Monday, 27 November 2017

कविताः मैं डाली से टूट गया हूँ

उद्यानों की राजनीति से बाहर छूट गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
गर्दिश में हैं भाग्य-सितारे,
मुरझाते हैं स्वप्न हमारे।
रूप-गन्ध-रस-हास-रास-जस
सब मूर्छित हैं ताल किनारे।
ज्यों जीवन के यक्ष प्रश्न का उत्तर, छूट गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।।
मन ही जब सब रंग बिसारे।
वन-सरिता किस काम हमारे।
पर्वत-झरना-ताल-तलैय्या
सब सूने बेरंग नज़ारे।
भ्रम का ज्यों गुब्बारा, उड़ता उड़ता फूट गया हूँ ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
दुनिया के बेकार थपेड़े।
नीरव मन को कर्कश छेड़े।
यायावर को नहीं सुभीते
रस्ते, पक्के, आड़े-टेढ़े।
किस्मत क्या रूठेगी अब, खुद उससे रूठ गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
©राघवेन्द्र

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