सौ किताबें पढ़ना तब एक बार कुछ लिखना। |
दिवसों की औपचारिकताओं में पुस्तक दिवस का भी शामिल हो जाना हैरान नहीं करता। हम जिन भी चीजों से दूर होते जाएंगे उनके नाम एक दिन निर्धारित कर देंगे। इसलिए क्योंकि हर दिन हम उसके लिए समय नहीं दे सकते सो एक दिन तो उसके बारे में कुछ सोचे-कहें। पुस्तक दिवस ऐसा ही एक दिन है। सुबह से सोशल मीडिया पर पुस्तकों के बारे में तमाम चीजें पढ़ रहा हूं। पुस्तकों पर शेर लिखे जा रहे हैं। पुस्तकों की तस्वीरें दिख रही हैं। कोट्स भी हैं कुछ जो पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। अच्छा है सब। पढ़कर मन खुश हो जाता है। आश्वासन भी मिलता है कि पुस्तकों से दोस्ती करके कुछ गलत नहीं किया। सही संगत है।
अपने सामाजिक परिवेश की बात करूं तो यहां पुस्तकों का एक प्रतिष्ठित दर्जा है। किताबों से लगाव रखने वाले लोगों को हमारे यहां अलग ही दृष्टि से देखा जाता है। बुजुर्गों और शिक्षित लोगों के लिए किताबों में घुसा रहने वाला व्यक्ति समझदार है। माता-पिता के लिए उनके बेटे का पुस्तक-प्रेम सामाजिक संवादों में उन्हें मजबूत स्थिति प्रदान करने वाला तथ्य है। जिन लोगों को पुस्तकों से प्रेम नहीं होता उनके लिए पुस्तक पढ़ने वाला व्यक्ति 'छद्म पढ़वैय्या' टाइप है जो किताबें पढ़ने का केवल दिखावा करता है और जिसकी वजह से उनके माता-पिता के तानों को उस 'किताबी कीड़े' का सहज उदाहरण उपलब्ध हो जाता है। खैर, जो भी हो। किताबों से प्रेम होना मजेदार चीज है। बचपन से ही लोगों को इनसे दोस्ती कर लेनी चाहिए। अब तक के अपने तमाम अनुभवों से मैं इस बात का पक्का समर्थक हो गया हूं।
बचपन में शिक्षकों के वे कथन मुझे आज भी याद हैं जिनमें वे कहते कि किताबें पढ़ो। यह जरूरी नहीं कि वे किताबें तुम्हारे सिलेबस की हैं या नहीं। कोई भी किताब उतनी ही उपयोगी होती है जितनी कोर्स-सिलेबस की किताबें। किताबों से दोस्ती करने को प्रेरित करने वाले शिक्षक ही आपके सच्चे हितैषी हैं। अन्य सभी सामान्य बच्चों की तरह मुझे भी पढ़ना-लिखना कहां भाता था। दरअसल, हमारे यहां पढ़ने के नाम पर दो ही चीजें मशहूर और स्वीकार्य थीं। पहला- गणित के सवाल लगाना और दूसरा अंग्रेजी के मीनिंग्स याद करना। इसके अलावा पेपर पढ़ते या अन्य किताबों में सिर घुसाए दिख जाने पर परीक्षाओं का हवाला देकर अच्छी खासी डांट पड़ती। अभिभावकों का पढ़ाई को लेकर इस तरह का पक्षपात कभी भी सिलेबसेत्तर किताबों को पढ़ने में सहज महसूस नहीं होने देता था। हालांकि, इसके लिए विकल्प था कि हम अपने सिलेबस की चीजें तैयार कर लें और फिर इन किताबों को पढ़ें। इस पर किसी की नाराजगी का कोई कारण नहीं था। लेकिन इतने भी तो मेधावी नहीं थे न। सो, पाठ्यक्रम से इतर किताबों से दोस्ती न हो पाई कभी।
साहित्यिक किताबों की उपलब्धता भी हमारे क्षेत्र में आसान नहीं थी। और हममें उतनी प्यास भी नहीं कि तमाम महापुरुषों की कहानियों की तरह 'जिन ढूंढा तिन पाइयां' की तर्ज पर साहित्यिक किताबें कहीं से खोज लाते। सच तो यह था कि हाईस्कूल तक आकर भी हमने सिवाय रश्मिरथी, निर्मला और गोदान के कोई समूचा साहित्य देखा ही नहीं था। इलाहाबाद आने के बाद कुछेक लोकप्रिय किताबों के दर्शन हुए जिनके रचनाकारों के नाम बचपन से रटते आए थे। भारत-भारती, कामायनी, आनंदमठ, देवदास, आकाशदीप, हल्दीघाटी आदि कुछ ऐसी ही रचनाएं थीं। कविताएं लिखने का शौक था। पढ़ने का भी शौक था। लेकिन हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की किताबों में जितने काव्य थे उनके अतिरिक्त कविताओं का कोई दूसरा संग्रह उपलब्ध नहीं था। उन्हीं कविताओं को पढ़कर शुरुआती काव्य-लेखन आरंभ हुआ था। इसीलिए शुरुआती रचनाओं में रामधारी सिंह दिनकर, निराला जैसे रचनाकारों की छाप टूटी-फूटी और कच्ची अवस्था में दिखलाई पड़ती है। उनके जैसे शब्द-शिल्प बनाने की नाकाम कोशिशें।
कविताओं पर टिप्पणी करते हुए गुरूजी ने समझाया था कि लिखने से पहले पढ़ना जरूरी है। उन्होंने कहा था कि सौ किताबें पढ़ना तब एक बार कुछ लिखना। यह मंत्र दिमाग में बैठ गया। उन्हीं के सुझाव पर कुछ किताबें खरीदी गईं और किताबों से निकटता बढ़नी शुरू हुई। महंगी किताबें पुस्तक मेले से, यूनिवर्सिटी रोड से खरीदने का सिलसिला शुरू हुआ। किताबों पर खर्च करना कहीं से फिजूलखर्ची नहीं लगता सो किताबें बढ़ती गईं। अब तो अपनी सैलरी आती है। सो हर महीने एक-दो किताबें मंगा ही ली जाती हैं। काफी किताबें इकट्ठी हो गई हैं। अब पढ़ने का समय नहीं मिलता। लेकिन धीरे-धीरे किताबें मेरे लिए सबसे निकटतम हमसफर बनती जा रही हैं।
किताबों का हमारे जीवन में क्या प्रभाव है इस बारे में विश्लेषण के लिए अभी मेरी उम्र पर्याप्त समय नहीं है। कभी-कभी लगता है कि मेरे जीवन में किताबों का दाखिला बेहद जरूरी था। यह मेरा अकेलापन दूर करती हैं। किताबें हैं इसलिए मैं हमेशा इस बात का दावा करता फिरता हूं कि मैं कभी अकेला नहीं होता। कहानियों, उपन्यासों के अलावा कविताएं पढ़ना बेहद पसंद है। यात्रा-साहित्य, दलित साहित्य, ऐतिहासिक सूचनाओं से समृद्ध कुछ किताबें, आत्मकथा आदि कुछ ऐसी साहित्यिक विधाएं हैं जो विशलिस्ट में शामिल हैं। मतलब मौका लगते ही इन्हें पढ़ना है। साहित्य का गलियारा अभी इतना परिचित नहीं है कि उसमें से मैं पसंदीदा लोगों की सूची तैयार करूं। जो भी पढ़ा है अभी बेहद कम है। अभी लगातार पढ़ना है।
खैर, ये तो रही मेरी बात। हालांकि, बहुत यह बहुत ज्यादा समय नहीं है लेकिन फिर भी किताबों के परिप्रेक्ष्य में दौर अब काफी बदला है। इंटरनेट और स्मार्टफोन्स की सुलभता और घर-घर इसकी उपलब्धता ने अब पढ़ना आसान बना दिया है। अब किताब कागज पर मुद्रित कुछ अक्षरों की परिभाषा से बाहर आ गए हैं। किंडल, ई-बुक्स और तमाम ब्लॉग्स ने साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं को हर किसी की दहलीज तक पहुंचाया है। अब ऐसी-ऐसी रचनाएं हम पढ़ जाते हैं जिसके बारे में कभी सोचा भी न हो। शहरों से लेकर सुदूर गांवों तक के लोग अगर पढ़ने की थोड़ी-बहुत भी ख्वाहिश रखते हैं तो उन्हें किताबें सहज रूप से उपलब्ध हैं। बहुत सी किताबें इंटरनेट पर ई-बुक्स की शक्ल में उपलब्ध हैं। ऐसा नहीं है कि मैं बहुत पुराने दौर का हूं लेकिन मैंने ऊपर जिस दौर की बात की है उस समय तक अभी स्मार्टफोन्स और ई-बुक्स का चलन लोकप्रिय नहीं हुआ था खासकर, रुद्रपुर के उस इलाके में जहां मेरी पढ़ाई-लिखाई चली। बाद में इलाहाबाद आने के बाद मैंने दो महत्वपूर्ण उपन्यास देवदास और आनंदमठ ई-बुक्स के जरिए ही पढ़ी।
अब मैं पढ़ने के लिए ई-बुक्स का बेहद कम इस्तेमाल करता हूं। मुझे कागज वाली किताबें ज्यादा भाती हैं। मैं उस पर अपनी पसंदीदा लाइनों को रेखांकित कर सकता हूं। साथ ही मैं आंखों के लिए भी यह विकल्प बेहतर लगता है। मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन पर आप ज्यादा देर तक नहीं पढ़ सकते। महंगाई की जद में सिर्फ सब्जियां और पेट्रोल ही नहीं आते, किताबें भी आती हैं। लगातार किताबें महंगी होती जा रही हैं। ऐसे में पाठकों की संख्या प्रभावित होना आम है। अच्छी वस्तुनिष्ठ और जानकारीपरक किताबों के लिए हम हिंदी पट्टी के लोग थोड़े-से अभावग्रस्त रहते हैं।ज्यादातर अच्छी और लोकप्रिय किताबें अंग्रेजी में लिखी हैं। उनके अनुवाद जो हिंदी में हैं या तो बेहद कठिन हैं या फिर हैं ही नहीं। ऐसे में हमारे पास पढ़ने के सीमित संसाधन हैं। लेकिन वह भी इतने हैं कि पढ़ते-पढ़ते उमर निकल ही जाए।
किताबों को देखने के लिए दो तरह की दृष्टि है। एक पाठक की और एक लेखक की। कुछ लोग पाठकीय दृष्टि से किताबें ढूंढते हैं। उन्हें अच्छी किताबें पढ़ने की तलब रहती है। दूसरा एक खेमा है जो किताबें प्रकाशित करवाने की होड़ में होता है। अच्छे कंटेंट वाले लोगों की किताबों की प्रतीक्षा रहती है लेकिन आजकल ऐसे लेखकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो बेसब्र हैं। उन्हें जल्द से जल्द प्रकाशित होने की बेसब्री है। त्रासदी सिर्फ इतनी नहीं है, बेस्ट सेलर बनने की बीमारी भी तेजी से बढ़ती जा रही है। इस चक्कर में जो साहित्य सामने आ रहा है वह बेहद निराशाजनक है। किताबों को ज्ञान का सागर माना जाता रहा है। उस पर लोगों का अटूट विश्वास होता है। यही कारण है कि कितबों में उद्धृत चीजों को बहसों, संबोधनों आदि में बतौर संदर्भ इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन आधुनिक समाज में बाजारवाद इस कदर हावी है कि पाठकों की चुनौतियां बढ़ गई हैं। पूंजी देकर किताबें प्रकाशित करना हो या किताबों की पेड समीक्षा - पाठकों के लिए उपयोगी पुस्तकों के चयन की चुनौती काफी बढ़ी है।
किताबों के साथ क्या है कि गलत किताब हाथ लग जाए तो उसकी सामग्री आपके बौद्धिक वृक्ष के तनों में दीमक की तरह लग जाती है। ऐसी किताबों से खुद को बचाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। इसीलिए किताबों के मामले में अब हम सबको थोड़ा सतर्क रहना होगा। सोशल मीडिया जैसे स्वतंत्र अभिव्यक्ति के विकल्पों ने भारी मात्रा में लेखक पैदा किए हैं। लाइक्स और कमेंट्स की परंपरा के इन लेखकों पर फूंक-फूंक कर भरोसा करने की जरूरत है।
किताबों के बारे में काफी प्रवचन हो गया। जितनी किताबें नहीं पढ़ीं उससे ज्यादा तो प्रवचन कर दिया। खैर, यह तो मेरी किताबों को लेकर अपनी राय है। आपकी अलग हो सकती है। फिलहाल, किताबें मेरे लिए भावनात्मक लगाव का भी विषय हैं। यह उस समय साथ निभाती हैं जब आस-पास कोई नहीं होता और आपको संबल की जरूरत होती है। उस वक्त यह एक तरह से शरीर में जीवन की तरह प्रवाहित होती हैं। जैसे अनखिले गुड़हल पर पानी की दो-चार बूंदे छिड़क दें तो कुछ देर बाद वह डाली से टूटकर भी पूरी तरह से खिल जाता है। ठीक वैसा ही किरदार मेरे जीवन में किताबों का है। आप जब किताबों से जुड़ते हैं तो एक नई ही जीवनशैली में जीने लगते हैं। आपमें परिवर्तन तो आता ही है, साथ ही आप अपने आचरणों में ज्यादा स्थायी होते जाते हैं। यथार्थ में जीने लगते हैं। आत्मविश्वास से भरपूर हो जाते हैं। बेहतर अभिव्यक्ति के लिए आपमें परिपक्वता आने लगती है।
किताबें पढ़ने के लिए कोई तकनीकी नहीं होती। मेरे एक शिक्षक कहा करते हैं कि 'पढ़ना पढ़ने से आता है।' पढ़ने की यही एकमात्र तकनीकी है। आप जितना पढ़ेंगे, पढ़ाई की तकनीकियों से आप उतने ही समृद्ध होते जाएंगे। किताब दिवस पर कहने के लिए ज्ञान की कोई बहुत बड़ी बात नहीं है मेरे पास। सिवाय इसके कि पढ़िए। जो भी किताब मिले उसे पढ़िए। सिलेबस की, गैर-सिलेबस की। जो भी मिले। किताब दिवस मनाने की सार्थकता इसी में है।
राघव, जैसे तुम इलाहाबाद आकर पढ़ने लगे, हमको भी दिल्ली आकर ही किताबों से लगाव हुआ. बहुत प्यारा ब्लॉग है.क्या यह बेहतर नहीं होता कि हमसब फिर से कुछ 'बोलिए'जैसा शुरू करते? पढ़ने का समय न मिलना- ऐसा होना छात्रों के लिए त्रासदी से कुछ कम नहीं!
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