राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता इन दिनों सोशल मीडिया पर जबर्दस्त चर्चा बटोर रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि वह कोरोना संक्रमित थे और उन्होंने किसी युवा मरीज के लिए अस्पताल के बेड की कुर्बानी दे दी, जिसके तीन दिन बाद उनकी मौत हो गई। बताया गया है कि कोरोना से आरएसएस कार्यकर्ता की जान गई है। पहले यह पूरी कहानी जान लेते हैं।
हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स और अन्य कई वेब पोर्टलों में महाराष्ट्र के नागपुर के नारायण दाभडकर की कहानी छपी है। दाभडकर दरअसल कोरोना से पीड़ित थे। मौजूदा परिस्थिति में जब अस्पतालों में बेड के लिए मारामारी चल रही है, तब ऐसे समय में भी दाभडकर के परिवार ने जैसे-तैसे नागपुर के एक अस्पताल में उनके लिए एक बेड का इंतजाम कराया। दावा है कि जब 85 साल के दाभडकर को अस्पताल में भर्ती कराया जा रहा था, उसी समय एक महिला अपने पति को भर्ती कराने के लिए रोती-बिलखती अस्पताल में दाखिल हुई।
महिला के पति की हालत देखकर दाभडकर ने डॉक्टर से कहा, 'मेरी उम्र 85 साल पार हो गई है। काफी कुछ देख चुका हूं। अपना जीवन भी जी चुका हूं। बेड की आवश्यकता मुझसे अधिक इस महिला के पति को है। उस शख्स के बच्चों को अपने पिता की आवश्यकता है। अगर उस स्त्री का पति मर गया तो बच्चे अनाथ हो जायेंगे, इसलिए मेरा कर्तव्य है कि मैं उस व्यक्ति के प्राण बचाऊं।' इसके बाद उन्हें परिजन घर वापस लेकर गए और होम आइसोलेशन में ही उनका इलाज चलने लगा। फिर खबर आई कि इस घटना के तीन दिन बाद ही दाभडकर की मौत हो गई।
दाभडकर की मौत का जिम्मेदार कौन?
इस पूरे मामले में एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि दाभडकर का त्याग वास्तव में असाधारण है। जैसा उन्होंने किया और जैसी करुणा दिखाई, वैसा करना हिम्मत और उच्च मानवता की बात है। इसके लिए वह निश्चित रूप से सम्मान के पात्र हैं। ऐसे में उन पर गर्व करना पूरे समाज का अधिकार है और जरूरत पड़ने पर उनका अनुसरण भी गलत नहीं है। सोशल मीडिया से लेकर तमाम प्लैटफॉर्म्स पर दाभडकर के इस त्याग पर लोगों ने अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया दी है।
कुछ लोगों ने इस घटना को लेकर सिस्टम पर सवाल खड़े किए हैं लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए यह गर्व का विषय है। बहुत से लोगों ने इसे समाज के लिए एक मिसाल बताया है। हालांकि, इसे मिसाल कहना एक नागरिक के तौर पर मैं बेहद खतरनाक मानता हूं। इसलिए भी कि मैं अपने परिवार के किसी भी बुजुर्ग को इस तरह का त्याग करते नहीं देख सकता। यह मेरा स्वार्थ माना जाता है तो माना जाए। मैं ऐसी किसी भी घटना को सामाजिक मिसाल मानने पर सवाल उठाना चाहता हूं। यह दाभडकर के लिए व्यक्तिगत तौर पर सर्वोच्च बलिदान है लेकिन एक समाज, देश और व्यवस्था के लिए शर्म की बात के अलावा कुछ भी नहीं है।
शिवराज सिंह का ट्वीट 'बेशर्मी' का ढिंढोरा
हैरानी तब और बढ़ जाती है जब शासन और प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग भी इस पर गर्व करने लगते हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दाभडकर के निधन पर ट्वीट किया। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, ''दूसरे व्यक्ति की प्राण रक्षा करते हुए श्री नारायण जी तीन दिनों में इस संसार से विदा हो गये। समाज और राष्ट्र के सच्चे सेवक ही ऐसा त्याग कर सकते हैं, आपके पवित्र सेवा भाव को प्रणाम! आप समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं। दिव्यात्मा को विनम्र श्रद्धांजलि। ॐ शांति!'
किसी भी देश-प्रदेश की लोकतांत्रिक सरकार इस तरह के मामलों में ऐसी प्रतिक्रिया दे तो वहां के नागरिकों को इससे डरना चाहिए। शासन-प्रशासन के लिए तो यह सीधे तौर पर शर्म और डूब मरने की बात है। क्या वह ये कहना चाहते हैं कि हमारे देश का हर बुजुर्ग नागरिक अपने प्राणों का बलिदान करने को तैयार रहे क्योंकि वह अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में बेड नहीं बढ़ा रहे हैं? या क्या वह ये कहना चाहते हैं कि हर बुजुर्ग शख्स जो कथित तौर पर अपनी जिंदगी जी चुका है, उसे युवा पीढ़ी के लिए अपनी जान बचाने के अवसरों को कुर्बान कर देना चाहिए?
क्या वह पर्याप्त विकल्पों का इंतजाम नहीं कर सकते जहां युवा और बुजुर्ग दोनों को इलाज सुलभ हो। उन्हें किसी एक को चुनने के लिए विवश न होना पड़े? आखिर, देश में हर किसी के पास जीवन का अधिकार है और इस अधिकार की रक्षा करना ही सरकारों का काम है। यह संवैधानिक है लेकिन समस्या ये है कि संवैधानिक पदों पर बैठने वाले लोग ही इस भावना से पूरी तरह विपन्न हैं। हरिशंकर परसाई की एक पंक्ति इसी संदर्भ में खूब चर्चा में है, जिसमें वह कहते हैं, 'शर्म करने की चीज अगर गर्व करने का विषय बन जाए तो समझना चाहिए कि लोकतंत्र ठीक तरह से चल रहा है।' यह इस पूरे मामले को समझाने के लिए कितनी सशक्त पंक्ति है।
जनता की क्या जिम्मेदारी?
लोकतंत्र में दावा और वादा शब्द का जितना दुरुपयोग हुआ है, उतना किसी चीज का नहीं हुआ। अगर शासक के तौर पर आपसे जिम्मेदारियां नहीं संभल रहीं तो आपको कुर्सी क्यों नहीं छोड़ देनी चाहिए? आपको क्या अधिकार है (नैतिक या संवैधानिक ही) कि आप लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करें क्योंकि आपकी बुद्धि और आपका विवेक अपने पद की जिम्मेदारियों का भार नहीं उठा सकता? नेता तो खैर स्वभाव से ही धूर्त, मक्कार, झूठे, क्रूर और बेईमान होते जा रहे हैं। इन सबमें जनता की क्या जिम्मेदारी है?
क्या जनता को नेता की बातों को इतनी सरलता से लेकर उनकी ही धारा में बह जाना चाहिए? किसी शायर ने कहा है, 'रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया/ इस बहकती हुई दुनिया को संभालों यारों।' नेता एक जुमले उछालते हैं और सभी उसके इर्द-गिर्द ही सिमट जाते हैं। क्या दाभडकर जी के बलिदान पर गर्व करके हमें यह भूल जाना चाहिए कि दाभडकर और उस युवा व्यक्ति दोनों की जान बचाना और उन्हें आरोग्य देना हमारी सरकार की जिम्मेदारी थी? क्या यह भी भूल जाना चाहिए कि दोनों में से किसी एक की जान को बचाने का विकल्प देने वाला यह सिस्टम अपने नाकारेपन को छिपाने के लिए आपको गर्व का झुनझना पकड़ा रहा है, जिसे हम बड़े जोर-शोर से बजाकर अपनी मूर्खता का ऐलान भी कर रहे हैं?
सत्यानंद निरूपम ने 28 अप्रैल 2021 को इस मसले पर लिखी अपनी एक फेसबुक पोस्ट में कहा कि अगर हम आलोचना न करके इस गौरवगान के सुर में सुर मिला रहे हैं तो हम स्टेट को यह छूट दे रहे हैं कि वह अपनी सुविधा से काम करे, नागरिक आपस में सलट लेंगे। निरूपम ने कहा, 'जैसा कि एक मुख्यमंत्री स्वयं लिख रहे हैं कि ऐसा करने के बाद (दाभडकर) "तीन दिनों में इस संसार से विदा हो गए", यानी अगले 3 दिनों तक स्टेट उस वृद्ध को अस्पताल में एक बेड इस आश्वस्ति के साथ नहीं दे सका कि नौजवानों की रक्षा तो हम कर ही रहे हैं। आप जैसे वृद्धों की भी हमें परवाह है। आपके लिए भी बेड है।'
यह सच में विचार करने की बात है कि अगर दाभोडकर ने नौजवान के लिए बेड छोड़ा भी तो अस्पताल प्रशासन क्या कर रहा था? क्या उसने उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं? अगर परिस्थिति की मांग को देखते हुए मान भी लिया जाए कि तत्काल में युवा व्यक्ति को बेड की जरूरत ज्यादा थी, तब भी क्या तीन दिन में अस्पताल या सिस्टम या सरकार उस दयालु वृद्ध के लिए एक बेड का इंतजाम नहीं कर सकी? क्या अपने वृद्धों के साथ ऐसा करना हमारा संस्कार है? क्या हमें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है? क्या यह उसी संस्कृति में घटित हो रहा है, जहां कहा जाता है कि वृद्धों की सेवा करने से आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है। (अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः/ चत्वारि तस्य वर्द्धंते, आयुर्विद्या यशोबलम्) यह तो उस बुजुर्ग के त्याग का भी अपमान हुआ। उस संगठन को भी क्या कहा जाए, जिसके लिए दाभडकर के जीवन से ज्यादा उनके बलिदान को अपने सांगठनिक अभिमान को पुष्ट करने और उसकी प्रतिष्ठा का साज करने में इस्तेमाल की अधिक जल्दी थी। इतना बड़ा संगठन सरकार की नाक में दम कर सकता था कि क्यों ऐसी परिस्थिति बनने दी गई कि एक बुजुर्ग को एक युवा की जान बचाने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगानी पड़ी?
गर्व करने वाले भी 'आंशिक हत्यारे'
कुल मिलाकर, इस मामले में जिसे हम गर्व कह रहे हैं, वह हमारे सिस्टम (कथित मीडिया के गलियारों में आजकल सरकारों को सिस्टम कहने का रिवाज है) के गाल पर तमाचा है। हम जिसे त्याग कह रहे हैं, वह हमारे बुजुर्गों के प्राणों की लापरवाह और फिजूल खर्ची है। हर जीवन बराबर का कीमती है। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसने अपना पूरा जीवन जी लिया है या नहीं जी लिया है? दाभडकर की करुणा सम्माननीय है। उनका त्याग आदरणीय है लेकिन उनके त्याग पर गर्व करते हुए अगर हम सरकार से सवाल नहीं करते हैं कि मेरे बुजुर्ग की जान आप क्यों नहीं बचा सके? तो हम परोक्ष तौर पर एक बुजुर्ग नागरिक या देश के असंख्य बुजुर्ग नागरिकों के जीवन का अपमान कर रहे हैं। अगर हम इसे (पत्रकार या किसी भी संदेशकर्ता के तौर पर) केवल गर्व के रूप में प्रचारित करते हैं तो हम एक निर्दयी, पाषाणहृदय, संवेदनहीन और आंशिक हत्यारों में तब्दील हो चुके हैं या होते जा रहे हैं।