कोरोना वायरस को लेकर लागू लॉकडाउन को एक महीना होने वाला है। लोग घरों के अंदर कैद हैं और दुनिया की तमाम औद्योगिक, सार्वजनिक धार्मिक-सामाजिक गतिविधियां स्थगित हैं। इस बीच पर्यावरण के गलियारों से सुकूनदेह खबरें आ रही हैं। दिल्ली जैसे अति प्रदूषित शहर की हवाओं की स्वच्छता ने पर्यावरण के पक्ष में लड़ने वालों के लिए अपनी दलीलों में बढ़ाने लायक एक महत्वपूर्ण आधार सौंप दिया है।
सिर्फ दिल्ली ही क्यों, दुनिया के बड़े शहरों में भी सार्वजनिक यातायात, सड़कों पर दौड़ने वाली धुंए भरी गाड़ियों की अनुपस्थिति से जो वातावरण वापस लौटा है, उसे दखने के बाद लोगों से पर्यावरण को लेकर गंभीरता दिखाने जैसी आशा की जा सकती है। भारत में जैसी खबर सामने आई, उसमें गंगा-यमुना जैसी नदियों के पानी में काफी समय बाद निर्मलता के दर्शन हुए। फैक्ट्रियों के बंद होने के अलावा, नदियों में धार्मिक या अन्य स्नान के बंद होने को भी इसकी वजह माना जा रहा है। वहीं, सड़क पर न के बराबर दौड़ती गाड़ियों से हवा ऐसी स्वच्छ हुई कि पंछियो का कलरव बढ़ गया।
मिट्टी की सूरत बदली
दिल्ली जैसे शहर में रात में तारों के दर्शन किए गए और कई ऐसी चिड़ियां की चहचहाहट सुनी गई जो काफी समय से दिल्ली का रास्ता भूल चुकी थीं। पॉलिथीन का इस्तेमाल कम होने के बाद से मिट्टी की सूरत और सीरत भी बेहद कम मात्रा में ही सही पर बदली है।
यह वातावरण में बहुत मामूली बदलाव के बाद का नजारा है। हम प्राकृतिक वातावरण के अतिक्रमण में किस स्तर तक पहुंच गए थे, लॉकडाउन में बैठे-बैठे इसका अंदाजा लगा सकते हैं। यह एक दर्शन है, जिसे समझकर हम अपने भविष्य के बारे में कुछ अहम फैसले ले सकते हैं। हम यह भी सोच सकते हैं कि हर साल मानव सभ्यता को चुनौती देती इन आपदाओं का क्या संकेत है और यह हमसे क्या कहना चाहती हैं?
प्राकृतिक रिमाइंडर
अगर कह लें कि ताजी आपदा कोविड-19 एक प्राकृतिक रिमाइंडर है जो हमें याद दिलाने की कोशिश कर रहा है कि कैसी धरती तुम्हें सौंपी गई थी और तुमने उसका क्या हाल कर दिया तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह एक बड़ी कीमत है, जिसके जवाब में कई दशकों का सबसे स्वच्छ वातावरण हमारे सामने है। हम एक साथ स्याह और श्वेत दोनों के गवाह हैं। एक ओर कोरोना से मानवजाति भयभीत है तो वहीं मानवीय हस्तक्षेप की अनुपस्थिति से प्रकृति के अन्य अवयव आनंद मना रहे हैं। किसी का दुख दूसरे का आनंद तभी बनता है जब दोनों के बीच एक प्रतिकूल रिश्ता हो। शत्रुता भी कह सकते हैं। सोचिए.. हमारे कथित विकास की कोशिशों ने धरती के अपने ही सहचरों को शत्रु क्यों बना लिया?
शायद इसलिए, क्योंकि हमने समावेशी विकास का विकल्प नहीं चुना। हमने विकास के उपभोक्ताओं में केवल मनुष्यों को रखा। बाकी जंतुओं को हम एडजस्ट करते रहे। उनका इस्तेमाल करते रहे। नदी, पहाड़, जंगल जैसे तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देने वाले अवयवों के साथ हमने एकतरफा युद्ध तो छेड़ा ही, इसके अलावा जो तत्काल प्रतिक्रिया देने की क्षमता रखते हैं ऐसे प्राणियों पर हमने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है। उन्हें नियंत्रित किया, कैद किया। उनका इस्तेमाल अपने हिसाब से किया और उनकी हत्या भी की है। समझदार और समर्थ होते मनुष्यों में उदारता होनी चाहिए। उनका हृदय बड़ा होना चाहिए। उनमें करुणा होनी चाहिए। उन्हें स्वयंभू ईश्वर नहीं हो जाना चाहिए। विनाश का तांडव नहीं करना चाहिए। उन्हें संहारक या विध्वंसक नहीं, समायोजक, संरक्षक और सर्जक होना चाहिए।
लेकिन हमने किया क्या? विकास को उद्देश्य बनाकर किए गए अभी तक के अपने प्रयासों में हमने एक प्राकृतिक विश्व पर कृत्रिम विश्व का आवरण चढ़ाने की कोशिश की है। आशय यह कि प्रकृति जो हमसे पहले से वर्तमान है और जो हमारे बाद भी रहेगी, उस पर विजय प्राप्त कर लें। जहां, चीजें अपने हिसाब से होंगी और मूल रूप से कुछ ज्यादा भयावह किस्म की बेहतर होंगी। विकास और सुविधाओं के बारे में सोचना पूर्णतः ग़लत नहीं है लेकिन यह भी तो ध्यान रखा जाना चाहिए था कि मानवीय नियंत्रण प्राकृतिक नियंत्रण के साथ तादात्म्य बिठा पाए।
प्रकृति का संचालन
मानव के नियंत्रण की चीजों में इक्वलिटी को लेकर हमेशा से सन्देह रहा है। इसमें हम अपना स्वार्थ और अपना पूर्वाग्रह नहीं छोड़ सकते। वहीं प्रकृति एक सिस्टम है। वहां कोई मालिक नहीं है जो 'बादशाह' कि तरह चीजों के संचालन में हस्तक्षेप कर रहा हो। प्रकृति का स्वार्थ उसके वैविध्य के हित में निहित है। वह सहअस्तित्व के सिद्धांत से चलती आई है। जिसमें सबकी सत्ता महत्वपूर्ण है। जिसमें सबका ध्यान रखना होता है। मर्यादित तरीके से चीजों के उपभोग का अलिखित नियम है लेकिन हम तो लिखे हुए को पढ़ना नहीं चाहते तो अलिखित चीजों पर क्या ही ध्यान देंगे।
मर्यादाओं की सीमाएं लांघना ही मानवों की दुर्दशा का कारण बनता जा रहा है। हम जिस वैश्विक संकट के बीच इस साल पृथ्वी दिवस से साक्षात्कार कर रहे हैं, वह शायद प्रकृति प्रदत्त एक अवसर है। जिसमें हम तमाम सम्भावित खतरों के एक सैंपल को भी महसूस कर रहे हैं। इसके साथ अगर हम पृथ्वी के लिए कोई फैसला लेंगे तो शायद कुछ बेहतर घट सके। प्यास के संकट में फंसा अगर जलनीति तय करे तो वह कभी नदियों, तालाबों और झरनों को लेकर क्रूर नहीं हो पाएगा। पृथ्वी हमारा घर है। पृथ्वी के समस्त जीवित-अजीवित अवयव हमारे परिवार का हिस्सा हैं। हम इसके साथ जो भी बर्ताव करेंगे, उससे परिवार का हर सदस्य प्रभावित होगा।
सर्वयोग्या वसुंधरा
इस परिवार में हम एक सशक्त, बुद्धिमान और सक्षम सदस्य के रूप में जाने जाते हैं। हम परिवार में ज्येष्ठ भी नहीं हैं। बस कुछ भी कर पाने की क्षमता से संपन्न हैं और तमाम आयामों में निरंतर विकासशील हैं। ऐसे में उन्नति की प्रक्रिया में हमें अपनी उन आदिम आदतों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा जहां 'वीरभोग्या वसुंधरा' जैसी उक्तियों की महत्ता है। पृथ्वी पर जीवन के सुचारू संचालन के लिए यह ज़रूरी है। इसके लिए अब 'सर्वयोग्या वसुंधरा' के दृष्टिकोण पर काम करना होगा। ऐसी वसुंधरा जो सबके योग्य हो। भोग की मानसिकता से बाहर निकलते हुए योग की ओर जाना होगा।
जिनको हमने परिवार से तकरीबन निष्कासित किया है, उन्हें परिवार से योगने (जोड़ने) के अभियान पर काम करना होगा। सबके योग्य और सबक भोग्य वसुंधरा बनानी होगी। यह हमारी जिम्मेदारी है, जिसे स्वतः संज्ञान लेना होगा। यहीं से असत् से सत् का मार्ग मिलेगा। मृत्यु से अमृत की राह दिखेगी। यह पृथ्वी हमारी माता है और हम उसके पुत्र हैं। (माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः) .. पृथ्वी हमें (मानवजाति को) चिरंजीव होने का आशीर्वाद दे उसके लिए ज़रूरी है कि हम उसे प्रसन्न रखें। कैसे? लॉकडाउन में बैठकर कुछ दिन यही सोच लीजिए।
(सभी तस्वीरें natgeotravel से)
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