Tuesday, 7 November 2017

कविताः जीवन एक विद्रोह तलाशता है..

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते
जीवन एक विद्रोह तलाशता है।
सालों से जमा कर लिया है लावा
अधूरी ख्वाहिशों का,
तिनका-तिनका भरता है
असंतोष का घड़ा, जिसमें
एक-एक बूंद हर पल का वो क्रोध -
या खीझ ही कहें तो न्याय होगा,
शामिल होता जाता है
जो रात के ख्वाब के हकीकत बनने
की संभावना को 
सामने से दूर गुज़रते देखते पनपता है।
ये आसमान दिख तो आसानी से जाता है
लेकिन उसे छूने में 
सिर्फ पसीना नहीं ज़िन्दगी छूट जाती है।

एक खीझ वह भी होती है
जो इस खीझ के भभक न पाने से उठती 
और उसी असंतोष के घड़े में जमा हो जाती है।
मर जाना क्या होता है?
ये अर्थी-शमशान-संगम का पानी
या पोस्टमॉर्टम का बॉक्स 
उतना बेहतर नहीं बताएगा, जितना कि
यह खीझ बताएगी जो
दावा करने, जीतने, पा लेने
मगर अपना न पाने की मजबूरी के बीच 
पिस रही है।
खीझ ही जीवन का हासिल है
और संभावनाओं की नदी में 
घटनाओं की नाव के लिए साहिल भी।

सपने कद से ऊँचे हैं,
देखते देखते गले में ऐंठन आ गयी है।
आशाएं वृक्षों की तरह हैं
जिनके हवाओं की प्रभुता कहीं बंधक है,
स्वतंत्र नहीं है।
इसलिए भीषण धूप की तपन में छाया एक भ्रम 
की तरह लगती है।
शरीर पसीने को बाहर कर देता है
और खाली हुयी जगह पर भर जाती है फिर से
एक बूंद खीझ।

जीवन भर हम जुटाते हैं
छोटी-छोटी असफलताएं और अभाव।
और एक दिन 
बिना जेब वाले आखरी कपड़े की थैली में
हमारे सारे जीवन की पूँजी के नाम पर
कुछ अधूरे सपने, कुछ अपूर्ण इच्छाएं
और मुट्ठी भर खीझ ही बच पाती हैं।।

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते,
ऐसा इसलिए नहीं कि हम
आज़ादी नहीं चाहते,
ऐसा इसलिए कि हमें 
आज़ादी की ग़लत पहचान है।
हमारी अधीनता 
हमारे आज़ाद होने की ख्वाहिश से ही
सिद्ध हो जाती है।
कि हमने एक व्यवस्था के अधीन 
आज़ादी का विकल्प चुन लिया है।
हमारी आजादी की बातें
हकीकत की जमीन के ठीक पीछे बुलंद होती है,
हकीकत पर आकर वो आजादी की नई परिभाषा गढ़ती हैं
अनुभव के व्याकरण का सहारा लेकर,
फिर आजादी की सीमा थोड़ी और आगे खिसक जाती है।
हम फड़फड़ाते हैं
कि हमारी आजादी 
बंधक है आजादी की परिभाषा में
हमारी आजादी बंधक है
दर-बदर होने के डर की आशंका में
जब हमारी आजादी बंधक है
तो हमें आजाद होकर भी क्या मिलेगा।
मेरी खीझ के घड़े का आधा हिस्सा
इस सवाल का उद्घोषक है
कि आजाद कैसे हो सकते हैं??

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