Monday, 6 February 2023

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक

बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबाद या फिर मुगलसराय से। डमरू वाले की सौगंध, बनारस यहीं और इसी तरह मिलेगा। बनारस पहुंचिए तो लगता भी है कि यह शहर अपने होने में कितना ज्यादा स्थायी है। कितना अलसाया हुआ और अपनी ही धुरी पर कितना ज्यादा धंसा हुआ कि अब इहां से कहूं न जाब। गंगा-वरुणा और असी नदी के किनारे उन्हीं की धार की तरह धीरे-धीरे बहते जीवन वाला, बाबा विश्वनाथ की तरह ध्यान की स्थायी मुद्रा में अपने होने के अभिमान के साथ यह बुजुर्ग शहर देखकर लगता भी है कि चाहे दुनिया के किसी कोने से चक्कर काटकर चले आओ। ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके लौटो या फिर अपने पुनर्जन्म की श्रृंखला की दो-तीन कड़ियां पार कर आओ, बनारस वहीं और उसी तरह मिलेगा।

बनारस की प्राचीनता ही उसकी खासियत है। वहां रहने वाले लोगों को उसकी प्राचीनता का ही गर्व है। मानव सभ्यता की सबसे प्राचीन धरोहर अगर कहीं संजोकर रखी गई है तो वह बनारस ही है। अगर सभ्यता ने नदियों के किनारे जीवन पाया तो बनारस आज भी जैसे नदियों के किनारे ही जीवंत है। घाटों के इस शहर में घर-बाहर हर जगह के लोग गंगा किनारे की सीढ़ियों पर खड़े होने के बाद ही कह पाते हैं कि बनारस आया। जैसे बनारस में होने का प्रमाण ही इन पत्थर की सीढ़ियों पर होना हो।

बनारस की यातायात व्यवस्था में अपनी दुर्गति पहले भी हो चुकी थी लेकिन इस बार श्रेयांश त्रिपाठी का आश्वासन था कि बनारस को लेकर आपकी धारणा बदलेंगे। मुझे भी लगा कि हो सकता है, मैं बनारस के लिए 'बाहरी' बनकर भी आया तो जिस तरह का बाहरी था वह बाकी शहरों के सापेक्ष रहा हो। बनारस के लिए खास तरह का बाहरी होना पड़ता हो। बनारस में प्रवेश के 'बाहरी' को बनारस के मिजाज को पहले समझ लेना चाहिए। यह सबको उसके अपने स्वभाव के साथ स्वीकार नहीं कर सकता है। मैंने सोचा कि हो सकता है कि बनारस के अपने लोगों के साथ अगर इसमें प्रवेश करूं तो शायद इसका लहजा थोड़ा बदले। थोड़ा स्नेहिल हो। यह शहर मेरे लिए थोड़ा नरम पड़े लेकिन बनारस तो बनारस है। बाबा की तरह बैरागी। अवढर। मेरी तो क्या ही धारणा बदलती, त्रिपाठी जी की ही धारणा अपने शहर को लेकर काफी बदल गई। उन्हें भी आभास हुआ कि इस शहर में मेहमानों की संख्या बढ़ रही है। काशी पर दबाव बढ़ रहा है। 

हालांकि, बनारस जाकर सबसे पहले तो यही सच समझ आया कि बनारस के लिए न तो कोई बाहरी है और न ही अंदरी। इसका बर्ताव सबसे साथ वही-वैसा रहता है। यह कभी आपके हिसाब से नहीं होगा बल्कि आपको अपनी धारा बदलनी पड़ेगी ताकि आप बनारस के हिसाब से बह सकें। नहीं कर पाए तो यहां से जाने के आपके फैसले का स्वागत भी करने में बनारस को कोई संकोच थोड़े है। शहर की संरचना ऐसी है कि यह शिव के पांव पर पांव रखकर ध्यान की मुद्रा की क्षेत्रफलीय आकृति से बाहर आने की इसकी कोई मंशा नहीं है। बहुत से सरकारी प्रयास जारी हैं लेकिन बनारस अंदर से इस बात से दुखी है कि उसकी संकरी गलियों पर व्यापारिक गलियारों का खतरा है। उसकी प्राचीनता पर आधुनिकता के आरोपण का संकट है। उसके ध्यान पर डंके के शोर का अतिक्रमण है। उसके लहजे की अनोखी बूंद के कृत्रिम और सजी-सजाई शिष्टता के सागर में मर्ज हो जाने का दबाव है।

बनारस फैलना नहीं चाहता। अपनी सघनता में यह पारे की तरह सिकुड़कर रहना चाहता है। गंगा से, बाबा से दूर होने की कोई इच्छा इसके मन में नहीं है। अपनी पुराणता से बाहर निकलने का कोई प्लान इसके पास नहीं है और न ही यह बनाना चाहता है। ऐसा लगता है कि शंकर के त्रिशूल पर टिके इस शहर के लोग सच में उसकी नोक से नोक भर भी इधर-उधर नहीं होना चाहते। यही कारण है कि बनारस का भूगोल ऐसा है कि शहर के किसी भी कोने से दूसरे कोने तक जाने में 6 से 7 किमी की दूरी का ही अंतर मिलता है। हालांकि, यह अंतर पार करना भी कार्तिकेय के पूरी दुनिया के चक्कर काट आने में लगे समय से कम में क्या ही हो सकता है।

फोटोः श्रेयांश

कदम-कदम पर खाने-पीने की दुकानों पर चाट-बताशे, कचौड़ी-सब्जी, मलइयो, लस्सी इत्यादि की भरमार है, जैसे यह शहर किसी को भी पल भर के लिए भी भूखा नहीं रहने देगा। जैसे, यह शहर अपने घर से ज्यादा गलियों-चौराहों और घाटों पर रहता है। जैसे, यह शहर हमेशा ही आतिथ्य की अपनी स्थायी हो चुकी जिम्मेदारी को अपनी नियति मान उसके लिए हर पल, हर क्षण समर्पित रहने का फैसला कर चुका है कि कोई भी मेहमान कहीं से भी किसी भी परिस्थिति में आए, बनारस उसके लिए पानी और नाश्ता लेकर हमेशा तैयार मिले।

"ठगों से ठगड़ी में 

संतों से सधुक्कड़ी में 

लोहे से पानी में 

अंग्रेजों से अंग्रेजी में 

पंडितों से संस्कृत में 

बौद्धों से पालि में 

पंडों से पंडई और गुंडों से गुंडई में 

और निवासियों से भोजपुरी में बतियाता हुआ 

यह बहुभाषाभाषी बनारस है"

(अष्टभुजा शुक्ल)

फोटोः श्रेयांश

कभी-कभी लगता है कि कबीरदास इतने निर्भीक होकर इतनी सारी बातें इसलिए ही कह पाए क्योंकि वह बनारस में रहे। निर्भीक होना बनारस की तासीर है। भाई, जो शहर ही बाबा के त्रिशूल पर टिका हो फिर उसके लिए किसका और काहे का भय बचता है। यहां लोग इसी बात के घमंड में हैं कि वह बनारस के हैं। बनारसी होने का घमंड तमाम सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक वर्ग विभाजन की सीमा से बाहर की चीज है। 

"गुरु से संबोधन करके 

किसी गाली पर ले जाकर पटकने वाले 

बनारस में सब सबके गुरु हैं" 

जिसे गंगा की अनुभवी धारा ने बहने का ज्ञान दिया हो, काशी विश्वनाथ की महाछाया ने जिसे सुरक्षाबोध दिया हो, महाश्मशान मणिकर्णिका की अनंतकाल से न बुझी चिताओं ने जिसे जीवन के अर्थ की सीख दी हो... उसका गुरु और कौन हो सकता है और वह किसका ही शिष्य हो सकता है, इसलिए सब एक-दूसरे के गुरु हैं। कोई चेला नहीं है। अस्सी की विविधरंगी संस्कृति इस देश के शेष हिस्से की संयुक्त संस्कृतियों से अलग दिखती है। इस तट पर परंपरा और आधुनिकता समभाव और समान अधिकार से संगम करते हैं। 

मणिकर्णिका पर श्रेयांश त्रिपाठी ने बताया कि हजारों साल हो गए लेकिन यहां चिताओं की आग कभी नहीं बुझी। जबसे मानव सभ्यता है, तबसे काशी है। जबसे काशी है, तबसे यह महाश्मशान है। यहां जली सबसे पहली चिता की आग से ही आज तक की चिताओं को आग मिलती आ रही है। अग्रिप्रवाह की यह अनंत यात्रा, यह निरंतरता और प्राचीनता क्षणभंगुर मानवता के इतिहास का सूत्रधार है। बिना इसकी गवाही के मनुष्यता अपनी आत्मकथा नहीं लिख पाएगी।

मणिकर्णिका घाट

गंगा की लहरों पर तिरती नाव और सामने मणिकर्णिका पर जलती चिताओं के आसपास एक घर है, जिस पर शेर की आकृति बनी है। श्रेयांश ने बताया कि यही डोमराजा का घर है। बनारस में दो ही राजा- एक काशी नरेश। दूसरे डोमराजा। डोमराजा की हैसियत इतनी कि राजा हरिश्चंद्र को खरीद लिया। परंपरा है कि डोमराजा के घर की रोटी आज भी चिता की आग से बनती है। बनारस में मृत्यु के भयावह सत्य से मानव जीवन की क्षणभंगुर छाया इस तरह से संवाद करती है। मणिकर्णिका पर जलती चिताओं की समूची अग्नि में भी इतनी ऊष्मा नहीं कि किसी की भी आंख में भावुकता के जल को भाप बना सके। किसी को रुला सके। यहां शव ढोता एक भी व्यक्ति रोता नहीं दिखा। यह भी अपने आप में अचंभित करने की बात रही। 

अपनी स्मृति के हवाले से ऐश्वर्य भइया ने कहा कि मणिकर्णिका जाने पर एक मनुष्य होने का असली वजन समझ में आता है। फिर लगता है कि संसार का सारा संघर्ष कैसा व्यर्थ है और हम कैसी निरर्थक लड़ाई में क्या-क्या कर डालने में बिजी हैं। जगत चबैना काल का। कछु मुख में कछु गोद। समय के स्थिर और अनंत पाटों के बीच असंख्य मानव-जीवन की धारा बह गई और असंख्य जीवनधारा बह जाएगी। समग्रता में देखें तो हम शायद एक बूंद भर की भी हैसियत में नहीं हैं। हमारी अनंत आकांक्षाओं,आशाओं, लोभ, प्रेम, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या और दिन-ब-दिन बढ़ते अमरताबोध के मन से बने इस विराटकाय अस्तित्व की परिणति एक मुट्ठी राख हो जाने में ही है। मणिकर्णिका जाकर अपना पूरा अस्तित्व ही किसी धुएं सा लगने लगता है, जिसे कुछ समय बाद हवा में ऐसे विलीन हो जाना है, जैसे पहले कभी था ही नहीं।

बनारस के जीवन पर मणिकर्णिका की गहरी छाप है। वहां के साधु-संतों में भी जीवन के प्रति एक रोष रहता है या शायद एक आतिथ्यभाव कि जैसे पल भर के लिए बनारस में सैलानी आते हैं, वैसे ही आत्मा में पल भर के लिए देह का यह अस्तित्व है। पर्यटकों की तरह देह को भी क्षिति-जल-पावक-गगन और समीर में वापस लौटना है। वह जीवन के साथ एक प्रवासी की तरह बर्ताव भी करते हैं। उनके लिए आत्मा बनारस है, जहां देह मुक्ति पाने के लिए, पर्यटन के लिए या फिर गंगा स्नान के लिए चली आती है।

"बनारस में बनारसी बाघ हैं 

बनारसी माघ हैं 

बनारसी घाघ हैं 

बनारसी जगन्नाथ हैं शैव हैं, वैष्णव हैं, 

सिद्ध हैं, बौद्ध कबीरपंथी, नाथ हैं 

जगह-जगह लगती हैं यहाँ लोक-अदालतें 

कहने को तो कचहरी भी है बनारस में 

लेकिन यहाँ सबकी गवाह गंगा 

और न्यायाधीश विश्वनाथ हैं"