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क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे? (Photo credit: Abhishek Shukla) |
धाराएं मोड़ने की कोशिश को दुनिया किस तरह देखती होगी? क्या धाराएं मुड़ती होंगी? क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे? अपने उन सभी अवयवों के साथ जिसकी वजह से तुम तुम हो! जिसकी वजह से हम तुम्हें फिर से चाहते हैं, अभी! एक-एक इंच भी उसी तरह वापस, जिस तरह तुम हममें और हमारी तारीख में सम्मिलित हुए जा रहे थे!
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क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है? (Photo credit: Shatakshi Asthana) |
नहीं न! अच्छा, अगर मिल भी गए तो क्या होगा? फिर से हम उसी तरह जिएंगे जिस तरह तुम्हें पहले एक बार जी चुके हैं? क्या फिर वही गलतियां, वही झगड़े, वही प्यार, वही जीत, वही हार एक बार और लिखते जाएंगे अपनी उम्र के कागज़ पर? क्या उसमें हम कुछ भी नहीं बदलेंगे? अच्छा मान लो, तुमने हमारे हिस्से का वक़्त खींचकर फिर एक साल पीछे कर दिया तो क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है? उन्हीं रास्तों को कुचलते हमारे पदचिह्न बिलकुल भी अपनी जगह नहीं बदलेंगे? ठठा कर हँसते हुए हम जिनके हाथों पर अपने हाथ पीटते थे क्या वे भी वही रहेंगे? तनाव और आंसुओं से भरे दिमाग का बोझ ढोने वाले कंधे भी नहीं बदलेंगे? चाय की एक एक प्याली वही होगी और उसमें चाय भी उतनी ही? ओस से भीगे हुए मौसम के निर्लक्ष्य भ्रमण में हमारे कदम की गिनती भी उतनी ही होगी, जितनी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल से होते हुए इम्यूनोलॉजी वाले गेट से निकलकर आईआईएमसी पहुँचने तक हमने गिनी थी? पीएसआर की पहाड़ियों पर गाए हुए हमारे हर गाने की धुन और उसके भूले-बिसरे शब्द उसी अपूर्णता के साथ हमें वापस मिलेंगे क्या? या फिर उस सड़क पर थिरकते पाँव की हर थाप, आवाज़ की उसी तीव्रता से वापस मिलेगी?
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मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी? |
क्या ऐसा हो पाएगा! अगर ऐसा हो भी पाएगा तो क्या हमारी चेतना को यह स्मरण रहेगा कि यह वक़्त हम दोबारा जी रहे हैं? अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर जब यह वक़्त ख़त्म हो जाएगा तब हम क्या करेंगे? क्या फिर से मांगेंगे यही गुज़रा हुआ वक़्त? मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी? अच्छा, अगर ऐसा नहीं होगा, यानि कि हमें याद होगा कि हमारे वक़्त की रेखा को पीछे खिसकाया गया है और हम सारे पल दोबारा जी रहे हैं तो क्या हम बोर नहीं हो जाएंगे? जब हमें पहले से ही पता होगा कि पीएसआर से हम सनसेट नहीं देखने वाले हैं और इस वजह से अपनी एक दोस्त बहुत ज्यादा नाराज़ हो जाने वाली है, जब हमें पहले से ही मालूम होगा कि हम एक ऐसी स्पर्धा के एथलीट हैं जिसमें आगे जाकर हारने ही वाले हैं, तो क्या सब कुछ मिलकर एक नीरस सी कहानी नहीं बन जाएंगे? अगर ऐसा होगा तो क्या उन वक़्तों की अपनी ये सुखद स्मृतियाँ बकवास नहीं हो जाएंगी? अभी तो कम से कम हमारे पास उस वक़्त की बेहतरीन यादे हैं, वक़्त-बेवक्त जिनके पन्ने खोलकर हम थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं और थोड़ा आंसू भी बहा लेते हैं! अगर ये स्मृतियाँ, वो गुजरा वक़्त लौट आए और हम उसे दुबारा जी भी लें तो क्या उससे नफरत नहीं हो जाएगी?
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एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा |
हर नयी धारा में पुरानी धारा के अवशेष बहुत ही कम मात्रा में ही सही होते तो हैं न! नदी के किसी एक खंड पर हर धारा नयी भी है पुरानी भी। नई वह आगे के लिए है और पुरानी पीछे के लिए। धारा को वहां रुककर अमरता प्राप्त नहीं करनी। जिस दिन वह नवलता के प्रतिरुद्ध ठहरने यानि अमरत्व पाने की कोशिश करेगी उस दिन वह नदी के रूप में मर जाएगी। उसका नद्यत्व इसी में है कि वह आगे बढ़े और नवीन धाराओं में परिणत होती रहे। कि यही उसकी अमरता है। एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा ताकि वह नए कलेवर में ढल सके। चाहे-अनचाहे उसे ऐसा करना ही पड़ेगा। हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो हमें भी ऐसा करना ही पड़ेगा। चाहे या फिर अनचाहे।
ऐसे ही लिखते रहिए।
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