Monday, 4 March 2019

कविताः सब कुछ अभिनीत है

धैर्य
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सब कुछ अभिनीत है,
नेपथ्य में होना
किनारे लग जाना नहीं होता,
सुकून की वह दहलीज होता है
जहाँ यह आश्वासन है
कि सत्य क्या है! यह ज्ञात है।
आवरण के रंज में खपता है पसीना
कि दुनिया की घड़ी
और किताबों की लिखावट के बीच
बनती ही नहीं है।
सभी प्रतिमान-सभी दृष्टांत
अपने सत्य में
मध्यकालीन यूरोप के राजाओं की
राजाज्ञाओं की तरह क्रूर और अभिनीत हैं,
कि जिनके आसनों के चार पायों से
कुचल जाते हैं गैलिली।
यह सत्य भी कि
जो धरा का भेष
नित धीरज की सूक्ति बांचता है,
मुझे आकाशगंगा की
किसी डॉल्फिन ने बोला,
'कि रवि के ताप के आगे
उसी धरती का धीरज
महज़ हिलता नहीं है, नाचता है।'