Wednesday, 19 December 2018

मनीष पोसवाल की कविताः सड़कें धरती की नसें हैं


एक सड़क सही मायनों में
कभी नहीं चलती, आगे बढ़ती।
और कमाल तो ये है कि
ना ही कभी रुकती, खत्म होती।
बस पगडंडियों, दगड़ों और बटियाओ में बंट जाती है,
बंटवारा कर देती है बसवाटों का,
खेतों का, पहाड़ों का ,मैदानों का।
सड़क नहीं खिसकती बिलांद भर भी,
सड़क नहीं सरकती सुई बराबर भी,
दुनिया की तमाम सड़कें
धरती की नसें हैं,
जो जिंदा रख रही हैं उसे,
और इन नसों में दौड रहे हैं हम।
नदी भी सड़कें हैं,
बस वहाँ बहता है पानी
आदमी की जगह।
सड़कें कहीं नहीं आ रही-जा रही,
वो तो हम हैं जो निकले हैं चिरयात्रा पर
जो मरकर ही खत्म होगी।

मनीष पोसवाल
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Sunday, 16 December 2018

समानांतरः उदासी का उत्सव

यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है

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जब आप उस अजीब सी अनुभूति की छाया में होते हैं तब तक आप अलग ही एहसास से गुजर रहे होते हैं। वहां जीत-हार जैसी प्रतियोगिताएं भी होती हैं। दुख-आनंद से मनोभाव भी होते हैं। बहुत कुछ वाजिब लगता है। बहुत कुछ गलत लगता है। इन सबसे इतर रात के सन्नाटे में कभी शांत स्थिर दिमाग से सोचिए तो लगता है कि किस कहानी का हिस्सा बन गए हैं? क्या सच में जो कुछ भी आपके साथ हो रहा है उसके नायक आप ही हैं? हां, नायक ही। कहानी को आगे ले जाने वाला नायक भर ही।

नायकत्व के तमाम आधुनिक परिभाषाओं से अलग, अयोग्य और सर्वथा दूर। एक ऐसी स्थिति, जो आपसे बिल्कुल ही अनियंत्रित हो गई हो। जिसके कारणों का पता बिल्कुल ही सृष्टि के सृजन की कथा की तरह अजान हो। रहस्यमयी हो। जहां से दुख निकलता हो। दुख भी ऐसा कि आप गहराई में उतरते चले जाएं। जिसकी आपको आदत लग जाए। जो अगर किसी वजह से न हो तो आपको बेचैनी होने लगे और ऐसा भी लगे कि आप कुछ बहुत भारी और कीमती चीज खो रहे हैं।

हर वक्त विचारों में गोते लगाना। शांत हो जाना। गंभीर हो जाना। गूढ़ से गूढ़ जीवन-सूत्रों के अर्थ ऐसे उद्घाटित होने लगते हों जैसे मन-मस्तिष्क किसी अज्ञात ज्ञान उपग्रह के सिग्नल से संलग्न हो गया हो। गहराई ऐसी स्थापित हो जाए जैसे संसार का सारा ही ज्ञान आपमें समाहित हो जाएगा। जिसे लोग उदासी कहते हैं वो आपके लिए आनंद और जीवन के सुचारु संचार की अहम आवश्यकता लगने लगे। यह कौन सा वातावरण है? यह कौन से सृजन की उथल-पुथल है? यह कौन सी चीज है जिसमें एक बीज सी बेचैनी भरती जा रही है?

क्या करें जब लगातार आनंद की चेष्टाएं असफल होती जाएं? आनंद भी क्या जीवन का परम लक्ष्य है? फिर दुख किसलिए हैं? फिर उदासी किसलिए है? यह किसी का उद्देश्य क्यों नहीं है जबकि यह सहज प्राप्य है? क्या इनकी सहज उपलब्धता इनका मूल्य कम कर देती है? उदासी भी एक उत्सव क्यों नहीं हो सकती? दुख भी एक त्योहार क्यों नहीं हो सकता? क्यों ऐसा लगता है कि हम दुखी हैं तो यह एक जीवन के प्रतिकूल घटना है? हम उदास हैं तो इससे जीवन का स्वास्थ्य सही नहीं रहेगा?

उदासी हमें गहराई प्रदान करती है। दुख हमें द्रव्यमान देते हैं। हमें सीखों से भर देते हैं। हमें विचारों से परिपूर्ण कर देते हैं। हम सघन हो जाते हैं। गहरे हो जाते हैं। ऐसे में ज्यादा चीजें हममें समा सकती हैं। सुख हमें उथला बनाते हैं। हम जब हंस रहे होते हैं तब चीजों को सतही तौर पर लेते हैं लेकिन संसार ने नियम बना लिया है कि सुख ही सही है। आनंद ही जीवन की अच्छी सेहत का संकेत है। दुख है तो बीमार हो। उदासी है तो मृतप्राय हो। यह तय कौन करे?

अभाव ही जीवन की गति हैं। असंतोष ही ईंधन है जीवन गाड़ी का। अभाव प्रेरित करते हैं। शून्य बनाते हैं ताकि नया जीवन समा सके। यह जीवन रिक्त स्थानों के कदम दर कदम चलने का बिंदुपथ है। हमारी उम्र अभावों की एक यात्रा है। मोशन ऑफ अ वैकेंट प्लेस इज़ आवर लाइफ। अभाव होंगे तो उदासी भी होगी इसलिए उदासी जीवन के आधारों की तासीर जैसी है। यानी कि अगर जीवन का स्थायी भाव कुछ है तो उदासी है। दुख है। ऐसा मेरा मानना है। इसलिए, जीवन में उदासी देने वालों और दुख देने वालों के प्रति कृतज्ञ होना हमारा नैतिक दायित्व है। यही धन्यवाद ज्ञापन हमारी उदासी का उत्सव है।

Saturday, 8 December 2018

विद्रोहीः 'मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा'

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रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
पुण्यतिथिः 'बास्टर्ड' सोसायटी में 'आसमान में धान' की तरह उग आने वाले कवि थे विद्रोही

"मैं किसी से प्रतिवाद नहीं करता तो उसका सिर्फ एक कारण है। मैं इस इंडियन सोसायटी का नेचर जानता हूं। यह एक बास्टर्ड सोसायटी है जो न कवि को इनाम देती है और न दंड।" नीतिन पमनानी की फिल्म 'मैं तुम्हारा कवि हूं' में बोलते हुए विद्रोही इस बात से कतई अनजान तो नहीं रहे होंगे कि वह जिस सोसायटी की बात कर रहे हैं वह हजारों साल पहले ही श्रुति परंपरा को नकारकर लिखित परंपरा के रास्ते पर चल पड़ी है। वह उसी को प्रमाणिक और ऐतिहासिक मानती है जो लिखित में है। इसमें संदेह की बात नहीं कि अगर धर्मदास ने कबीर को लिखा नहीं होता तो शायद वाचिक परंपरा का वह युगकवि सैकड़ों साल पहले अपनी समस्त दार्शनिक साखियों के साथ कहीं गायब हो गया होता। हालांकि, यह खुशी की बात है कि ऐसे हालात में भी कबीरों को उनके धर्मदास मिल जाते हैं।

हमारे युग के कबीर हैं विद्रोही
विद्रोही हमारे युग के कबीर हैं। अपने समय की संकीर्णताओं पर हथौड़ा मारने वाले कबीर। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सड़कों, ढाबों से लेकर संसद मार्ग तक के प्रोटेस्ट तक में उस कबीर की कविता गूंजती थी और आज तक गूंज रही है। उम्मीद है कि वह आगे भी गूंजेगी क्योंकि वह लिखी नहीं गई है। वह दहाड़ी गई है। वह बोली गई है। विद्रोही का लिखने पर विश्वास ही नहीं था। वह कबीर की तरह 'मसि कागद छूयो नहीं' की स्थिति में नहीं थे। पढ़े-लिखे थे। अपने छोटे से गांव अहिरी फिरोजपुर से जेएनयू तक पहुंचे थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने आप को लिखने की बात नहीं सोची। जैसे वह लिखित रूप में दर्ज ही नहीं होना चाहते हों। जैसे वह आवाज के रूप में आसमान में फैल जाना और हवा में घुल जाना चाहते हों। इस बात से बिल्कुल भी अप्रभावित कि जो लिखा नहीं जाएगा वह मूल्यांकित भी नहीं होगा।

विद्रोही के समकालीन कवियों को उन्हें कवि मानने से ही ऐतराज है। उस समय हिंदी के विख्यात आलोचक नामवर सिंह भी जेएनयू में थे और विद्रोही भी। लेकिन नामवर सिंह के लिए विद्रोही कभी कवि नहीं बन पाए। शायद इसी वजह से कवि विद्रोही न तो कभी छपे और न ही उनका मूल्यांकन किया गया। इस 'बास्टर्ड' सोसायटी में विद्रोही घूम-घूमकर कहते रहे

"मैं चाहता हूं कि
पहले जनगणमन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें
और फिर मैं मरूं"

लेकिन कोई इस कवि के इस 'विवादित' कविता को संज्ञान में नहीं लेना चाहता। कोई कवि को दंड नहीं देना चाहता। कोई कवि को ईनाम नहीं देना चाहता। एक तरह से समकालीन लोगों द्वारा समूचे तौर पर इग्नोर कर दिया जाना ही इस कवि को ऐसी लीक पर खड़ा कर देता है जो सबसे अलग है। जिस पर विद्रोही अकेले हैं। समकालीन साहित्य के पास विद्रोही को लिखने की स्याही भले न हो लेकिन वह दर्ज होने से नहीं रहेंगे। समय हर चीज को दर्ज कर लेता है। विद्रोही को समय ने दर्ज कर लिया है। जब-जब लोगों को 'मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी पर पड़ी औरत की लाश' और 'इंसानों की बिखरी हुई हड्डियों' पर अथाह तकलीफ होगी, अपने बच्चों और पुरखों को बचाने की चिंता होगी तब-तब लोग अपने कवि की आवाज ढूंढ लेंगे और ऐसे वक्त में विद्रोही तमाम साजिशो, षडयंत्रों के लिखित इतिहास की बंजर धरती से आसमान में धान की तरह उग पड़ेंगे।
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'मैं मानता ही नहीं..'
"मुझे मसीहाई में यकीन है ही नहीं,
मैं मानता ही नहीं कोई मुझसे बड़ा होगा।"

जिसके पास आत्ममूल्यांकन का सामर्थ्य हो वह किसी और से अपने मूल्यांकन की उम्मीद नहीं करता। विद्रोही की कविता पढ़ेंगे तो लगेगा कि वह 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम' जैसे लोगों के लिए नहीं थे। ऐसे लोग जो ड्राइंग रूम्स या पुस्तकालयों में बैठकर धीरे-धीरे समझ-समझकर, रस लेकर कविता पढ़ते हों, विद्रोही शायद उनके कवि नहीं हैं। विद्रोही की कविताओं में प्रतिध्वनि सुनाई देती है। संबोधन होता है। पुकार होती है। विद्रोही-साहित्य में कवि और श्रोता अलग-अलग नहीं है। दोनों ही कविता में विराजमान हैं। कविता में ही श्रोता भी है और कवि भी। विद्रोही की कविता किसी सुधी श्रोता से वार्तालाप की प्रक्रिया है। इसमें वह तीसरा पक्ष भी शामिल है जिसकी उलाहना देनी हो या जिसकी मजम्मत करनी हो।

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूं।
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

हजार साल पुराना गुस्सा और नफरत
अपनी कविताओं में पीरगाथाओं को वीरगाथाओं के व्याकरण में ढालकर विद्रोही ब्राह्मणवाद के 'गौरवाशाली' इतिहास की खिल्ली उड़ाते हैं। वह अपने आप को पंडित और ज्ञान का अगुआ कहने वाले लोगों के बनाए समाज का आईना भी विद्रोही तरीके से रखते हैं। ऐसे में उनके अंदर से गोरख पांडे की कविता की तरह 'हजार साल पुराना गुस्सा और हजार साल पुरानी नफरत' अपनी पूरी तीव्रता के साथ बाहर निकलती है।

बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
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विद्रोही! तुम करते क्या हो?
जंगलों में 'नराः वानराः' की तर्ज पर रहने वाले विद्रोही, नहाने-धोने से परहेज करने वाले विद्रोही, जेएनयू के शहर में छात्रों की संगत के सहारे जीने वाले विद्रोही, प्रोटेस्ट, सभा-कार्यक्रमों में महज अपनी कविता सुनाने के लिए लंबा इंतजार तक मंजूर करने वाले विद्रोही, प्रतिरोध के अपने वैचारिक विरासत को अपने बेटे को भी सौंपने की मंशा रखने वाले विद्रोही दिसंबर 2015 की आज ही की तारीख को दुनिया छोड़कर चले जाते हैं और वैसे ही जैसे एक योद्धा के लिए वीरगति ही उसकी सर्वोच्च उपलब्धि होती है विद्रोही भी जेएनयू छात्रसंघ की 'ऑक्यूपाई यूजीसी' प्रोटेस्ट के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए। कविता उनके लिए खेती थी, उनके लिए वैसा ही काम था जैसा काम लोग अपनी सांसे चलाने के लिए करते हैं।
कर्म है कविता
जिसे मैं करता हूं
फिर भी लोग मुझसे पूछते हैं
विद्रोही! तुम करते क्या हो?

दर्द का दवा हो जाना भी सही नहीं
विद्रोही की बहुत सी कविताएं उल्लेखनीय हैं लेकिन सभी यहां संभव नहीं। उनकी कविताओं का संग्रह नवारुण ने प्रकाशित किया है। नितिन के पमनानी ने 'मैं तुम्हारा कवि हूं' नाम से उन पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म भी बनाई है। विद्रोही ने जनभाषा में कविताएं लिखी हैं। जन सरोकारों पर कविताएं लिखी हैं। हलवाह, नानी, कहांर, नूर मियां, अहीर, औरत, आदिवासी जैसे बिम्बों-शब्दों का सहारा लेकर अपनी बात कही है। लोग उनमें नागार्जुन देखते हैं। कबीर देखते हैं लेकिन विद्रोही इस बात से खुश होते हैं कि लोग उनमें तुलसीदास नहीं देखते। वह दर्द का इलाज करना जरूरी समझने वाले साहित्य-समाज के इकलौते कवि होंगे। उनके मुताबिक दर्द ठीक है। दर्द आगे भी मिले तो इनकार नहीं है लेकिन दर्द की आदत बन जाना सबसे ज्यादा खतरनाक है। वैसे ही जैसे पाश के शब्दों में मुर्दा शांति से भर जाना सबसे खतरनाक है। इसीलिए विद्रोही गालिब को खारिज करते हैं और कहते हैं -

दर्दों का आगे और भी सिलसिला हो,
पर ये तो न हो कि दर्द ही दवा हो।