सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् व्रज।
सभी धर्मों को छोड़कर सिर्फ़ मेरी शरण में आओ। वह धर्म जो कृष्ण का है, वह उद्धारक नहीं है। वह एक ऐसा तरीक़ा है जिससे संसार मेंजीवन को जीया जाना चाहिए। एक मुस्कुराता हुआ प्रसन्नमना कृष्णमय जीवन। कृष्णत्व को धारण करने की धार्मिकता में ही सही मनुष्यताहै। धर्म, अध्यात्म, पूजा, उपासना की शरण में अपार दुखों के साथ जाने वाले श्रद्धालुओं के अनेक देवता स्वयं दुख की मूर्ति हैं। दुखों सेमोचन या मुक्ति के प्रलोभन से धर्मों की तमाम व्यवस्थाएँ चल रही हैं। इस संसार से मुक्ति। मानव जीवन से मुक्ति। दूसरे संसार के लियेमौजूदा संसार के उपभोगों में कटौती के प्रावधान। कृष्ण के धर्म में ये सब नहीं है।
कृष्ण दुनिया के अकेले हर्षित-मुस्कुराते देवता हैं। उन पर चाहे जो कुछ भी गुज़रा हो, वह उस विशेष परिस्थिति के समाधान की सर्वश्रेष्ठतकनीक का प्रयोग करके आगे बढ़े हैं। उन्होंने दुनिया की परेशानियों से घबराकर दूसरी दुनिया के आश्रय का लालच अपने अनुयायियों कोनहीं दिया बल्कि परिणाम से अनासक्त होकर उनसे लड़ने का साहस दिया। “ततो युद्धाय युज्यस्व नैवम्पापमवाप्स्यसि।” ऐसा करने वाले को ही कृष्ण जैसी मुस्कान प्राप्त होती है।
कृष्ण के यहाँ दमन की व्यवस्था नहीं है। वह शस्त्रधारियों में भी राम हैं। व्यर्थ धनुष नहीं चलाते। सभी प्रकार के शत्रु चाहे वह मन के शत्रु हों, तन के हों या जीवन के हों। किसी चीज का दमन कृष्ण का स्वभाव नहीं है। वह रिपेयरिंग के मास्टर हैं। इंद्र को नहीं तोड़ा। उनके अहंकार को तोड़ दिया।
भारत के धर्मों के विषय में कहा गया कि जीवन के प्रति इनमें एक क्रूर क़िस्म का वियोग होता है। यहाँ जीवन नश्वर और त्याज्य है। त्यागमहान है और मोक्ष के द्वार की चाभी। लेकिन कृष्ण के धर्म में ऐसा नहीं है। यहाँ संयोग ही संयोग है। एक उच्च स्तर की अनासक्ति के साथ।तेन त्यक्तेन भुंजीथा की तरह। चाहे कृष्ण को कोई निर्मोही कहे लेकिन यह विशेषता ही जीवन को आसान बना सकती है। हम सब स्मृतियों के चक्रव्यूह में फँसे सुख-दुख का संतुलन बिगाड़े बैठे हैं। कृष्ण स्मृतिविहीन तो नहीं हैं लेकिन वह इनके प्रति आसक्त भी नहीं हैं। बुद्ध भी ऐसा ही कहते हैं। नाव से नदी पार करो। नाव लादकर घर के जाने का कोई औचित्य नहीं है। कृष्ण समय की गतिशीलता में न तो ठहरे हैं और न भागे हुए हैं। वह वर्तमान की तरह क्षण में लौ की भाँति चमकते हैं। वस्तुतः वह समय के सारथी लगते हैं और समस्त प्राणिजगत उनके रथ पर बैठा सवालों से भरा और उत्तर प्राप्त करता अर्जुन है।
कृष्ण जीवन को पूर्णता में जीने का संदेश हैं। वह करणीय और अकरणीय की बाइनरी से मुक्त हैं। संसार में दुख और सुख दोनों हैं। दोनों कोसमान मानकर समत्व में जीने का सूत्र देने वाले योगेश्वर हैं। धर्मों और पंथों की दुखी सामाजिकता में, उदासीनतानिष्ठ उपासना में औरगंभीरता के आवरण से अफनाते गुरुओं की बेतहाशा भीड़ में कृष्ण अकेले अपनी विराट मुद्रा में मुस्कुराते नज़र आते हैं और यह हास्य उनकाआवरण नहीं है। यह उनकी स्थायी मुद्रा है क्योंकि वह जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करते हैं। नकार का संघर्ष कृष्ण के यहाँ नहीं है। राम की तरह आदर्शों के बंधन में उनका जीवन नहीं बंधा है। जीवन की ज़रूरतों को वह ऐसे पहचानते हैं कि उनके उपदेश पिता, माता, अग्रज और गुरु तक सुनते हैं जो राम के आदर्श व्यक्तित्व के विपरीत है, जहां माता-पिता गुरु और बड़े की आज्ञा ही सर्वोपरि है। कृष्ण राम का विस्तार हैं और अपने युग से युगों आगे की शख़्सियत हैं।
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