प्रतिक्रियाएं भी किसी मसले पर आपका पक्ष रखती हैं। केजरीवाल को थप्पड़ पड़ने पर अगर आप हंस रहे हैं तो राजनैतिक फीडबैक की इस अपसंस्कृति को आपकी हरी झंडी है। किसी नेता से नाराजगी हो सकती है। प्रधानमंत्री इजाजत भी दे सकते हैं कि 'जूतों से मारें' या 'दलित भाइयों के बदले हमें मारें' लेकिन तय हमें करना है कि लोकतांत्रिक प्रश्नोत्तर की भाषा क्या होगी? हम किस तरह के राजनीतिक पर्यावरण का निर्माण चाहते हैं?
क्या हम चाहते हैं कि नेता काम न करें या बेईमानी करें तो उन्हें पीटा जाए? या फिर प्रक्रियात्मक तरीके से चुनाव में अपने मताधिकार से उन्हें जवाब दिया जाए? अगर ज़ाहिर तौर पर पहली बात ग़लत लगती है, जो कि है भी, तो समझना चाहिए कि हमारी हंसी, हमारा मजाक ऐसी घटनाओं में लगातार वृद्धि में मदद कर सकता है। किसी पर जूता फेंकना, थप्पड़ मारना, जूतों से मारने जैसी अराजक प्रतिक्रियाएं लोगों के गुस्से का प्रतिनिधि न बनें बल्कि, लोगों में जवाब देने का लोकतान्त्रिक तरीका विकसित हो। इसके लिए, ऐसी घटनाओं की सामूहिक और सर्वदलीय आलोचना होनी चाहिए।
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