Tuesday, 28 November 2017

कविताः मैं एकांत का पंछी..

फोटो साभार: पीयूष कुंवर कौशिक
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे! लौट

भीड़ न आयी रास मुझे, यह बंधन हुआ अकाश।
जहाँ नहीं पर फ़ैलाने को, छोटा सा अवकाश।
कितनों के हित के पत्थर से खाकर चोट प' चोट।
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

स्वार्थ यहां सम्मानित होते और समर्पण दुत्कारित।
सद्भावों का मान नहीं है और प्रदर्शन उपहारित।
घाव बड़े सस्ते मिलते हैं, हंसी अधर की महंगी है,
प्रेम छलावा, भाव मिथ्य हैं, दुनिया केवल जंगी है।

रिश्ते यहां स्वार्थ्य-साधन की खातिर केवल ओट।
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

छिले हुए अरमान लिए दिल चीख रहा है विह्वल,
सोच के क्या आए, क्या पाया, रिक्त पड़े हैं करतल।
ख़ुशी बुलबुला है उठती है, फूट कहीं खो जाती है।
ठग है ज़िन्दगी जीवनभर आशाओं से भरमाती है।

स्वप्न नहीं कुछ भी, हैं अभिलाषाओं के धूम-कोट।
अत मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

©राघवेंद्र

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