कविताओं
के लिए ‘गागर में सागर’ की कहावत तो बहुत पुरानी है। बात
चाहे कबीर के दो लाइन और चार चरण वाले दोहों की हो या फिर गालिब के दो मिसरों वाले
किसी शेर की। ये वो चमत्कार है जो शब्दों की सबसे न्यून मात्रा में जीवन के सबसे
गूढ़ रहस्यों का पूरा ग्रंथ अपने आप में समेटे हुए होता है। कविता लेखन की हाइकू
विधा इसी परंपरा का एक महत्वपूर्ण सोपान है। पांच-सात-पांच शब्दों के अनुशासन में
बंधा तीन लाइन का यह विचित्र काव्य कम से कम शब्दों में विशद अर्थ देते हुए कविता
लेखन के ‘गागर में सागर’ विशेषण को
पुष्ट करता हुआ दिखाई देता है। हाइकू वर्तमान में संभवतः विश्व साहित्य की सबसे
संक्षिप्त कविता है। सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास जापान में के एक कवि मात्सुओ बाशो
ने पहली बार जापानी साहित्य में हाइकू का शिल्प किया था। बाशो एक बौद्ध साधक थे।
यही वजह रही कि हाइकू अपने पैदाइशी दौर में प्रकृति संबंधी विषयों के इर्द-गिर्द
ज्यादा गढ़ी जाती रही। जापान में हाइकू ज्यादातर प्रकृति को चित्रित करती रही और
यही हाइकू जब भारत में आती है तब अपनी प्रकृति कुछ यूं बदलती है कि गोपालदास नीरज
से लेकर सत्यभूषण वर्मा तक जब हाइकू लिखते हैं तो उसे सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों
पर व्यंग्य-बाण के धनुष की तरह इस्तेमाल करते हैं। जापान में भी व्यंग्य साहित्य उन्नत
है। वहां व्यंग्य साहित्य ‘सेर्न्यू’
कही जाती है।
|
हाइकू के प्रवर्तक मात्सुओ बाशो |
शब्द-विन्यास
का यह सबसे संक्षिप्त रूप भारत में गुरूदेव रविंद्रनाथ टैगोर के प्रयासों से आया।
अपनी जापान-यात्रा से लौटने के बाद गुरूदेव ने 1919 में जब ‘जापानी-यात्री’ लिखी तो उसमें हाइकू का जिक्र करते हुए इस विधा के प्रवर्तक बाशो के कुछ
हाइकू का अनुवाद भी किया-
पुरोनो पुकुर
ब्यांगेर लाफ
जलेर शब्द
पचा डाल
एकटा को
शरत्काल।
सिर्फ
गुरूदेव ने ही नहीं, हिंदी साहित्य के अनन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद
वात्स्यायन अज्ञेय ने भी हाइकू को भारतीय साहित्य में स्थापित करने में अमूल्य
योगदान दिया है। अपनी जापान-यात्रा में अज्ञेय ने कवि बाशो की हाइकू साधना का बड़ा
गहरा अध्ययन किया। 1959 के आस-पास अज्ञेय जब भारत लौटे तब उनके ‘हे अमिताभ’, ‘सोन मछली’, ‘घाट-घाट का पानी’, ‘सागर में
ऊब-डूब’ जैसी कालजयी कविताओं की गठरी में छंद का यह नया
सांचा हाइकू भी मौजूद था। अज्ञेय ने भी बाशो की कविता का अनुवाद हिंदी मे किया था।
फुरु इके या (The Old Pond, Oh!) - तालपुराना
कावाजु तोबुकोमु (A frog jump In) – कूदा मेंढक
मिजुनो ओतू (The Water’s) – गुड़प्प..
हालांकि
उपर्युक्त रचना अज्ञेय द्वारा बाशो की हाइकू का शाब्दिक अनुवाद भर है। इसमें हाइकू
के अनुशासन का ख्याल नहीं रखा गया है। हिंदी साहित्य में हाइकू के प्रवेश के बाद
कई साहित्यकारों ने इसके पैटर्न पर कविताएं लिखीं।
इकला चांद
असंख्यों तारे
नील गगन के
खुले किवाड़े
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आंएंगे
बांह पसारे।।
1964
के आस-पास लिखी गई केदारानाथ अग्रवाल की इस कविता में हाइकू की संक्षिप्तता का गुण
स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। स्वयं अज्ञेय की कई कविताएं इसी तरह की हैं। साठ के
दशक के बाद केदार नाथ अग्रवाल, श्रीकांत शर्मा, बच्चन,
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र
और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कई साहित्यकारों ने अपनी कविताओं में नया प्रयोग
करते हुए दो या तीन पंक्तियों की छोटी-छोटी कविताएं लिखी हैं। इस तरह के
नवप्रयोगों की प्रेरणा हाइकू से ही मिलने का अनुमान लगाया जाता है।
इस
तरह से नव-प्रयोगों की अपनी प्रवृत्ति और सहज भाव से सबको स्वीकारने की संस्कृति
वाले हिंदी साहित्य के कोश में इस विधा का पदार्पण हुआ। ‘अरथ
अमित अति आखर थोरे’ का प्रायोगिक प्रतिमान स्थापित करने वाली
हाइकू आज अपनी संक्षिप्तता की वजह से सर्वाधिक तेजी से अपनाई जाने वाली विधा बनती
जा रही है। हाइकू में सत्रह वर्ण होते हैं। ये सत्रह वर्ण तीन पंक्तियों में इस
तरह विभाजित होते हैं कि पहली और तीसरी पंक्ति में पांच-पांच वर्ण हों जबकि दूसरी
पंक्ति में सात वर्ण। जैसे-
जन्म मरण
समय की गति के
हैं दो चरण
वो है अपने
देखें हो मैने जैसे
झूठे सपने
--गोपाल दास नीरज
इसी
तरह की कई हाइकू कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य में तेजी से अपना स्थान बनाती जा
रही हैं। इसका संक्षिप्त होना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है जो नए कवियों को अपनी
ओर आकर्षित करती है। हाइकू लिखने से पहले इसका पूरा विज्ञान समझना भी जरूरी है,
क्योंकि तभी इसके अर्थों का वजन बरकरार रहेगा। आज के दौर में ऐसे कवियों की कोई
कमी नहीं है जिनके लिए हाइकू सिर्फ पाच-सात-पांच वर्णों का संयोजन मात्र है, इसके
अलावा कुछ भी नहीं। ऐसे लोग धड़ाधड़ हाइकू की पुस्तकें छपवाकर सिर्फ कूड़ेदानों का
बोझ बढ़ा रहे हैं। हाइकू के लिए गंभीर चिंतन और एकाग्रता की आवश्यकता होती है।
जीवन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर उकेरने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए होता है।
तब जाकर कहीं सच्चे अर्थों में हाइकू अपने लक्ष्यों तक पहुंचता है।
कला-खेल-साहित्य
सीमाओं के बंधनों को नहीं मानते। हाइकू इस तथ्य का सबसे सटीक उदाहरण है। सोलहवीं
शताब्दी में जापान में पैदा हुए साहित्य के इस सबसे लघु स्वरूप ने दुनिया के कई
देशों की सीमाएं पारकर वहां के साहित्य में अपना स्थान बनाया है। हिंदी में इसका
स्थान साल दर साल और दृढ़ और महत्वपूर्ण होता ही जा रहा है। यूरोप में अंग्रेजी के
इतर लगभग सभी भाषाओं में हाइकू काफी उत्साह से लिखे जा रहे हैं। वैश्विक एकात्म्य
की स्थापना में साहित्य के योगदान की सार्थकता सिद्ध करने का दायित्व हाइकू ने
अपने कंधे पर ले लिया है और वह अपने इस काम में निरंतर सफल भी हो रहा है। यह ‘वसुधैव
कुटुंबकम’ के मंत्र की साकार्यता के लिए शुभ संकेत है।