़ रुपए बैंकों में वापस आ जाने चाहिए।तब जाकर सरकार को अपनी पीठ थपथपाने
का मौका मिल सकता था।लेकिन ताजा आंकड़ों ने सरकार की नींद उड़ा दी है,जिसके अनुसार
लगभग 12 लाख करोड़ रुपए बैंकों में वापस जमा हो चुके हैं,और आखिरी आंकड़ा आने के
लिए अभी 20 दिन और शेष हैं।ऐसे में विमुद्रीकरण की सफलता पर प्रश्न उठना तो लाज़िमी
है।
विमुद्रीकरण मसले पर सरकार और विपक्ष में जंग छिड़ी हुयी है।संसद का शीतकालीन
सत्र इसकी बलि चढ़ रहा है।विपक्ष प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहा है,और
प्रधानमंत्री सदन को छोड़कर हर जगह (मुंहतोड़) जवाब देते फिर रहे हैं।सरकार अपने
फैसले की प्रतिष्ठा बचाने की जद्दोदहद में लगी हुयी है,विपक्ष जी जान से यह सिद्ध
करने में लगा है कि सरकार ने विमुद्रीकरण के बाद के हालात से निपटने की तैयारी पूरी
नहीं की थी।जनहित के सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़े इन सभी राजनीतिक दलों की इस
लड़ाई से परे सारा देश कतारों में खड़े होकर देश में कुछ अच्छा होने की उम्मीदें
पाल रहा है।विमुद्रीकरण की घोषणा हुए आज एक महीने दो दिन हो गए,लेकिन न तो एटीएम
की कतारों पर कोई फर्क पड़ा और न ही इस संकट से निकलने के लिए कोई ठोस,विश्वसनीय
नीति,व्यवस्था या समाधान की झलक ही दिखाई पड़ी।लोग रोजमर्रा की जरुरतों से मजबूर
होकर नियमित रुप से एक अघोषित कर्तव्यपालन के रुप में कतारों का हिस्सा बनते
हैं,और मशीनों की भाषा चुनावी वादों की तरह नो कैश के जुमलों में बदल जाती है।कोई
करे भी तो क्या करे।विपक्ष को पता है कि सरकार अब इस फैसले को वापस नहीं लेने
वाली।ऐसे में उसे जनता की सहूलियत के लिए सरकार के सहयोग को अपने नाटकीय और बनावटी
राजनीति से ज्यादा महत्वपूर्ण समझना चाहिए।प्रधानमंत्री से सवाल करना बहुत जरुरी
है,कि इतना बड़ा फैसला करने से पहले उन्हे इससे मचने वाले हाहाकार के बारें में
भनक भी थी कि नहीं?और अगर
थी,तो इसके लिए उन्होने उस स्तर की तैयारियां क्यों नहीं की?गवर्नर
का कहना है कि नोटों की कोई कमी नहीं है,तो आखिर खाली पड़े एटीएम के पीछे क्या
रहस्य है?वित्त मंत्री ने दो हफ्तों में हालात के सामान्य
होने का आश्वासन दिया था,फिर उसका दो-तीन महीने तक विस्तार कर दिया।लोगों को इस
तरह का झूठा आश्वासन देकर कब तक मंत्रीजी अपनी जिम्मेदारियों से भागेंगे?ये सारे सवाल वाज़िब हैं।लेकिन अभी सवालात से ज्यादा हालात को सामान्य
करने की कोशिश होनी चाहिए,फिलहाल सरकार और विपक्ष दोनों को मिलकर इस समस्या से
निपटने के तरीकों की तलाश करनी चाहिए।
क्या विमुद्रीकरण काले-धन के खिलाफ आखिरी अस्त्र था?क्या विमुद्रीकरण के लिए यह वक्त सही था?क्या इसके बाद पैदा होने वाले संकट से निपटने की तैयारियां पर्याप्त थीं?विमुद्रीकरण के भावी परिणाम क्या होंगे?मुद्रा से
संबंधित नीतिगत फैसले की घोषणा करने के पारंपरिक अधिकारी रिजर्व बैंक की बजाय
प्रधानमंत्री के विमुद्रीकरण की घोषणा करने के पीछे क्या कारण है?यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब आज नहीं तो कल मोदी सरकार को देना ही पड़ेगा।नहीं
तो इतिहास में जम्हूरियत के विश्वासघात से मिले बेशुमार घावों की मरहम पट्टी करते
हुए विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र का अधिनायक अब अपने अंदाज़ में उत्तर देना सीख ही गया है।
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राघवेन्द्र शुक्ल
भारतीय जनसंचार संस्थान
नई दिल्ली
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