Sunday, 23 July 2017

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते लेकिन समझ में सरलता से आ जाते हैं। आज बहुत सी चीज़ें अनुभव के रास्ते दिमाग में आ चुकी हैं और कुछ धारणाओं और मान्यताओं के रूप में परिणत हो चुकी हैं। अब ज़िन्दगी थोड़ी-थोड़ी समझ भी आने लगी है। जब भी मन उदास होता है हम ज़िन्दगी की परिभाषाएं पढ़ने बैठ जाते हैं। जब भी हम निराश छोटे हैं किस्मत के अर्थ टटोलने लगते हैं। जब भी हम हारते हैं तो बजाय अपनी कमियों पर सुधारात्मक दृष्टि डालने के हम उन कमियों पर घुटने टेक देते हैं। सबकी तो नहीं लेकिन बहुतों की यही कहानी है। मेरी भी इसलिए है क्योंकि मैं केवल अनुभव लिख पाता हूँ और आज भी मैं वही लिख रहा हूँ।

अपना स्वयं का अध्ययन करना, खुद की पड़ताल करना अपने आप को पहचान लेना कितना ज़रूरी है? यह ज़रूरी भी है या नहीं? मुझे ऐसा लगता है कि यह मानसिक तनाव और हीन भावना के अलावा कुछ भी सृजित कर पाने के लायक नहीं है। इसलिए इसके बदले किसी महापुरुष की जीवनी पढ़नी चाहिए। कोई अच्छा सा लेख पढ़ना चाहिए।

मैंने अपने आप को बहुत पढ़ा है। मेरी हर आदत पर विश्लेषण किया है। इससे मुझे पता चला कि मुझमें एक नहीं, दो नहीं हज़ारों कमियां हैं। मैं जानता हूँ कि इनका परिणाम अच्छा नहीं होगा, फिर भी मैं इन कमियों में सुधार नहीं कर पा रहा। यह भी मेरी एक कमी ही है। मेरे साथ यह भी दिक्कत है कि मुझे अपनी सारी गलतियां पता होती हैं। मुझे पता होता है कि मैं जो कर रहा हूँ या करने जा रहा हूँ वो गलत है फिर भी मैं उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाता। अपने आप को कोसने के सिवाय। एक वाकया है ऐसा कि एक बार दारागंज इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर अपने मित्र राकेश से बात करते हुए मैं अपनी कही किसी बात को याद करने की कोशिश कर रहा था और यह भी कि ये बात मैंने कही किससे थी। हल्का सा संकेत पाते ही राकेश बोल पड़े कि बात यह थी और आपने मुझसे ही कही थी। आगे जोड़ते हुए उन्होंने जो कहा था उस पर मुझे हंसी भी आई और बात कम से कम मेरे लिये तो चिंतन का विषय थी ही। उन्होंने कहा कि दिन भर आप अपने आपको कोसते ही तो रहते हैं।

मुझे ख़ुशी है कि मुझमें आत्ममुग्धता नहीं है, आत्मप्रशंसा की आदत नहीं है, शायद अहंकार भी न हो, लेकिन इस बात की चिंता भी काम नहीं है कि मुझमें खुद के बारे में अच्छा महसूस करने की भी आदत नहीं है। पता नहीं टैलेंट वगैरह का स्तर मुझमें कितना है! लोगों की आशाएं मुझे कभी कभी डरा देती हैं। कभी कभी नहीं शायद हमेशा ही। इससे आत्मविश्वास गिरता है, आत्मबल कमजोर होता है। कभी कभी मैं कई प्रतियोगिताएं इसीलिए ज्वाइन ही नहीं करता हूँ कि मन में पहले से ही धारणा बन जाती है कि यह जीतना मेरे वश की बात नहीं।

मेरे आस-पास रहने वाले लोगों से पूछिए! शायद उनको मेरी अच्छाइयों से ज्यादा मेरी कमियों के बारे में पता हो! ऐसा इसलिए कि मैं दिन भर उसी पर विमर्श करता रहता हूँ। जब भी खाली रहता हूँ, शांत हो जाता हूँ बिलकुल। सोचनीय मुद्रा में। लोगों को लगता है असामाजिकता की ओर जा रहा हूँ, उदास हूँ, निराश हूँ, सबसे अलग एकांत रहने की इच्छा है मेरी। लेकिन मेरे मन में तो मेरे अतीत-वर्तमान-भविष्य के घटनाक्रमों में संग्राम छिड़ा होता है। उथल-पुथल मेरे सामाजिक व्यवहार को लेकर भी होती है। किसी की मज़ाक में कही छोटी बातें भी गहरी लग जाती हैं। किसी से कभी मज़ाक कर दिया तो एक चिंता और मन में बैठ जाती है कि उसे बुरा तो नहीं लगा होगा! 'सॉरी' तो हमेशा इसीलिए तैयार रखते हैं। वही एकमात्र इलाज भी तो है इस तनाव का।

अब देख लो! आज फिर कोस लिया खुद को! पता नहीं ऐसा केवल मेरे साथ है या फिर इस तरह के और भी पीस भगवान ने बनाये हैं। ज़िन्दगी है तो जीना है ही। चाहे रोकर जियें या फिर हंसकर। हंसकर ही जीने का मैं समर्थक हूँ। बचपन से हंसने का आदती भी हूँ। लेकिन आजकल वो आदत अपने आप न जाने कहाँ खो गयी है। शायद जीवन के उस नये अनुभव का असर है।

No comments:

Post a Comment