मीनाक्षी नटराजन जी ने 'ब्रह्म क्या है', सवाल का जवाब देते हुए एक कथा के हवाले से किसी को बताया कि यह परिभाषाओं की सीमा से बाहर है। इसके लिए शास्त्रों में लिखा गया है कि नेति-नेति मतलब कि ब्रह्म का विस्तार ऐसा है कि सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह-यह ब्रह्म नहीं है। बाकी सब ब्रह्म है। प्रेम भी वैसा ही है। ब्रह्मस्वरूप, जिसकी कोई सीमा नहीं है। जिसको परिभाषाओं में नहीं बांध सकते। प्रेम एक आदर्श स्थिति है, जिस तक पहुंचने के लिए चार सोपान हैं, ज्ञान, भक्ति, करुणा और फिर प्रेम।
यह चारों सोपान एक क्रम में घटित होते हैं, जिसकी चरमावस्था प्रेम पर जाकर प्राप्त होती है। प्रेम जब होता है तो मैं यानी कि अहम् समाप्त हो जाता है। तमाम सूफियों, कवियों और दार्शनिकों ने भी प्रेम को ऐसा ही कहा है। चाहे वह ईश्वर से प्रेम हो, गुरू से हो या किसी अन्य से। प्रेम की पहला घटना यही होती है कि मैं भाव खत्म हो जाता है और तू ही तू दिखने लगता है। जब प्रेम होता है तो संसार की सभी चीजें अच्छी लगने लगती हैं। सब सुंदर लगने लगता है। प्रेम से आनंद उपजता है। प्रणय से जीवन में विनय फूलता है।
प्रेम प्राप्ति की ओर नहीं जाता
प्रेम का मार्ग प्राप्ति की ओर नहीं जाता। प्रेम सर्वथा प्राप्तियों से मुक्त है। इसीलिए प्रेम मुक्त करता है बांधता नहीं है। यहां पाने की अभिलाषा खत्म हो जाती है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे भी पाने की इच्छा नहीं आती। हम उसे खुश देखकर खुश हो जाते हैं। उसे दुखी देखकर दुखी हो जाते हैं लेकिन उस पर कोई अधिकार भाव नहीं चाहते। जहां अधिकार भावना है, वहां प्रेम नहीं है। किसी को प्राप्त करने की अभिलाषा नियंत्रण रखने को प्रेरित करती है लेकिन प्रेम में ऐसा नहीं होता।
मोह में होता है। मोह प्रेम का देहरूप है। प्रेम मनुष्यता का तात्विक विषय है। जैसे शरीर का तत्व आत्मा है। देह आवरण है। वैसे ही प्रेम का आवरण मोह है। मोह में लगाव है, लेकिन तकलीफ भी है। मोह भी अंधा होता है और प्रेम में भी अंधा होना कहा गया है। मोह का अंधा होना काला अंधकार है। जिसमें कुछ भी नहीं दिखता। जिसमें तकलीफ और क्रूरता जन्म ले सकती है लेकिन प्रेम का अंधा होना प्रकाश के किसी स्रोत का अनावरित हो जाना है। यह ऐसा है जैसे कि जब आप एक सत्य को जान लेते हैं तो सब कुछ का रहस्य खुल जाता है और अब तक का सब जाना हुआ झूठ हो जाता है। प्रेम में होना ऐसा ही होना है। सब कुछ मिल जाता है। सारी दुनिया ही अपनी लगने लगती है और इस सब कुछ के पा लेने की प्रक्रिया में सब कुछ छूट जाता है।
मतलब कि जब आप सारी दुनिया को पा लेते हैं तो आपकी सारी दुनिया आपको छोड़नी पड़ती है। इसीलिए प्रेम ऐसा प्रकाश जिसमें सत्य को सही तरीके से जान लिया गया है और बाकी के सारे कथित सत्य झूठ हो जाते हैं या उन्हें छोड़ देना पड़ता है। अंधा प्रेम यानी कि ब्लाइंड लव में नजरअंदाज का भाव नहीं है। इसमें सिर्फ आत्म को नजरअंदाज हो जाना पड़ता है। क्योंकि आत्महंता होने के बाद ही प्रेम का विकास होता है। मैं नहीं तू ही का भाव ही प्रेम है।
प्रेम के बारे में एक कथा मीनाक्षी जी सुनाती हैं कि कल्पना करें कि नदी में कोई डूब रहा है। उसे तैरना न आता हो और आप तैरना जानते हों। ऐसी अवस्था में आप जाहिर तौर पर उसे बचाने के लिए नदी में उतरेंगे। रेस्क्यू के दौरान ऐसा हो सकता है कि डूबने वाला डर के मारे या अपनी जान बचाने की कोशिश में आपको नोचे-खरोटे, आपको खींचे। हो सकता है कि आप भी डूबे-डूबे हो जाएं लेकिन फिर भी आप उसे छोड़ते नहीं। आप उसे बचाने की कोशिश में लगे रहे हैं। यह जो उसे बचा लेने का भाव है, वही प्रेम है। वहीं प्रेम घटित होता है।
मोह से मुक्ति कैसे?
मोह से मुक्ति और प्रेम के सृजन को लेकर पूछे गए सवाल में मीनाक्षी जी ने बताया कि मोह को संज्ञान में लेना ही उससे मुक्ति का पहला चरण है। पहले हम यह जान लें कि जो अनुभूति हम जी रहे हैं वह मोह है। मोह को आसानी से पहचाना जा सकता है। जिसमें भी ऐसा लगे कि जिस चीज को हम चाहते हैं, वह हमारा हो जाए। हमारे नियंत्रण में हो जाए। वह हमारे हिसाब से संचालित हो, वह मोह का एक रूप है। अगर हम ऐसा सोचने लगें कि हम जिससे प्रेम करते हैं, वह हमारे बारे में कैसी धारणा रखता है। अगर उसके अंदर हमारे लिए प्रेमभाव नहीं है या है भी तो वैसा नहीं है, जैसा हम चाहते हैं, तो ऐसी अवस्था प्रेम की नहीं हो सकती। वह मोह है।
किसी चीज से हम बाहर न आना चाहें, उसे पकड़कर रखें, यह भावना भी मोह है। विदेहराज के बारे में कहा जाता है कि वह मोह से मुक्त होते हैं। इसीलिए उन्हें वि-देह कहा जाता है। किसी ऋषि से उसके एक शिष्य ने मोह के बारे में सवाल किया तो उन्होंने उसे विदेहराज के पास भेज दिया। शिष्य थोड़ा परेशान तो हुआ कि एक राजा मोह के बारे में क्या जानता होगा। वे तो मोह में फंसे रहने के लिए ही कुख्यात होते हैं, लेकिन गुर्वादेश से प्रेरित शिष्य विदेहराज के पास पहुंचा।
विदेहराज ने उसका सवाल सुना और उसे अपने साथ भ्रमण पर ले गए। आशंकित ऋषि-शिष्य उनके साथ चल पड़ा। तभी विदेह में बाढ़ की घटना हुई और राजा लोगों की मदद में जुट गए। कुछ देर बाद उन्होंने ऋषि-शिष्य से भी लोगों की मदद करने को कहा। इस पर वह राजा से बोला, 'मेरा कमंडल छूट गया है, मैं उसे लेकर आता हूं।' इस पर विदेहराज ने कहा कि यही मोह है। हम अगर कोई चीज न छोड़ना चाहें, उसे पकड़कर रखना चाहें, उसी को मोह कहा जाता है।
आसक्ति के रूप
अपने कर्मफलता के प्रति आसक्ति भी मोह है। जैसे, एक कथा और मीनाक्षी ने सुनाई कि बुद्ध अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे। रास्ते में किसी तालाब या नदी में एक कीड़ा डूबता दिखाई दिया। बुद्ध ने उस कीड़े को बचाने के लिए एक पत्ता रख दिया, जिस पर चढ़कर उस कीड़े की जान बची। इसके बाद उनके शिष्यों ने हैरत से बुद्ध से पूछा कि आप तो इन सबसे मुक्ति की बात करते हैं, संन्यास की बात करते हैं। फिर आपनकी इस कीड़े के प्रति आसक्ति क्यों हुई? बुद्ध ने अपने शिष्यों को जवाब दिया, आसक्ति मुझे नहीं तुम्हें है। मैं उसे वहीं छोड़ आया लेकिन तुम उसे अपने मन में अब भी लिए फिर रहे हो। कर्मफल से अनासक्ति की ऐसी ही किसी भावना ने 'नेकी कर कुएं में डाल' की कहावत का सृजन किया होगा।
प्रेम स्वतंत्र करता है
प्रेम ऐसी सभी भावनाओं से स्वतंत्र कर देता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, उसका साथ होना पसंद तो आने लगता है। उसे देखते ही आंखें चमक तो उठती हैं लेकिन ऐसा भाव नहीं आता कि ऐसा ही वह भी हमारे लिए महसूस करे या हम उसके चले जाने पर दुखी अनुभव करें। जब ऐसा प्रेम होता है, तब कहीं घृणा भी नहीं रह जाती। तब क्रोध नहीं आता। संसार की सारी चीजों से प्रेम हो जाता है। प्रेम होने का यही लक्षण है। जबकि मोह में लालसाएं और इच्छाएं दुख देती हैं। मोह के साथ तृष्णा आती है। बुद्ध ने इसी तृष्णा के बारे में कहा कि यह सभी दुखों का मूल कारण है।
प्रेम का सबसे सुंदर उदाहरण कृष्ण का राधा से प्रेम है। कृष्ण या राधा ने कभी एक-दूसरे की चाह नहीं की लेकिन प्रेम खूब किया। उद्धव ने जब प्रेम के विषय में श्रीकृष्ण से प्रश्न किया तो उन्होंने उन्हें वृंदावन भेज दिया। राधा और गोपियों के पास अपना एक पत्र थमाकर उद्धव को भेज दिया। उद्धव जब वहां पहुंचे और राधा से कृष्ण के पत्र के बारे में बताया तो राधा ने वह पत्र फाड़ दिया। उन्होंने कहा कि कृष्ण को राधा से बातचीत के लिए किसी जरिए की आवश्यकता कैसे हो सकती है? वह दोनों प्रेम में एकाकार हो गए हैं। अपने आपसे बातकर अपने प्रिय या प्रियतमा से बात की जा सकती है। बाद में उद्धव ने जब उस पत्र को खोला तो वह कोरी चिट्ठी निकली। बिना शब्दों के कृष्ण ने राधा से बात की। इसीलिए कहते हैं कि प्रेम की कोई भाषा भी नहीं होती।
(प्रस्तुत साक्षात्कार मीनाक्षी नटराजन जी के साथ एक डिजिटल संवाद पर आधारित है)
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