धर्म सार्वजनीन चीज है। सम्पूर्ण मनुष्यता और गैर-मनुष्य वस्तुओं के लिए प्रकृति का अनुशासन धर्म कहा जा सकता है। बीती कई सदियों में इस धर्म के अनुकूल चलने के लिए कई सारे पंथ बने। इन पंथों ने धर्म के असीम आकाश के नीचे परम्परा-कर्मकांड, संस्कृति, सभ्यता के छोटे-छोटे तंबू तान लिए। पत्थर की लकीर से लिखे उनके विधान में संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं। पंथों ने सार्वजनीन धर्म को अपने छोटे-छोटे तंबुओं में कैद करने की कोशिश की तो कबीर आए।
कबीर ने धर्म को अपनी तरह से परिभाषित किया। पंथों के तमाम तंबुओं पर बिजली की तरह गिरे। इतने सच्चे, इतने प्रभावशाली कि सन्त शिरोमणि हो गए। मुसलमान बोलते कि ये तो हमारे पंथ के धर्म की व्याख्या हैं। हिन्दू कहते कि कबीर की बानी तो सनातन धर्म का ही व्याख्यान है। कबीर के जीवन का यह विवाद उनके संतत्व का प्रमाणपत्र है। वह इतने ज्यादा सार्वजनिक सन्त हैं कि कोई भी पंथ धर्म के अपने सिद्धांतों की व्याख्या उनमें देखने ही लगता है। वह वैसे ही सार्वजनीन हैं, जैसे धर्म।
किसी ने कहा कि कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम को एकजुट करने का काम किया। कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम होने के तत्कालीन समाज के जितने भी मानक थे, उनको ऐसी बेरहमी के साथ तोड़ा कि सारे तंबू ढहने लगे। ऐसे में हिन्दू-मुस्लिम एकजुट तो हुए पर कबीर के साथ नहीं बल्कि उनके खिलाफ। ये उन तंबुओं के प्रभारी थे, जो आसमान की सार्वजनिक सत्ता का सच नहीं स्वीकारना चाहते थे। किसी मंजे हुए सेल्समैन की तरह अपने तंबू की उत्कृष्टता के लिए जमकर प्रचार करते और कबीर की निंदा करते लेकिन कबीर को कहां फ़र्क़ पड़ा। कबीरों को कहां फ़र्क़ पड़ता है। जो घर फूंक दे आपणा, उसको कौन किस बात से दबा सकता है।
कबीर इसीलिए प्रिय हैं कि वह संसार के गिने-चुने मौलिक मनुष्यों में से एक हैं। उनके जीवन का रास्ता किसी लीक से नहीं गुज़रा। वह सत्य पहचानने की अद्भुत आंख रखते थे।
"तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता आँखिन की देखी।"
मनुष्यों के इतिहास में कितने सारे लोग पैदा हुए। उनकी गिनती नहीं। कबीर गणनीय मनुष्य हैं, जिन्हें सच्ची मनुष्यता की परिभाषा में एक यूनिट के रूप में अध्यायित किया जाएगा।
मगहर में कबीर की मजार भी है। समाधि भी। दो सम्प्रदायों की कथित अधिकृत भाषाओं के ये दो शब्द दो भिन्न संस्कृतियों के प्रतीक हैं। कबीर दोनों के हैं। कबीर के मरने पर साम्प्रदायिक विवाद उनकी सार्वजनिकता का सबसे सशक्त प्रमाण है। सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम नहीं, बल्कि दुनिया के सभी पंथों को इस पर झगड़ पड़ना चाहिए कि कबीर उनके हैं। कबीर पर सब पंथों का दावा हो सकता है।
(मगहर में)