मुक्तिबोध की साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ लिखना चाह रहा था, इसीलिए पिछले कई दिनों से उन पर लिखे लेखों का एकत्रीकरण करने के साथ-साथ अपने झोले में उनकी किताब 'चांद का मुंह टेढ़ा है' लेकर घूम रहा था। कुछ पढ़ा, कुछ नहीं पढ़ पाया, अलग-अलग कारणों से। उनकी प्रसिद्ध कविताएं 'अंधेरे में' 'ब्रह्मराक्षस' आदि पढ़ने-समझने की कोशिश अब भी जारी है। लेकिन एक ऐसे लेखक को इतने कम समय में समझने की जल्दबाजी एक भयंकर मूर्खता से बढ़कर कुछ नहीं हो सकती जिसका सही तरीके से बोध होने को लेकर आज भी हिंदी साहित्य-समाज 'लेकिन-किंतु-परंतु' के प्रश्नजाल से पूरी तरह मुक्ति नहीं पा सका है। कविता की लय और प्रवाह कविता-पाठ का सबसे मजबूत आकर्षण हैं। कविता की भाषा और भावार्थ की जटिलता पसीने छुड़ा देने के लिए पर्याप्त है।
गजानन माधव मुक्तिबोध लेखकों की उस विरल जमात में से हैं जिसनें अपनी लोकप्रियता का एक बड़ा हिस्सा अपनी अनुपस्थिति से देखा है। मरणेतर लोकप्रियता के गिने-चुने उदाहरणों में मुक्तिबोध का सम्मिलन उनकी रचनाओं की दिव्यता के प्रमाण-पत्र की तरह है। जीते जी उन्होंने अपनी दो ही रचनाएं प्रकाशित अवस्था में देखीं जिनमें पहली है- 'कामायनी एक पुनर्विचार' और दूसरी 'भारतीय इतिहास और संस्कृति' पर एक पाठ्य पुस्तक। जिस रचना ने आगे चलकर उनकी पहचान का प्रतिनिधित्व धारण किया उसका प्रकाशन उनके जीते जी संभव नहीं हो पाया था। कालजयी रचना अंधेरे में और उनका पहला काव्य संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' उनके निधन के दो साल बाद प्रकाशित हुआ। कविता को कालजयी बनाने के लिए प्रकाशित पृष्ठों पर अपना नाम देखने की लालसा को छोड़ना ही पड़ता है और जनरूचि की जगह कलम में यथार्थ की स्याही भरने की हिम्मत करनी ही पड़ती है। साठ के दशक में अभिव्यक्ति पर आखिर कौन सा बड़ा खतरा रहा होगा! लेकिन आजादी के बाद से ही लगातार गिरते हुए स्वतंत्रता संग्राम के आधार-मूल्यों को मुक्तिबोध बड़े उद्विग्न मन से देख रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने आज की तारीख का भी अनुमान लगाया होगा और लिखा होगा -
"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में।"
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में।"
ये वो अनुमान था जो नरेंद्र दाभोलकर, कुलबुर्गी और और गौरी लंकेश की हिम्मत का स्रोत भी बना और स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को बंधक बनाने वाली शक्तियों से लड़ने की घोषणा करने वाला सेनापति-वाक्य भी। उनकी 'अंधेरे में' कविता वास्तव में प्रकाश है। प्रकाश वह जो तमाम ऐसे हकीकत को प्रकाशित करता है जिस पर भ्रम और षडयंत्र की दुरभिसंधियों के अंधकार का आवरण हो। विचारधारा से वामपंथी होना ही सिर्फ उन्हें इन पंक्तियों का लेखक नहीं बनाता कि
"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।"
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।"
बल्कि मुक्तिबोध के अनुभव की दृष्टि ने इस कविता के आशय को यथार्थ में झेला और महसूस किया था, इसलिए वो ऐसा लिख पाए। मुक्तिबोध के बारे में कहा जाता है कि वह आत्माभियोग के कवि थे, अपना अंतर्द्वंद, आत्मसंघर्ष और अंतःकरण का प्रतिबिंब उन्होंने अपनी कविताओं में उतारा है। मुक्तिबोध के विषय में इतना कुछ टिप्पणी करने का सामर्थ्य मेरा अपना अध्ययन अब तक नहीं प्राप्त कर सका है लेकिन कहीं-कहीं उनकी कलम लोगों की इस आशंका पर शत प्रतिशत खरी उतरती है। जैसे यहीं देख लें कि गजानन माधव कितने चौराहों का दर्शन कर मुक्तिबोध बने थे-
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !
अगर मुक्तिबोध होते तो जीवन की एक सदी के आखिरी बिंदु पर खड़े आने वाले न जाने कितनी सदियों के रहस्य अपनी दूरदर्शिता से खोल गए होते। जैसे उन्होंने तब खोल दिया था और कहा था कि "अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।" लेकिन ऐसा नहीं है। मुक्तिबोध हमारे बीच सशरीर नहीं हैं लेकिन केवल सशरीर नहीं हैं बाकी शायद उनके अस्तित्व को खत्म करने के लिए किसी भी तरह के काल का मात्रक असहाय ही हो सकता है।
Bahut achha
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