दाई नहीं रहीं... जब ये खबर मिली तो यह पूछने की भी इच्छा नहीं हुई कि कैसे? कैसे का क्या जवाब हो सकता है सिवाय इसके कि किसी न किसी विधि सबको जाना ही है। ऐसे समय में जब मृत्यु छींक की तरह दस्तक दे रही है, दाई अपना पूरा जीवन जीकर जा रही हैं। सिर्फ़ यही संतोष है। उन्होंने जीवन कैसा जिया, यह कहने की स्थिति मेरी नहीं है। जितना मैंने उन्हें देखा है, वह एक तपस्विनी की तरह रहीं, जिसकी शायद ही अपनी कोई इच्छा हो, या अपना कोई स्वार्थ्य हो। ऐसे जीती रहीं वह जैसे अपना जीवन न हो। या अपना जीवन हो भी तो कोई ऋण हो जिसे जीकर चुकाया जा रहा है। या ऐसे जैसे दबे पाँव की कोई यात्रा हो, जो ज़रा से शोर से सहम जाये।
दाई को ऐसे ही देखा। शांति से घर में आते जाते, बैठते, बोलते, बतियाते। मेरे घर में मेरे जितना शामिल होते। हमारे दुख में दुखी होते। हमारे सुख में सुखी होते। गाँव-जवार के अपरिचित माहौल में परिवार जैसे परिचित दृश्य की तरह अक्सर दिख जाती थीं। कहीं किसी के घर के लिए जाते हुए या किसी ने कोई काम दे रखा हो तो विनीत भाव से उसे पूरा करने के उद्देश्य से तेज़ी से कदम बढ़ती उनकी तस्वीर तो अब भी आँखों के सामने है। अब वह जीवित तस्वीर नहीं दिखने वाली है। दादी (माई) के परिसर की इस अमूल्य औचक अनुपस्थिति ने एकदम से हृदय भिगो दिया है।
दादी और उनके बीच न सिर्फ उम्र का फासला था बल्कि सामाजिकी और आर्थिकी में भी वह कथित तौर पर उनके बराबर नहीं थीं लेकिन मैंने जब भी दोनों को देखा था, दोनों सखियां लगती थीं। वह अकारण घर पर आ जाती थीं और दादी के पास बैठतीं। कोई बात न होती थी तब भी वह उनके पास काफी देर तक बैठी रहतीं। ऐसा तो हम अपने सखा-सखियों के साथ ही कर सकते हैं। ऐसा तो हम अपने सखा-सखियों के साथ ही कर सकते हैं। दादी अपने बिछौने पर लेटे किताब पढ़ रही होतीं तो वह भी उनके बग़ल में लेट जाती थीं। कभी-कभी दादी ने जो पढ़ा होता, वह उन्हें सुनातीं तो कान लगाकर बड़े ध्यान से दाई उसे सुन रही होती थीं।
जब हम छोटे थे और लिखना-पढ़ना सीख रहे थे तब दाई घर में अकारण नहीं आती थीं। वह हमें बुलाने के लिए आती थीं कि माया फुआ के यहां पढ़ने के लिए जाएंगे तो ‘बिस्कुट और दरिया’ मिलेगा। स्लेट और खड़िया भी वहीं मिलेगी। हम भागकर जाते और माया फुआ के घर के बरामदे में लाइन से बैठ जाते। कोई एक व्यक्ति बारहखड़ी या गिनती या पहाड़े बोलता और हम लोग उसे दोहराते। कखग स्लेट पर लिखते और कक्षा के समापन का इंतजार करते थे। इसी के बाद दाई बिस्कुट और दरिया बांटने का काम शुरू करती थीं।
एक उम्र तक हम दाई की शकल में बिस्कुट और दरिया को याद करते रहे। हम बड़े हुए और गांव छोड़ दिया। दाई वहां अनवरत बनी रहीं। लोगों की मदद करतीं। घरों में बर्तन मांजतीं। सरकारी स्कूल पर पोलियो पिलाना हो या कोई वैक्सीन लगनी हो। वह गाँव की अकेली सूचना प्रसारक थीं। किसी के घर 'जग्य-भोज' हो, दाई को निर्देश होता कि वह गाँव की लड़कियों को बुला लायें। वह घर घर में जातीं और नाम लेकर सूचना देतीं कि फ़लाँ के यहाँ कथा शुरू हो गई है, परछावन, तिलक, ब्याह शुरू हो गया… जल्दी चलऽ लोगन।
दादी उन्हें 'कमलेश कऽ माई' कहती थीं जबकि कमलेश के पिता नहीं थे। कमलेश को भी हमने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। रमेश को देखा था जो उनका छोटा बेटा था। उनके नाती साजन को देखे अरसा हो गया। इतना ज्यादा कि यह भी याद नहीं कि साजन उनका बेटा था या नाती। कमलेश बाहर कमाने गए और मुझे याद नहीं कि अभी तक कभी घर लौटे हों। रमेश घर पर तब तक बने रहे जब तक जवान नहीं हो गए और उनकी शादी नहीं हो गई और कमाने और घर चलाने की जिम्मेदारी उनके सर पर नहीं आ गई।
दाई का क्या नाम था? यह हमने कभी नहीं सोचा। सरकारी प्राथमिक स्कूल से लेकर माया फुआ की आंगनबाड़ी तक वह दाई ही कही जाती थीं। सिर्फ दादी थीं, जो उन्हें 'कमलेश कऽ माई' कहती थीं। वह कौन सी जाति की थीं, बचपन से कभी जानने की जरूरत नहीं पड़ी थी। हमारे घर में उनके आने-जाने का सिलसिला ऐसा था कि लगता था कि अपनी ही कोई पट्टीदार होंगी। बचपन में उनके घर जाने की थोड़ी-बहुत स्मृतियां हैं जो शायद रमेश या फिर साजन की वजह से बनी होंगी।
सबको एक न एक दिन जाना है... तो दाई भी चली ही गईं। हमारे जीवन से जुड़े लोग जब दुनिया से कूच करते हैं तो वह हमारी उम्र, हमारे अस्तित्व और हमारे जीवन का एक हिस्सा भी लिए जाते हैं। दाई का जाना भी ऐसा ही लग रहा है। पिछली बार जब गांव गए थे तब दाई घर आने पर खासतौर पर हमको देखने के लिए आईं कि 'ढेर दिन हो गईल बा।' यह देखना इसलिए भी था कि बीच में वह काफी बीमार पड़ीं और लगा कि अब नहीं बचेंगी। मौत को चकमा देकर आएं तो संसार से मोह और बढ़ ही जाता है। हमें देखकर क्या करतीं दाई? देखकर हंस दिया और थोड़ी देर तक मुस्कुराहट के साथ देखती रहीं। फिर चली गईं।
हम उनसे कितनी बातें करते थे? दुआर पर जब भी दिख जातीं तो पूछ लेते... 'अउर दाई! का हालचाल बा।' 'ठीके बा' वह कहतीं और थोड़ी देर के लिए रुकतीं। शायद थोड़ी और बात निकलने की प्रतीक्षा करतीं लेकिन नहीं निकलती तो आगे बढ़कर घर में दाखिल हो जातीं। बचपन से लेकर आज तक उनकी कदकाठी में कोई ज़्यादा बदलाव नहीं दिखा। न कभी मोटी दिखीं। न कभी कमजोर। न कभी दुखी दिखीं। न तो बहुत ज्यादा सुखी। संतोष उनके चेहरे का और व्यक्तित्व का भी (शायद) स्थायी भाव हो गया था। धनुषाकार गर्दन झुकाए उनकी कृशकाया पूरे गाँव में माला के मनकों के बीच के सूत्र की तरह घूमती रहती थी।
अचानक से वह इस दुनिया से चली गई हैं। गांव में शायद अकेली हो गई हों। माया फुआ अब गांव में नहीं रहतीं। दादी नहीं हैं। ऐसी और कितनी सखियां उनकी गांव में होंगी, मुझे नहीं पता। अपने व्यस्त, संघर्षशील और साधारण जीवन को विराम देने के बाद उनकी कहानी निश्चित तौर पर समाप्त हो गई है। मैं आज उनके जाने से दुखी हूं तो उन्हें याद कर रहा हूं लेकिन याद रखने का यह काम कितने दिन होगा, मुझे भी क्या ही पता है? गांव में रहने वाले लोगों के लिए बुजुर्गों का निधन एक सनातन प्रक्रिया है और वह उसे इसी सामान्यता के साथ लेते भी हैं। तो गांव की याद्दाश्त में भी वह अन्य बुजुर्गों की भांति बिला ही जाएंगी। हो सकता है कि उनका परिवार कुछ समय तक उन्हें याद रखे और तब तक थोड़ी-बहुत उनकी कहानी शायद जीवित रहे।
समाज में आपका केवल अस्तित्व होना ही काफी नहीं है। उसके होने को आप साबित नहीं करते रहते हैं तो आपका कोई मूल्य नहीं है। आपके रहने या जाने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला होता है। समाज में ऐसे तमाम अस्तित्वों का अस्तित्व है, जो मुख्यधारा के श्रम से बाहर आ गये हैं क्योंकि बुजुर्ग हो गये हैं। लेकिन जो अपने छोटे प्रयासों से ही लंबे समय तक व्यवस्था को थामे रहते हैं। जिनका होना भी एक तरह की ऊर्जा देता है और हम उनके जरिए अपने सुदूर अतीत को छू रहे होते हैं। घर में, पड़ोस में, गांव में जब तक बुजुर्ग होते हैं, लगता है कि जीवन की गाड़ी खतरे से बाहर है। उनके जाते रहने से डर बढ़ता जाता है। मोह प्रबल होता जाता है। कंधे और भारी लगने लगते हैं। हृदय और ख़ाली होने लगता है। हमारे बुजुर्ग हमारे लिए अभयदान की तरह होते हैं, जिसे हम तब ही समझ पाते हैं, जब वे हमें छोड़कर चले जाते हैं।
दाई को श्रद्धांजलि
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