सर्वे
सन्तु निरामया...
साल 2006 में भारत के
स्वच्छता पर खर्च किये जाने वाले बजट पर टिप्पणी करते हुए विश्व बैंक ने कहा था कि
भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6.4 प्रतिशत हिस्सा सफाई पर खर्च करता है।इसके 8
साल बाद यानी मई 2014 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने भारत में स्वच्छता के
नाम पर चलायी जा रही निर्मल भारत अभियान जैसी योजनाओं की कलई खोलते हुए बताया था
कि भारत की करीब 60 प्रतिशत आबादी आज भी खुले में शौच करती है।जिसकी वजह से
कालरा,डायरिया जैसी बिमारियों का खतरा बना रहता है।वैश्विक महत्व की इन दो बड़े
संस्थानों की इस तरह की टिप्पणी उस भारत के लिए थी जहाँ प्राचीनकाल से ही स्वच्छता
और पवित्रता को भगवान का दूसरा रूप माना जाता था।यह टिप्पणी उस भारत पर थी जहां आज
भी गाँवों तथा शहरों के अनेक घरों में खासकर रसोईघरों में स्वच्छता का धार्मिक
दृष्टिकोंण भी है।लेकिन फिर भी सफाई की दृष्टि से सारा विश्व भारत को अत्यन्त
पिछड़ा ही मानता है।इन सब बातों से चिन्तित होकर ही भारत सरकार ने 2 अक्टूबर 2014
से पांच वर्षीय स्वच्छ भारत अभियान शुरू करने का निश्चय किया ।महात्मा गांधी की
150वीं जयन्ती यानी 2 अक्टूबर 2019 तक भारत को पूर्ण स्वच्छ बनाना इस कार्यक्रम का
लक्ष्य बिन्दु है।
स्वच्छता की दिशा में हो
रही पहल पर नजर डालें तो 2015-16 के दौरान देश में शौचालय निर्माण में 70 फीसदी का
इजाफा हुआ है।निश्चित रूप से भारत सरकार की स्वच्छ भारत योजना की इसमें बड़ी भूमिका
है।लेकिन इसका एक और पहलू भी है।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के 11 लाख स्कूलों
में 10 फीसद के पास शौचालय नहीं है।जिससे न सिर्फ बच्चे खुले में शौच जाने को
मजबूर होते हैं और बीमार पड़ते हैं बल्कि इसी कारण ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों
को मजबूरन पढ़ाई भी छोड़नी पड़ती है।कुछ स्कूलों में शौचालय हैं भी तो छात्राओं के
लिये अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है।जिन 11 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय हैं उनमें
18 फीसद ऐसे हैं जहां छात्राओं के लिये अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है।
यह तो रही स्कूलों की
बात।अब जरा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में निजी शौचालयों की स्थिति पर नजर डालते
हैं।सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश के करीब 11 करोड़ घरों में शौचालय नहीं है।करीब 53
फीसद लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं।ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 70 फीसद घरों
में शौचालय नहीं है जबकि 13 फीसदी शहरी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है।खुले
में शौच करना सिर्फ शहर या गाँव के सौन्दर्य पर लगने वाला कलंक नहीं है,बल्कि यह
अनेकानेक खतरनाक बीमारियों का घर भी है।
खुले में शौच के कारण
उत्पन्न होने वाली बिमारियों का मामला इतना सामान्य नहीं है जितना हम समझते हैं।बिल
एण्ड मिलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन द्वारा किये गये सर्वे के मुताबिक खुले में शौच के
चलते हर साल भारत में 6 महीने से कम उम्र के करीब 2 लाख बच्चों की जान जाती
है।इसकी वजह से बच्चे खासतौर पर डायरिया का शिकार होते हैं।शौचालयों के अभाव में
महिलाओं की सुरक्षा भी दाँव पर लगी हुयी है।ग्रामीण क्षेत्रों में बलात्कार तथा
छेड़खानी जैसी अधिकतर घटनाएं ऐसे ही समय घटित होतीं हैं।गांवों में लोक-लाज के
कारण महिलाएं दिन में घर से बाहर नहीं निकलतीं।अत: शौचालय के अभाव में वे प्राय: शौच के
लिये अंधेरा होने की प्रतीक्षा करती हैं।ग्रामीण महिलाओं में अनेक बिमारियों का यह
भी एक महत्वपूर्ण कारक है।
शहरी (तथा ग्रामीण) क्षेत्रों में लोग शौच के
लिये रेलवे ट्रैकों का भी प्रयोग करते हैं।इससे स्वच्छ और सुन्दर पर्यावरण की
परिकल्पना को धक्का तो लगता ही है साथ ही साथ दुर्घटनाओं की भी संभावना बनी रहती
है।शायर फ़रमूद इलाहाबादी ने अपनी एक हास्य ग़ज़ल (ह़ज़ल) में लिखा है-
“रेलवे ट्रैक पर लोटा
लेकर मत बैठा करो।
मेरे ऊपर ‘राजधानी’ आते-आते रह गयी।।“
खैर,यह तो थी मज़ाक की
बात।लेकिन यह मसला मज़ाक नहीं है।रेलवे हिन्दुस्तान की नज़र भी है,जहां से अनेक
देशों से आये पर्यटक भारत का दर्शन करते हैं।और फिर रेलवे ट्रैकों पर बैठे ये लोग
उनके कैमरों में कैद होकर भारत के सौन्दर्य को,भारत की छवि को विश्व स्तर पर किस
तरह प्रस्तुत करते हैं,आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
शौचालयों का निर्माण और
उपयोग स्वच्छता की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है।इसके बाद बात आती है अपने
पास-पड़ोस को,अपने घरों को,सड़कों को,मोहल्लों को और खुद को भी स्वच्छ रखने
की।स्वच्छता की जमीन पर ही अच्छे स्वास्थ्य की पौध उगती है।साफ-सफाई के मामले में
देश के विभिन्न विभागों के कार्यालय बड़े बदनाम हैं।प्रधानमंत्री ने भी अभियान
शुरू करने के दौरान इस मसले पर ध्यान आकृष्ट कराया था।आलमारियों में पड़ी फाइलों
पर जमी धूल,दीवारों पर,फर्श पर अधिकारियों-कर्मचारियों के पान-गुटके की जमीं पीक
तथा उससे उठती बदबू अधिकतर सरकारी कार्यालयों की बदनाम तसवीर है।लोग सड़कों पर
चलते इधर उधर थूकने की आदत पाले हुए है।बिस्किट,नमकीन,गुटकों आदि के पैकेटों,पानी
की खाली बोतलों और घर के कचरे आदि को यत्र-तत्र फेंककर किस तरह के संस्कारों का
परिचय दे रहे हैं?याद
रखिए,सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता को संरक्षित रखना देश के प्रत्येक व्यक्ति का
नागरिक-कर्तव्य भी है।देशभक्ति का एक स्वरूप यह भी है।
छोटे-छोटे शहरों या फिर
गाँवों की क्या बात करें,देश के महानगरों में ही स्वच्छता की जो हालत है वो सोचने
पर मजबूर करती है।कूड़ेदान भी कम से कम बाहर से स्वच्छ दिखने चाहिए।लेकिन उससे भी
जरूरी है कि कूड़ेदान दिखने चाहिये।और लोगों को इसके प्रयोग की आदत भी डालनी
चाहिए। स्वच्छता की समस्याओं में एक बड़ी समस्या के तौर पर सामने आती है कचरा
प्रबंधन की समस्या।कचरों के पुनर्चक्रण(recycling) की व्यवस्था करके इस समस्या से निपटा जा सकता है।
2 अक्टूबर को स्वच्छ
भारत दिवस केवल इसकी जयन्ती मनाने का दिवस भर न रह जाए।ऐसी तमाम जयंतियाँ हिन्दुस्तानी
कैलेण्डर में भरी पड़ी हैं। स्वच्छता दिवस नयी पीढ़ी या फिर स्वच्छता की पढ़ाई से
अनभिज्ञ लोगों को जागरूक करने में इस्तेमाल किया जा सकता है। स्वच्छ भारत की मूल
धारणा को दैनिक जीवन का अंग बनाने पर ही कुछ काम बन सकता है।
तो आइये,हम सभी 21वीं
सदी के इस स्वच्छता महायज्ञ का हिस्सा बनें तथा अस्वच्छता को आहूति बनाकर इस
यज्ञाग्नि में स्वाहा कर दें।हम सभी स्वच्छता के प्रति कटिबद्ध हों,संवेदनशील हों
और इस दिशा में निरंतर प्रयास करें।क्योंकि स्वच्छ पर्यावरण में ही स्वस्थ शरीर का
निर्माण होता है,और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है।स्वस्थ
मस्तिष्क का होना बहुत जरूरी है,न सिर्फ अपने लिए या अपने देश के लिए बल्कि समूची
मानवता के लिए।
“सर्वे भवन्तु सुखिन:
,सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद्
दुखभागभवेत्।”
जय हिन्द.
राघवेन्द्र शुक्ल
भारतीय जनसंचार संस्थान
नई दिल्ली
राघवेन्द्र शुक्ल
भारतीय जनसंचार संस्थान
नई दिल्ली
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