Sunday, 17 November 2024

दाई नहीं रहीं


दाई नहीं रहीं... जब ये खबर मिली तो यह पूछने की भी इच्छा नहीं हुई कि कैसे? कैसे का क्या जवाब हो सकता है सिवाय इसके कि किसी न किसी विधि सबको जाना ही है। ऐसे समय में जब मृत्यु छींक की तरह दस्तक दे रही है, दाई अपना पूरा जीवन जीकर जा रही हैं। सिर्फ़ यही संतोष है। उन्होंने जीवन कैसा जिया, यह कहने की स्थिति मेरी नहीं है। जितना मैंने उन्हें देखा है, वह एक तपस्विनी की तरह रहीं, जिसकी शायद ही अपनी कोई इच्छा हो, या अपना कोई स्वार्थ्य हो। ऐसे जीती रहीं वह जैसे अपना जीवन न हो। या अपना जीवन हो भी तो कोई ऋण हो जिसे जीकर चुकाया जा रहा है। या ऐसे जैसे दबे पाँव की कोई यात्रा हो, जो ज़रा से शोर से सहम जाये। 

दाई को ऐसे ही देखा। शांति से घर में आते जाते, बैठते, बोलते, बतियाते। मेरे घर में मेरे जितना शामिल होते। हमारे दुख में दुखी होते। हमारे सुख में सुखी होते। गाँव-जवार के अपरिचित माहौल में परिवार जैसे परिचित दृश्य की तरह अक्सर दिख जाती थीं। कहीं किसी के घर के लिए जाते हुए या किसी ने कोई काम दे रखा हो तो विनीत भाव से उसे पूरा करने के उद्देश्य से तेज़ी से कदम बढ़ती उनकी तस्वीर तो अब भी आँखों के सामने है। अब वह जीवित तस्वीर नहीं दिखने वाली है। दादी (माई) के परिसर की इस अमूल्य औचक अनुपस्थिति ने एकदम से हृदय भिगो दिया है। 

दादी और उनके बीच न सिर्फ उम्र का फासला था बल्कि सामाजिकी और आर्थिकी में भी वह कथित तौर पर उनके बराबर नहीं थीं लेकिन मैंने जब भी दोनों को देखा था, दोनों सखियां लगती थीं। वह अकारण घर पर आ जाती थीं और दादी के पास बैठतीं। कोई बात न होती थी तब भी वह उनके पास काफी देर तक बैठी रहतीं। ऐसा तो हम अपने सखा-सखियों के साथ ही कर सकते हैं। ऐसा तो हम अपने सखा-सखियों के साथ ही कर सकते हैं। दादी अपने बिछौने पर लेटे किताब पढ़ रही होतीं तो वह भी उनके बग़ल में लेट जाती थीं। कभी-कभी दादी ने जो पढ़ा होता, वह उन्हें सुनातीं तो कान लगाकर बड़े ध्यान से दाई उसे सुन रही होती थीं।

जब हम छोटे थे और लिखना-पढ़ना सीख रहे थे तब दाई घर में अकारण नहीं आती थीं। वह हमें बुलाने के लिए आती थीं कि माया फुआ के यहां पढ़ने के लिए जाएंगे तो ‘बिस्कुट और दरिया’ मिलेगा। स्लेट और खड़िया भी वहीं मिलेगी। हम भागकर जाते और माया फुआ के घर के बरामदे में लाइन से बैठ जाते। कोई एक व्यक्ति बारहखड़ी या गिनती या पहाड़े बोलता और हम लोग उसे दोहराते। कखग स्लेट पर लिखते और कक्षा के समापन का इंतजार करते थे। इसी के बाद दाई बिस्कुट और दरिया बांटने का काम शुरू करती थीं।

एक उम्र तक हम दाई की शकल में बिस्कुट और दरिया को याद करते रहे। हम बड़े हुए और गांव छोड़ दिया। दाई वहां अनवरत बनी रहीं। लोगों की मदद करतीं। घरों में बर्तन मांजतीं। सरकारी स्कूल पर पोलियो पिलाना हो या कोई वैक्सीन लगनी हो। वह गाँव की अकेली सूचना प्रसारक थीं। किसी के घर 'जग्य-भोज' हो, दाई को निर्देश होता कि वह गाँव की लड़कियों को बुला लायें। वह घर घर में जातीं और नाम लेकर सूचना देतीं कि फ़लाँ के यहाँ कथा शुरू हो गई है, परछावन, तिलक, ब्याह शुरू हो गया… जल्दी चलऽ लोगन। 

दादी उन्हें 'कमलेश कऽ माई' कहती थीं जबकि कमलेश के पिता नहीं थे। कमलेश को भी हमने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। रमेश को देखा था जो उनका छोटा बेटा था। उनके नाती साजन को देखे अरसा हो गया। इतना ज्यादा कि यह भी याद नहीं कि साजन उनका बेटा था या नाती। कमलेश बाहर कमाने गए और मुझे याद नहीं कि अभी तक कभी घर लौटे हों। रमेश घर पर तब तक बने रहे जब तक जवान नहीं हो गए और उनकी शादी नहीं हो गई और कमाने और घर चलाने की जिम्मेदारी उनके सर पर नहीं आ गई। 

दाई का क्या नाम था? यह हमने कभी नहीं सोचा। सरकारी प्राथमिक स्कूल से लेकर माया फुआ की आंगनबाड़ी तक वह दाई ही कही जाती थीं। सिर्फ दादी थीं, जो उन्हें 'कमलेश कऽ माई' कहती थीं। वह कौन सी जाति की थीं, बचपन से कभी जानने की जरूरत नहीं पड़ी थी। हमारे घर में उनके आने-जाने का सिलसिला ऐसा था कि लगता था कि अपनी ही कोई पट्टीदार होंगी। बचपन में उनके घर जाने की थोड़ी-बहुत स्मृतियां हैं जो शायद रमेश या फिर साजन की वजह से बनी होंगी।

सबको एक न एक दिन जाना है... तो दाई भी चली ही गईं। हमारे जीवन से जुड़े लोग जब दुनिया से कूच करते हैं तो वह हमारी उम्र, हमारे अस्तित्व और हमारे जीवन का एक हिस्सा भी लिए जाते हैं। दाई का जाना भी ऐसा ही लग रहा है। पिछली बार जब गांव गए थे तब दाई घर आने पर खासतौर पर हमको देखने के लिए आईं कि 'ढेर दिन हो गईल बा।' यह देखना इसलिए भी था कि बीच में वह काफी बीमार पड़ीं और लगा कि अब नहीं बचेंगी। मौत को चकमा देकर आएं तो संसार से मोह और बढ़ ही जाता है। हमें देखकर क्या करतीं दाई? देखकर हंस दिया और थोड़ी देर तक मुस्कुराहट के साथ देखती रहीं। फिर चली गईं।

हम उनसे कितनी बातें करते थे? दुआर पर जब भी दिख जातीं तो पूछ लेते... 'अउर दाई! का हालचाल बा।' 'ठीके बा' वह कहतीं और थोड़ी देर के लिए रुकतीं। शायद थोड़ी और बात निकलने की प्रतीक्षा करतीं लेकिन नहीं निकलती तो आगे बढ़कर घर में दाखिल हो जातीं। बचपन से लेकर आज तक उनकी कदकाठी में कोई ज़्यादा बदलाव नहीं दिखा। न कभी मोटी दिखीं। न कभी कमजोर। न कभी दुखी दिखीं। न तो बहुत ज्यादा सुखी। संतोष उनके चेहरे का और व्यक्तित्व का भी (शायद) स्थायी भाव हो गया था। धनुषाकार गर्दन झुकाए उनकी कृशकाया पूरे गाँव में माला के मनकों के बीच के सूत्र की तरह घूमती रहती थी। 

अचानक से वह इस दुनिया से चली गई हैं। गांव में शायद अकेली हो गई हों। माया फुआ अब गांव में नहीं रहतीं। दादी नहीं हैं। ऐसी और कितनी सखियां उनकी गांव में होंगी, मुझे नहीं पता। अपने व्यस्त, संघर्षशील और साधारण जीवन को विराम देने के बाद उनकी कहानी निश्चित तौर पर समाप्त हो गई है। मैं आज उनके जाने से दुखी हूं तो उन्हें याद कर रहा हूं लेकिन याद रखने का यह काम कितने दिन होगा, मुझे भी क्या ही पता है? गांव में रहने वाले लोगों के लिए बुजुर्गों का निधन एक सनातन प्रक्रिया है और वह उसे इसी सामान्यता के साथ लेते भी हैं। तो गांव की याद्दाश्त में भी वह अन्य बुजुर्गों की भांति बिला ही जाएंगी। हो सकता है कि उनका परिवार कुछ समय तक उन्हें याद रखे और तब तक थोड़ी-बहुत उनकी कहानी शायद जीवित रहे।

समाज में आपका केवल अस्तित्व होना ही काफी नहीं है। उसके होने को आप साबित नहीं करते रहते हैं तो आपका कोई मूल्य नहीं है। आपके रहने या जाने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला होता है। समाज में ऐसे तमाम अस्तित्वों का अस्तित्व है, जो मुख्यधारा के श्रम से बाहर आ गये हैं क्योंकि बुजुर्ग हो गये हैं। लेकिन जो अपने छोटे प्रयासों से ही लंबे समय तक व्यवस्था को थामे रहते हैं। जिनका होना भी एक तरह की ऊर्जा देता है और हम उनके जरिए अपने सुदूर अतीत को छू रहे होते हैं। घर में, पड़ोस में, गांव में जब तक बुजुर्ग होते हैं, लगता है कि जीवन की गाड़ी खतरे से बाहर है। उनके जाते रहने से डर बढ़ता जाता है। मोह प्रबल होता जाता है। कंधे और भारी लगने लगते हैं। हृदय और ख़ाली होने लगता है। हमारे बुजुर्ग हमारे लिए अभयदान की तरह होते हैं, जिसे हम तब ही समझ पाते हैं, जब वे हमें छोड़कर चले जाते हैं।

दाई को श्रद्धांजलि

Monday, 26 August 2024

कृष्ण का धर्म

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् व्रज। 

सभी धर्मों को छोड़कर सिर्फ़ मेरी शरण में आओ। वह धर्म जो कृष्ण का है, वह उद्धारक नहीं है। वह एक ऐसा तरीक़ा है जिससे संसार मेंजीवन को जीया जाना चाहिए। एक मुस्कुराता हुआ प्रसन्नमना कृष्णमय जीवन। कृष्णत्व को धारण करने की धार्मिकता में ही सही मनुष्यताहै। धर्म, अध्यात्म, पूजा, उपासना की शरण में अपार दुखों के साथ जाने वाले श्रद्धालुओं के अनेक देवता स्वयं दुख की मूर्ति हैं। दुखों सेमोचन या मुक्ति के प्रलोभन से धर्मों की तमाम व्यवस्थाएँ चल रही हैं। इस संसार से मुक्ति। मानव जीवन से मुक्ति। दूसरे संसार के लियेमौजूदा संसार के उपभोगों में कटौती के प्रावधान। कृष्ण के धर्म में ये सब नहीं है। 

कृष्ण दुनिया के अकेले हर्षित-मुस्कुराते देवता हैं। उन पर चाहे जो कुछ भी गुज़रा हो, वह उस विशेष परिस्थिति के समाधान की सर्वश्रेष्ठतकनीक का प्रयोग करके आगे बढ़े हैं। उन्होंने दुनिया की परेशानियों से घबराकर दूसरी दुनिया के आश्रय का लालच अपने अनुयायियों कोनहीं दिया बल्कि परिणाम से अनासक्त होकर उनसे लड़ने का साहस दिया। “ततो युद्धाय युज्यस्व नैवम्पापमवाप्स्यसि।” ऐसा करने वाले को ही कृष्ण जैसी मुस्कान प्राप्त होती है। 

कृष्ण के यहाँ दमन की व्यवस्था नहीं है। वह शस्त्रधारियों में भी राम हैं। व्यर्थ धनुष नहीं चलाते। सभी प्रकार के शत्रु चाहे वह मन के शत्रु हों, तन के हों या जीवन के हों। किसी चीज का दमन कृष्ण का स्वभाव नहीं है। वह रिपेयरिंग के मास्टर हैं। इंद्र को नहीं तोड़ा। उनके अहंकार को तोड़ दिया। 

भारत के धर्मों के विषय में कहा गया कि जीवन के प्रति इनमें एक क्रूर क़िस्म का वियोग होता है। यहाँ जीवन नश्वर और त्याज्य है। त्यागमहान है और मोक्ष के द्वार की चाभी। लेकिन कृष्ण के धर्म में ऐसा नहीं है। यहाँ संयोग ही संयोग है। एक उच्च स्तर की अनासक्ति के साथ।तेन त्यक्तेन भुंजीथा की तरह। चाहे कृष्ण को कोई निर्मोही कहे लेकिन यह विशेषता ही जीवन को आसान बना सकती है। हम सब स्मृतियों के चक्रव्यूह में फँसे सुख-दुख का संतुलन बिगाड़े बैठे हैं। कृष्ण स्मृतिविहीन तो नहीं हैं लेकिन वह इनके प्रति आसक्त भी नहीं हैं। बुद्ध भी ऐसा ही कहते हैं। नाव से नदी पार करो। नाव लादकर घर के जाने का कोई औचित्य नहीं है। कृष्ण समय की गतिशीलता में न तो ठहरे हैं और न भागे हुए हैं। वह वर्तमान की तरह क्षण में लौ की भाँति चमकते हैं। वस्तुतः वह समय के सारथी लगते हैं और समस्त प्राणिजगत उनके रथ पर बैठा सवालों से भरा और उत्तर प्राप्त करता अर्जुन है। 

कृष्ण जीवन को पूर्णता में जीने का संदेश हैं। वह करणीय और अकरणीय की बाइनरी से मुक्त हैं। संसार में दुख और सुख दोनों हैं। दोनों कोसमान मानकर समत्व में जीने का सूत्र देने वाले योगेश्वर हैं। धर्मों और पंथों की दुखी सामाजिकता में, उदासीनतानिष्ठ उपासना में औरगंभीरता के आवरण से अफनाते गुरुओं की बेतहाशा भीड़ में कृष्ण अकेले अपनी विराट मुद्रा में मुस्कुराते नज़र आते हैं और यह हास्य उनकाआवरण नहीं है। यह उनकी स्थायी मुद्रा है क्योंकि वह जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करते हैं। नकार का संघर्ष कृष्ण के यहाँ नहीं है। राम की तरह आदर्शों के बंधन में उनका जीवन नहीं बंधा है। जीवन की ज़रूरतों को वह ऐसे पहचानते हैं कि उनके उपदेश पिता, माता, अग्रज और गुरु तक सुनते हैं जो राम के आदर्श व्यक्तित्व के विपरीत है, जहां माता-पिता गुरु और बड़े की आज्ञा ही सर्वोपरि है। कृष्ण राम का विस्तार हैं और अपने युग से युगों आगे की शख़्सियत हैं। 

Friday, 21 June 2024

कर्णाली प्रदेशः प्रकृति के अनगढ़ हीरे का 'एकांतवास'

नेपाल प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध देश है और उतना ही भ्रष्ट राजनीति का शिकार है। जहां सुमति तहाँ संपत्ति नाना तुलसी बाबा पहले ही कह गये थे। सरकारें वहाँ अस्थिर हैं। नेता धनपशु हैं। फ़ायदे के हिसाब से समर्थन बेचते हैं। बीस साल के लोकतंत्र में जनता समझ ही न सकी है कि राजा ठीक थे या ये नेता लोग। सुमति से संपत्ति बनाने की भरपूर संभावनाओं के बाद भी यह देश समृद्धि के विपरीत दौड़ रहा है। कितनी सारी ज़रूरत की चीजों के लिए विदेश पर निर्भर है। युवा देश में रहना नहीं चाहता। उसमें वह पहाड़ी साहस भी अनुपस्थित होता जा रहा है जो नेपाल के बहादुरों की पहचान थी। देश में मानव संसाधन का अकाल है। बिजली सड़क के जो प्रोजेक्ट्स बन रहे हैं, उनमें पैसे की लूट के अलावा कुछ नहीं होता। 

कर्णाली में सूर्यास्त

हमें 16 से 21 जून तक कर्णाली प्रदेश के पर्यटन मंत्रालय और फोटो पत्रकार महासंघ के बुलावे पर नेपाल जाने का अवसर मिला था। जिस कर्णाली राज्य में हम थे, वह नेपाल का सबसे पिछड़ा राज्य माना जाता है। प्रदेश बड़ा है और आबादी कम है। पर्वतीय इलाक़ा है। सुंदर तालों के अलावा प्रसिद्ध धार्मिक स्थल भी यहाँ मौजूद हैं। दुर्लभ जड़ी-बूटियों से आयुर्वेदिक औषधियों का हब बनने की दावेदारी भी है। गैस और तेल के भी कुछ भंडार परीक्षण के दौर में हैं। राज्य के मासी इलाक़े में उगाया जाने वाला यूनिक मासी चावल दुनिया भर में पौष्टिक आहारों की सूची में अग्रणी है। ऐसी तमाम विशेषताओं के बावजूद प्रदेश के पिछड़ेपन की कोई सीमा नहीं है। 200-300 किमी की दूरी तय करने में हमे दो दिन लगे। वह भी दिन भर चलने के बाद। सड़कें ध्वस्त हैं। रुकने की जगहें अत्यंत स्थानीय हैं। भोजन में विभिन्नता नहीं है। अनेक ज़िले बदले। इलाक़े बदले लेकिन थाली में भात-दाल, सब्ज़ी, साग और चटनी के अलावा कुछ नहीं मिला। यह टूरिस्ट फ्रेंडली व्यवहार नहीं है। यह सब तब है जब हम सरकारी बुलावे पर पर्यटन मंत्रालय और मीडियाकर्मियों की टीम के संरक्षण में वहाँ गए थे। हालाँकि मेजबानों ने अपनी क्षमता भर खूब कोशिश की। 

नेपाल के लोग प्यारे हैं। बेहद स्वागतपसंद व्यक्तित्व के लोग हैं। वह अपने सरकारों की व्यवस्था पर लज्जित भी हैं लेकिन मजबूर हैं। रारा ताल तक की यात्रा के तमाम नेपाली साथी बेहद सौम्य और सहयोगी थे। हम अव्यवस्थाओं को लेकर थोड़े कठोर रहे लेकिन उन लोगों ने कहीं अपनी सौम्यता नहीं खोई। वे हमेशा वेलकमिंग ही बने रहे और यथा संभव हमें सुविधा देने की कोशिश करते रहे। भारत से आये लोगों को लेकर उनके मन में अलग ही उत्साह था। मित्र देश से लोग आये हैं। पर्यटन मंत्री दुर्गा बहादुर राउतले ने कहा कि संकट के समय में लोग अपने मित्र को याद करते हैं इसलिए हमने आप लोगों को याद किया है।तमाम लोग ऐसे मिले जो भारत को लेकर ऐसी मित्रभावना रखते हैं जैसे वह उनका दूसरा घर हो। अधिकतर नेपाली हिन्दी अच्छी बोलते हैं और बेहतरीन समझते हैं। ऐसी स्थिति में थोड़ा लज्जित होना पड़ता है कि हमें नेपाली का कखग भी नहीं आता। हालांकि, नेपाली लोगों को हिंदी आने की वजहों में हिंदी सिनेमा प्रमुख है। वहां हिंदी फिल्में खूब देखी जाती हैं। हिंदी गाने सुने जाते हैं। कई नेपालियों को हिंदी गानों के लिरिक्स कंठस्थ थे। इसके अलावा नौकरी के लिए भारत प्रवास भी उन्हें हिंदी सिखा ही देता है।



कर्णाली में खान-पान

कर्णाली प्रदेश में भात-दाल और साग लोगों का मुख्य भोजन है। यहां रोटी मांग लेने पर भोजनालयों के बावर्ची चौंक जाते हैं। पूरे प्रदेश में हम जहां भी गए, वहां स्थानीय भोजनालयों में हमें भात-दाल, सब्जी, सलाद, साग के साथ भांग की चटनी परोसी गई। कहीं-कहीं पर थाली में दही भी जोड़ दिया गया। भारत में हम चाय के आदी हैं और दिन में कई बार चाय पीने से गुरेज नहीं करते लेकिन कर्णाली के लोग दिन में एक बार ही सुबह के समय चाय पीते हैं। वह चाय स्थानीय जड़ी-बूटियों से बनी होती है और ज्यादातर उसमें दूध नहीं डाला जाता। चाय की दुकानें तो यहां बेहद दुर्लभ हैं। 


भारतीय संस्कृति से संबंध

कर्णाली और भारतीय सनातन संस्कृति का संबंध पौराणिक काल से है। यहाँ ज्वाला देवी का मंदिर है, जहां निरंतर ज्योति जलती रहती है। तीन मंदिर हैं। एक में छोटी सी मद्धम लौ है। दो मंदिरों में ज्वाला दिये की बड़ी लौ के समान जलती है। इन ज्वालाओं के ऊपर मंदिर बनाये गये हैं। बताया जाता है कि शंकर ने जब कामदेव को भस्म किया था, उसके बाद उन्हें काफ़ी पछतावा हुआ। उन्होंने अपने तीसरे नेत्र की समस्त ज्वाला को एकत्रित कर यहीं फेंक दिया था। एक मान्यता सती को लेकर भी है। दक्ष के यज्ञकुंड में प्राण त्यागने के बाद मृत सती को लेकर शिव ने तांडव शुरू कर दिया था। इसे देखकर विष्णु के सती के भस्म को कई टुकड़ों में काट दिया। शरीर का जो अंग जहां गिरा, वहाँ शक्तिपीठ है। दैलेख में नाभिस्थान, शिरस्थान समेत पाँच स्थान ऐसे हैं जिन्हें पंचकोशी शक्तिपीठ के गिना जाता है। यहाँ पानी में भी ज्वाला के जलने की घटना लोगों को हैरत में डालती है। हालाँकि व्यापारिक दृष्टि ने इससे यहाँ गैस और तेल के भंडार होने का संकेत पाया है। नेपाल और चीन के सहयोग से मंदिर के निकट बड़ी बड़ी मशीनें लगाकर इस संभावना का परीक्षण किया जा रहा है। 




दधीचि की धरती- दैलेख

दैलेख के ही रहने वाले हमारे फ़ोटोग्राफ़र साथी विशाल सुनार ने इस शहर के बारे में दिलचस्प बातें बताईं। उन्होंने बताया कि यहाँ महर्षि दधीचि ने तपस्या की थी। इसलिए इसे दधीचिलेक कहा जाता था। यही बाद में बिगड़कर दैलेख हो गया। कई धार्मिक स्थान होने के नाते इसे देवलोक भी कहा जाता था। यह शब्द भी दैलेख नामकरण का मूल है। नेपाल के शक्तिशाली सिजा राज्य की शीतकालीन राजधानी के रूप में भी दैलेख की ख्याति है। यह सिजा राज्य भारत के कश्मीर, उत्तराखण्ड से लेकर नेपाल तक फैला हुआ था। इसी शहर में 900 साल पुराना एक युद्ध क़िला (अवशेष रूप में) भी है, जहां एक तोप रखी है। इसका नाम ही तोप सुंदरी है। विशाल बताते हैं कि यहाँ एक और तोप हुआ करती थी। दोनों दो दिशाओं में मुँह किए खड़े थे। अभी एक ही बची है जिसे पचास साल के बाद युद्ध क़िले में फिर से स्थापित किया जा सका है। 




कर्णाली के त्योहार 

सिजा राज्य के ही अंतर्गत कनका सुंदरी का प्राचीन मंदिर है। ऊँचे पहाड़ पर स्थित मंदिर के लिए लंबी चढ़ाई है जिसे देखकर वैष्णोदेवी मंदिर की याद आ जाती है। यह एक रमणीय स्थल है। शांत है। धार्मिक है और अखरोट तथा सेब के वृक्षों से घिरा हुआ हवादार मनोहर वातावरण बनाता है। यहाँ मंदिर के बाहर दो नेपाली मित्र मिले। एक का नाम राम सिंह था और दूसरे का सर्प सिंह। हमने पूछा कि सर्प सिंह नाम क्यों रखा तो वे हंसने लगे। दोनों धारा प्रवाह हिन्दी बोलते थे। पता चला कि वे भारत आते-जाते रहते हैं। वह इसी इलाक़े में किसी पर्वत पर मिलने वाले शिलाजीत का व्यापार करते हैं और इसी को बेचने के लिए वे इंडिया के विभिन्न शहरों में जाते हैं। राम सिंह ने भारत और नेपाल के त्योहारों में कैसी समानता है इस पर बात की। उन्होंने हमें बताया कि भाई दूज की तरह नेपाल में भाई टीकाकरण का त्योहार होता है। इसमें बहनें भाइयों को टीका लगाती हैं। इसके अलावा दीपावली पर लोग अपने क़ुलदेवता के दर्शन के लिए जाते हैं। इस दिन लोग घरों में दीये भी जलाते हैं। नवरात्र भी यहाँ मनाया जाता है। कृष्ण जन्माष्टमी और राम नवमी भी लोग खूब मनाते हैं। राम सिंह जब अपने गाँव में होते हैं तो यहाँ के स्कूल में नेपाली गणित भी पढ़ाते हैं। हिंदी अच्छी बोलते हैं क्योंकि काफी समय उन्होंने भारत में बिताया है।




कर्णाली की सड़केंः बड़ी चुनौती

नेपाल की इस यात्रा में सड़कें बड़ी चुनौती बनकर सामने आती रहीं। कर्णाली राज्य की राजधानी सुर्खेत है, जहां से हमने रारा ताल के लिये यात्रा शुरू की थी। नेपाल का फोटो पत्रकार महासंघ और पर्यटन मंत्रालय इस यात्रा के ज़िम्मेदार थे। पत्रकारों के साथ पर्यटन व्यवसायी भी हमारे साथ थे। 7 गाड़ियों में हम करीब 40 लोग रारा ताल के लिए रवाना हुए थे। विशाल ने हमें बताया कि कर्णाली नेपाल का सबसे पिछड़ा राज्य है। पहले राजशाही ने इसकी उपेक्षा की। अब केंद्र सरकार की भी नज़र इस राज्य के विकास पर नहीं है। सड़कें तो दुरुस्त नहीं ही हैं। इसके अलावा कई सारी परियोजनाएँ भी राज्य सरकार की भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं। उन्होंने इस इलाक़े में बढ़ रहे भूस्खलन को लेकर भी चिंता जतायी। कहा कि पहले ऐसा नहीं था। अब पहाड़ खूब सरक रहे हैं और ऐसा ही रहा तो यहाँ से लोगों का पलायन बढ़ेगा। विशाल पलायन को देश के विकास में बड़ा अवरोध मानते हैं। वह कहते हैं कि देश की युवा पीढ़ी नेपाल में नहीं रहना चाहती। वे लोग पैसे कमाने के लिए इंडिया या अन्य देशों में चले जाते हैं। कर्णाली वैसे भी विरल जनसंख्या वाला राज्य है। जब यहाँ लोग ही नहीं होंगे तो सड़कें किसके लिये बनें? हालांकि, राज्य में रोजगार के अवसर खोजना भी चुनौती है।



कर्ण से कर्णाली प्रदेश

कर्णाली प्रदेश का भारत के पौराणिक ग्रंथों से भी गहरा संबंध है। कहते हैं कि इसका नाम महाभारत के पात्र कर्ण से संबंधित है। विशाल बताते हैं कि कर्ण ने एक लाख पहाड़ जीते थे, जिसमें एक कर्णाली के पहाड़ भी थे। ऐसे में कर्ण का जीता हुआ कर्णाली प्रदेश- ऐसा इसका नाम हो गया। इसके अलावा कर्णाली नदी के नाम से भी इस प्रदेश को जाना जाता है। नेपाल के समस्त प्रदेश नदियों के नाम पर हैं। कर्णाली नदी की धारा की कर्ण-आकृति के कारण भी इसका यह नाम बताया जाता है। तीसरा जो कारण है वो यहाँ के आदिवासियों से जुड़ा है। कहते हैं कि यहाँ के मूल निवासी एक ख़ास प्रकार का वाद्ययंत्र बजाते थे। यह शहनाई की तरह का होता था। इसकी आकृति के कारण इसे कर्णाली कहा जाता था। यही बाद में प्रदेश का नाम भी हो गया। 




अस्पर्शित कर्णाली

कर्णाली प्रदेश कई पर्यटन स्थलों से भरा है। मंत्रालय के सचिव शेर बहादुर श्रेष्ठले कहते हैं कि कर्णाली का बड़ा हिस्सा ऐसा है जहां अभी तक कोई नहीं पहुँचा है। पर्वतीय सौंदर्य के ये अस्पर्शित इलाक़े प्रदेश के पर्यटन उद्योग के उत्कर्ष की चाभी हैं। उन्होंने सड़कों के निर्माण को लेकर आश्वासन भी दिया। अनुपम सुंदरता से विभूषित रारा ताल ही एकांतवास की सजा पाया लगता है। रारा ताल कर्णाली प्रदेश के पर्यटन की रीढ़ है। मुगु के पहाड़ों और छायादार जंगल के बीच के नीले पानी का यह ताल ऐसा मनोहर है कि इसे देखते-देखते आँखें न थकें। कहते हैं कि सूर्य की आसमान में स्थिति के मुताबिक़ यह ताल दिन में पाँच बार अपना रंग बदलता है। इसकी गहराई का कोई सटीक अंदाज़ा नहीं है। इसमें दुर्लभ क़िस्म की मछलियाँ पाई जाती हैं जिसे नेपाल सरकार ने संरक्षित प्रजाति घोषित कर रखा है। इन मछलियों को मारा नहीं जा सकता। इन्हीं की वजह से ताल में मोटर बोट चलाने की मनाही है। कुछ नावें चलती हैं जो दोपहर के बाद हवा की गति तेज होने पर संचालित नहीं होतीं। ऐसे में ताल के किनारे किनारे बने रास्तों पर ट्रेकिंग करते हुए पार जाया जा सकता है। यह पैदल यात्रा भी हो सकती है। या फिर खच्चर हायर किया जा सकता है जो वहाँ आसानी से उपलब्ध होते हैं। खच्चर के मालिक पर्यटकों का सामान अपनी पीठ पर लाद लेते हैं और खच्चर पर बिठाकर उन्हें ताल के पार पहुँच देते हैं।


रारा ताल का सौंदर्य

रारा ताल सौंदर्य में अनुपम है। नेपाल के लोग इसकी तुलना नैनीताल से करते हैं। सर्द मौसम और पहाड़ तथा जंगल के सुंदर नजारों से भरपूर इस इलाके को वे मिनी कश्मीर बताते हैं। वह यह बात भी मानते हैं कि रारा ताल तक पहुँचना आसान बात नहीं है। सुर्खेत से हम दो दिन के बाद ही यहां पहुँच पाये थे। हालाँकि हम बीच के तमाम पर्यटन स्थलों को देखते हुए आ रहे थे। फिर भी सुर्खेत से रारा पहुँचने में एक रात्रि विश्राम का फ़ासला रखना ही होगा। राह दुर्गम है और दूरी बहुत है। हमारी स्कॉर्पियो पथरीली सड़कों पर औसतन 20 से 25 किमी प्रति घंटा की रफ़्तार से चल रही थी। 




नेपाल के लोग यह भी स्वीकार करते हैं कि रारा ताल को अगर पर्यटन की ज़रूरतों के अनुसार विकसित किया जाये तो यह पूरे राज्य के विकास के लिए आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने ख़ज़ाना साबित हो सकता है। भारत के तमाम हिल स्टेशंस गर्मियों में लोगों से भर जाते हैं। नैनीताल से लेकर हिमाचल तक तिल रखने की भी जगह नहीं बचती। ऐसे में शांति पसंद लोगों के लिए ठंडे वातावरण और भीड़भाड़ रहित सुरम्य और शुद्ध प्राकृतिक वातावरण के विकल्प के रूप में रारा ताल का दावा हो सकता है। इसके लिए यहाँ हॉस्पिटैलिटी सेक्टर को पाँव जमाने होंगे। 



हॉस्पिटैलिटी की सीख

विशाल कहते हैं कि रारा के आसपास के लोगों को हॉस्पिटैलिटी सिखानी पड़ेगी। वे इससे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। यह बात हमने अपनी यात्रा के दौरान भी देखी। यात्रियों के ठहरने के लिए बने लॉज किसी पिछडे स्कूल के हॉस्टल जैसे हैं। यहाँ जनवासे की तरह ठहरने की व्यवस्था है जिसमें एक ही कमरे में कई लोगों का बिस्तर लगा है। शौचालय इत्यादि की व्यवस्था बदतर है। भोजन में पर्यटकों की चॉइस का कोई रोल नहीं है। पूरे सुर्खेत में स्टील के बर्तनों में भात-दाल के साथ सब्ज़ी, साग और भांग की चटनी परोसी जाती है। यह निश्चय ही लोगों को ऊबा देती है और उनके लिए भोजन स्वादहीन हो जाता है। 



कर्णाली की खेती

२१वीं सदी की दुनिया में कर्णाली प्रदेश बाक़ी देशों से पीछे का समय जी रहा है। यहाँ आज भी लोग रिचार्ज कार्ड स्क्रैच करके फ़ोन रिचार्ज करते हैं। सभी होटलों और भोजनालयों में वाईफ़ाई ज़रूर लगा है लेकिन बिजली कटौती तथा कमजोर नेट कनेक्शन से इस व्यवस्था का लाभ भी सीमित हो जाता है। राज्य के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में सड़कों पर गाड़ियाँ कम दिखती हैं। सुदूर इलाकों में दैनिक ज़रूरत की चीजें भी मुश्किल से मिलती हैं। कृषि और लघु व्यापार लोगों की आर्थिकी का मुख्य आधार है। खेती में यहाँ के लोग जौ और धान रोपते हैं। गेहूं की फसल 13 महीने में तैयार होती है। इसलिए जिनके पास ज़्यादा खेत होते हैं वही गेहूं बोने का रिस्क लेते हैं। प्रदेश के जुमला इलाक़े का ख़ास आलू बेहद प्रसिद्ध है। इसे कहीं भी और कैसे भी उगाया जा सकता है। इसके अलावा माशी नाम की जगह पर एक ख़ास तरह का भूरा चावल होता है जो काफ़ी पौष्टिक बताया जाता है। इसे माशी चावल के नाम से ही जाना जाता है। यह दुनिया में और कहीं भी नहीं उगता। काफ़ी महँगा बिकने वाले इस चावल के व्यापार में भी लोग राज्य का राजस्व बढ़ने की संभावना देखते हैं। 

नेपाल भारत मैत्री का नजारा

पाँच दिनों की हमारी ये यात्रा जितनी कठिन रही। यहाँ के लोग उतने ही सरल मिले। वे हमे देखकर पहचान जाते कि हम दूसरे देश से आये हैं। अपनी जगह के बारे में बताने के लिए हमे इंडिया या भारत नहीं कहना होता था। हम लखनऊ कहते थे और वे जान जाते थे कि लखनऊ कहाँ है? कनका सुंदरी गाऊँपालिका के अध्यक्ष दामोदर भण्डारीले तो लखनऊ के इलाक़ों के नाम भी जानते थे। उन्होंने हमसे पूछा कि लखनऊ में कहाँ रहते हैं- गोमतीनगर हज़रतगंज अमीनाबाद कहां? हम तो हैरान ही रह गये। हमने कहा कि आपको तो सब पता है तो वह हंसने लगे। बहुत कम हार्दिक स्वागत ऐसे होते हैं जिसमे हृदय दिखता है। नेपाल के लोगों के स्वागत में हृदय दिखता था। हर ज़िले में तमाम लोग स्वागत और सम्मान को तैयार रहते थे। लोगों की आत्मीयता ऐसी थी कि कुछ बातों को छोड़ दें तो खुद को यह याद दिलाना पड़ता था कि हम नेपाल में हैं और भारत के लोगों के बीच में नहीं हैं। 


नेपाली भाषा

नेपाली भाषा हिन्दी के काफ़ी समकक्ष है। तरकारी, नून और बिहान जैसे हमारे देशज शब्द नेपाली भाषा के भी शब्द हैं। हमारा आधिकारिक राष्ट्रीय संवत् नेपाल में लोगों के व्यवहार में है। तभी तो हमारी जून 2024 की यह यात्रा नेपाल में जेठ 2081 में भी चल रही थी। भाषा को लेकर नेपाल के लोग काफ़ी सजग हैं। कोरियन और जापानी सिखाने वाली संस्थाओं के उगते प्रभाव के बीच भी नेपाली का वर्चस्व गाड़ी के नंबरों से लेकर दुकानों और सरकारी काग़ज़ों तक में दिखता है। जब हम भारत के बरअक्स इसे देखते हैं तो यह मुझे इस देश में अंग्रेजों के न आने का प्रभाव लगता है। नेपाल के लोगों की भाषा और संस्कृति पर औपनिवेशिक छाप नहीं पड़ी। वह अपनी संस्कृति के अबाध प्रवाह की प्रक्रिया से अपने मौजूदा स्वरूप में वर्तमान है। अंग्रेजों के यहां न आने का एक प्रभाव यह भी है कि इस देश के सुंदर पहाड़ी इलाक़ों में हिल स्टेशंस वैसे विकसित नहीं हो पाए जैसे मसूरी, शिमला और डलहौज़ी जैसे भारतीय इलाक़ों में डेवलप हुए। नेपाल के शहरों से उसकी प्राचीन ग्राम्यता आज भी नत्थी है और यह कोई हीन या उपेक्षणीय बात नहीं है। बल्कि यह एक अवसर है कि नेपाल अपने ऐसे पर्यटन स्थलों को नेपाल स्टाइल में विकसित करे तथा देश और दुनिया में अलग और अद्वितीय क़िस्म की सज्जा का एक शानदार उदाहरण बन सके।


नोटः नेपाल के कर्णाली प्रदेश के पर्यटन मंत्रालय और फोटो पत्रकार महासंघ की ओर से उत्तर प्रदेश के कुछ पत्रकारों को नेपाल आमंत्रित किया गया था। 'गर्मी से बेहाल- चलो रारा ताल' नाम का यह अभियान 16 से 21 जून 2024 तक आयोजित हुआ, जिसका उद्देश्य प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से पड़ोसी देश के पत्रकारों का कर्णाली के अल्प प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों से परिचय कराना था।  

Monday, 6 February 2023

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक

बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबाद या फिर मुगलसराय से। डमरू वाले की सौगंध, बनारस यहीं और इसी तरह मिलेगा। बनारस पहुंचिए तो लगता भी है कि यह शहर अपने होने में कितना ज्यादा स्थायी है। कितना अलसाया हुआ और अपनी ही धुरी पर कितना ज्यादा धंसा हुआ कि अब इहां से कहूं न जाब। गंगा-वरुणा और असी नदी के किनारे उन्हीं की धार की तरह धीरे-धीरे बहते जीवन वाला, बाबा विश्वनाथ की तरह ध्यान की स्थायी मुद्रा में अपने होने के अभिमान के साथ यह बुजुर्ग शहर देखकर लगता भी है कि चाहे दुनिया के किसी कोने से चक्कर काटकर चले आओ। ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके लौटो या फिर अपने पुनर्जन्म की श्रृंखला की दो-तीन कड़ियां पार कर आओ, बनारस वहीं और उसी तरह मिलेगा।

बनारस की प्राचीनता ही उसकी खासियत है। वहां रहने वाले लोगों को उसकी प्राचीनता का ही गर्व है। मानव सभ्यता की सबसे प्राचीन धरोहर अगर कहीं संजोकर रखी गई है तो वह बनारस ही है। अगर सभ्यता ने नदियों के किनारे जीवन पाया तो बनारस आज भी जैसे नदियों के किनारे ही जीवंत है। घाटों के इस शहर में घर-बाहर हर जगह के लोग गंगा किनारे की सीढ़ियों पर खड़े होने के बाद ही कह पाते हैं कि बनारस आया। जैसे बनारस में होने का प्रमाण ही इन पत्थर की सीढ़ियों पर होना हो।

बनारस की यातायात व्यवस्था में अपनी दुर्गति पहले भी हो चुकी थी लेकिन इस बार श्रेयांश त्रिपाठी का आश्वासन था कि बनारस को लेकर आपकी धारणा बदलेंगे। मुझे भी लगा कि हो सकता है, मैं बनारस के लिए 'बाहरी' बनकर भी आया तो जिस तरह का बाहरी था वह बाकी शहरों के सापेक्ष रहा हो। बनारस के लिए खास तरह का बाहरी होना पड़ता हो। बनारस में प्रवेश के 'बाहरी' को बनारस के मिजाज को पहले समझ लेना चाहिए। यह सबको उसके अपने स्वभाव के साथ स्वीकार नहीं कर सकता है। मैंने सोचा कि हो सकता है कि बनारस के अपने लोगों के साथ अगर इसमें प्रवेश करूं तो शायद इसका लहजा थोड़ा बदले। थोड़ा स्नेहिल हो। यह शहर मेरे लिए थोड़ा नरम पड़े लेकिन बनारस तो बनारस है। बाबा की तरह बैरागी। अवढर। मेरी तो क्या ही धारणा बदलती, त्रिपाठी जी की ही धारणा अपने शहर को लेकर काफी बदल गई। उन्हें भी आभास हुआ कि इस शहर में मेहमानों की संख्या बढ़ रही है। काशी पर दबाव बढ़ रहा है। 

हालांकि, बनारस जाकर सबसे पहले तो यही सच समझ आया कि बनारस के लिए न तो कोई बाहरी है और न ही अंदरी। इसका बर्ताव सबसे साथ वही-वैसा रहता है। यह कभी आपके हिसाब से नहीं होगा बल्कि आपको अपनी धारा बदलनी पड़ेगी ताकि आप बनारस के हिसाब से बह सकें। नहीं कर पाए तो यहां से जाने के आपके फैसले का स्वागत भी करने में बनारस को कोई संकोच थोड़े है। शहर की संरचना ऐसी है कि यह शिव के पांव पर पांव रखकर ध्यान की मुद्रा की क्षेत्रफलीय आकृति से बाहर आने की इसकी कोई मंशा नहीं है। बहुत से सरकारी प्रयास जारी हैं लेकिन बनारस अंदर से इस बात से दुखी है कि उसकी संकरी गलियों पर व्यापारिक गलियारों का खतरा है। उसकी प्राचीनता पर आधुनिकता के आरोपण का संकट है। उसके ध्यान पर डंके के शोर का अतिक्रमण है। उसके लहजे की अनोखी बूंद के कृत्रिम और सजी-सजाई शिष्टता के सागर में मर्ज हो जाने का दबाव है।

बनारस फैलना नहीं चाहता। अपनी सघनता में यह पारे की तरह सिकुड़कर रहना चाहता है। गंगा से, बाबा से दूर होने की कोई इच्छा इसके मन में नहीं है। अपनी पुराणता से बाहर निकलने का कोई प्लान इसके पास नहीं है और न ही यह बनाना चाहता है। ऐसा लगता है कि शंकर के त्रिशूल पर टिके इस शहर के लोग सच में उसकी नोक से नोक भर भी इधर-उधर नहीं होना चाहते। यही कारण है कि बनारस का भूगोल ऐसा है कि शहर के किसी भी कोने से दूसरे कोने तक जाने में 6 से 7 किमी की दूरी का ही अंतर मिलता है। हालांकि, यह अंतर पार करना भी कार्तिकेय के पूरी दुनिया के चक्कर काट आने में लगे समय से कम में क्या ही हो सकता है।

फोटोः श्रेयांश

कदम-कदम पर खाने-पीने की दुकानों पर चाट-बताशे, कचौड़ी-सब्जी, मलइयो, लस्सी इत्यादि की भरमार है, जैसे यह शहर किसी को भी पल भर के लिए भी भूखा नहीं रहने देगा। जैसे, यह शहर अपने घर से ज्यादा गलियों-चौराहों और घाटों पर रहता है। जैसे, यह शहर हमेशा ही आतिथ्य की अपनी स्थायी हो चुकी जिम्मेदारी को अपनी नियति मान उसके लिए हर पल, हर क्षण समर्पित रहने का फैसला कर चुका है कि कोई भी मेहमान कहीं से भी किसी भी परिस्थिति में आए, बनारस उसके लिए पानी और नाश्ता लेकर हमेशा तैयार मिले।

"ठगों से ठगड़ी में 

संतों से सधुक्कड़ी में 

लोहे से पानी में 

अंग्रेजों से अंग्रेजी में 

पंडितों से संस्कृत में 

बौद्धों से पालि में 

पंडों से पंडई और गुंडों से गुंडई में 

और निवासियों से भोजपुरी में बतियाता हुआ 

यह बहुभाषाभाषी बनारस है"

(अष्टभुजा शुक्ल)

फोटोः श्रेयांश

कभी-कभी लगता है कि कबीरदास इतने निर्भीक होकर इतनी सारी बातें इसलिए ही कह पाए क्योंकि वह बनारस में रहे। निर्भीक होना बनारस की तासीर है। भाई, जो शहर ही बाबा के त्रिशूल पर टिका हो फिर उसके लिए किसका और काहे का भय बचता है। यहां लोग इसी बात के घमंड में हैं कि वह बनारस के हैं। बनारसी होने का घमंड तमाम सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक वर्ग विभाजन की सीमा से बाहर की चीज है। 

"गुरु से संबोधन करके 

किसी गाली पर ले जाकर पटकने वाले 

बनारस में सब सबके गुरु हैं" 

जिसे गंगा की अनुभवी धारा ने बहने का ज्ञान दिया हो, काशी विश्वनाथ की महाछाया ने जिसे सुरक्षाबोध दिया हो, महाश्मशान मणिकर्णिका की अनंतकाल से न बुझी चिताओं ने जिसे जीवन के अर्थ की सीख दी हो... उसका गुरु और कौन हो सकता है और वह किसका ही शिष्य हो सकता है, इसलिए सब एक-दूसरे के गुरु हैं। कोई चेला नहीं है। अस्सी की विविधरंगी संस्कृति इस देश के शेष हिस्से की संयुक्त संस्कृतियों से अलग दिखती है। इस तट पर परंपरा और आधुनिकता समभाव और समान अधिकार से संगम करते हैं। 

मणिकर्णिका पर श्रेयांश त्रिपाठी ने बताया कि हजारों साल हो गए लेकिन यहां चिताओं की आग कभी नहीं बुझी। जबसे मानव सभ्यता है, तबसे काशी है। जबसे काशी है, तबसे यह महाश्मशान है। यहां जली सबसे पहली चिता की आग से ही आज तक की चिताओं को आग मिलती आ रही है। अग्रिप्रवाह की यह अनंत यात्रा, यह निरंतरता और प्राचीनता क्षणभंगुर मानवता के इतिहास का सूत्रधार है। बिना इसकी गवाही के मनुष्यता अपनी आत्मकथा नहीं लिख पाएगी।

मणिकर्णिका घाट

गंगा की लहरों पर तिरती नाव और सामने मणिकर्णिका पर जलती चिताओं के आसपास एक घर है, जिस पर शेर की आकृति बनी है। श्रेयांश ने बताया कि यही डोमराजा का घर है। बनारस में दो ही राजा- एक काशी नरेश। दूसरे डोमराजा। डोमराजा की हैसियत इतनी कि राजा हरिश्चंद्र को खरीद लिया। परंपरा है कि डोमराजा के घर की रोटी आज भी चिता की आग से बनती है। बनारस में मृत्यु के भयावह सत्य से मानव जीवन की क्षणभंगुर छाया इस तरह से संवाद करती है। मणिकर्णिका पर जलती चिताओं की समूची अग्नि में भी इतनी ऊष्मा नहीं कि किसी की भी आंख में भावुकता के जल को भाप बना सके। किसी को रुला सके। यहां शव ढोता एक भी व्यक्ति रोता नहीं दिखा। यह भी अपने आप में अचंभित करने की बात रही। 

अपनी स्मृति के हवाले से ऐश्वर्य भइया ने कहा कि मणिकर्णिका जाने पर एक मनुष्य होने का असली वजन समझ में आता है। फिर लगता है कि संसार का सारा संघर्ष कैसा व्यर्थ है और हम कैसी निरर्थक लड़ाई में क्या-क्या कर डालने में बिजी हैं। जगत चबैना काल का। कछु मुख में कछु गोद। समय के स्थिर और अनंत पाटों के बीच असंख्य मानव-जीवन की धारा बह गई और असंख्य जीवनधारा बह जाएगी। समग्रता में देखें तो हम शायद एक बूंद भर की भी हैसियत में नहीं हैं। हमारी अनंत आकांक्षाओं,आशाओं, लोभ, प्रेम, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या और दिन-ब-दिन बढ़ते अमरताबोध के मन से बने इस विराटकाय अस्तित्व की परिणति एक मुट्ठी राख हो जाने में ही है। मणिकर्णिका जाकर अपना पूरा अस्तित्व ही किसी धुएं सा लगने लगता है, जिसे कुछ समय बाद हवा में ऐसे विलीन हो जाना है, जैसे पहले कभी था ही नहीं।

बनारस के जीवन पर मणिकर्णिका की गहरी छाप है। वहां के साधु-संतों में भी जीवन के प्रति एक रोष रहता है या शायद एक आतिथ्यभाव कि जैसे पल भर के लिए बनारस में सैलानी आते हैं, वैसे ही आत्मा में पल भर के लिए देह का यह अस्तित्व है। पर्यटकों की तरह देह को भी क्षिति-जल-पावक-गगन और समीर में वापस लौटना है। वह जीवन के साथ एक प्रवासी की तरह बर्ताव भी करते हैं। उनके लिए आत्मा बनारस है, जहां देह मुक्ति पाने के लिए, पर्यटन के लिए या फिर गंगा स्नान के लिए चली आती है।

"बनारस में बनारसी बाघ हैं 

बनारसी माघ हैं 

बनारसी घाघ हैं 

बनारसी जगन्नाथ हैं शैव हैं, वैष्णव हैं, 

सिद्ध हैं, बौद्ध कबीरपंथी, नाथ हैं 

जगह-जगह लगती हैं यहाँ लोक-अदालतें 

कहने को तो कचहरी भी है बनारस में 

लेकिन यहाँ सबकी गवाह गंगा 

और न्यायाधीश विश्वनाथ हैं"

Saturday, 1 October 2022

गांधी होने के अर्थ

गांधी मनुष्यता के शब्दकोश नहीं हैं। व्याकरण हैं। उनके जीवन के आचरण-शब्दों को शब्दशः उतारकर कोई गांधी नहीं बन सकता। इसके लिए गांधीत्व के मूल में जाना होगा। जहां सत्य, ईमानदारी अपनी पर्वतशील दृढ़ता के साथ मौजूद है। गांधी की नकल करके गांधी बनना बहुत मुश्किल है। उन्हें समझकर यह आसान हो जाना है। यह असंभव कभी नहीं है।

गांधी साधारण मानुषों से इसलिए अलग हो पाए क्योंकि वह कबीरदास की तरह अपना भूत साथ लेकर नहीं चले। वर्तमान को परिस्थितियों की मिट्टी से गढ़ा। नाव से नदी पार की और नाव पीठ पर ढोकर नहीं चले। सत्य, अहिंसा, करुणा, समानता के आधार पर खुद को बदलते रहे। इन्हीं जीवनमूल्यों से उन्होंने समाज में, अध्यात्म में, राजनीति में, अर्थव्यवस्था में, दर्शन में मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने वाले हर विभाग में अपने आदर्श तय किये, अपना सिद्धांत बनाया। बोले कि अगर मैं हर क्षण अपने प्रति ईमानदार हूँ तो मेरे कार्यों में किसी भी अनिरंतरता से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। 

गांधी उन चुनिंदा लोगों में से थे, जो अपनी प्रसिद्धि के कारणों से प्रभावित हुए बिना अपनी राह तय करते थे। कई बार वह उनके प्रति लोगों की उम्मीद को बेतरह चौंकाते। असहयोग का स्थगन एक उदाहरण है ही। गांधी कभी-कभी कृष्ण, बुद्ध और ईसामसीह के मिश्रण लगते हैं। इसलिए वह गीता को व्यवहार में समझ पाए। निष्काम कर्म के अर्थ को व्यवहार में उद्घाटित किया, जो कहता है कि कर्म वह काम है जो परिस्थिति हमारे लिए आवश्यक बनाती है। वह नहीं जो हम अपनी इच्छा से करते हैं। वह समस्याओं (दुखों) के मूल पर चोट करने की कला सीख पाए। समस्या का सत्य समझा। फिर उसका निवारण। निवारण के भी क्या उपाय हैं, वह स्पष्ट तौर पर सामने रखा। वह करुणा से ओतप्रोत होकर जनजीवन के कष्टों के जंगल में उनके साथ प्रविष्ट हुए। उनके साथ लड़े। अपनी गलतियों का, अपने अनुयायियों की भूलों का खुद प्रायश्चित करने का साहस किया। वह जो कहते, वह उनके जीवन में उतरता दिखता था। तभी लोग उनमें आस्था रखने लगे। भरोसा रखने लगे। 

गांधी की आत्मशक्ति ऐसी सशक्त रही कि दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को चलाने वाले लोग भी डरते रहे। महात्मा के आंदोलनों को बोल्शेविक तथा दुनिया के अन्य क्रांतियों के मुकाबले ज्यादा खतरनाक बताया। अमेरिकी अखबारों ने उन्हें एशिया का नया प्रकाश पुंज बताया। उनकी धार्मिकता भी तनिक भी विभाजनकारी नहीं थी। वह कहते कि किसी भी धर्म की मूल प्रार्थना यह हो सकती है कि सभी अपने-अपने धर्मों के प्रति निष्ठावान बनें। यह नहीं कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है और सभी को हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई हो जाना चाहिए। यही वजह थी कि सभी धर्मों के कट्टरपंथी उनसे चिढ़ते रहे। जो सच्चे धार्मिक थे, वो गांधी में अपने आराध्यों के सच्चे पैगम्बर और शांतिदूत का दर्शन करते थे। किसी भी धार्मिक ग्रंथ या धर्म की मुल्लों, पंडितों द्वारा घोषित व्याख्या को अंतिम नहीं मानते थे।

महात्मा का लक्ष्य केवल स्वराज नहीं था। वह थजीवन का उत्थान और मनुष्य का अपने जीवन पर सुराज भी था। अहिंसा, सत्य, समानता, प्रेम की कृषि। यही चीजें थीं, जिनसे दुनिया बेहतर बन सकती थी। मनुष्यता के विकास का पथ यही था। इन्हीं प्रकाशों के जलस्रोत थे बापू, जिनमें अंधेरों से पराजित हर मनुष्य आज भी अपनी अंधेरी आंखें धोने की कोशिश करता है।

Thursday, 12 May 2022

आजकल-1

आजकल ऐसे कई मुद्दे भारतीय मीडिया में चर्चा हैं, जिनसे सांप्रदायिकता की गंध आती ही है। कल यानी कि 12 मई 2022 को ज्ञानवापी मामले में कोर्ट ने मस्जिद के सर्वे मामले में अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की अपील खारिज कर दी और कोर्ट कमिश्नर अजय मिश्रा को बदलने से इनकार कर दिया। उन्होंने दो और कोर्ट कमिश्नर भी नियुक्त कर दिए। विशाल कुमार सिंह भी एडवोकेट हैं, जो कमिश्नर बनाए गए हैं। इसके अलावा अजय सिंह को असिस्टैंट कमिश्नर बनाया गया है। कोर्ट ने अपने आदेश में पूरी ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का सर्वे कराने को कहा है। इसमें तहखाना भी शामिल है। इस दौरान वीडियोग्राफी भी कराई जाएगी। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार और प्रशासन को आदेश दिए हैं कि इस कार्रवाई को पूरा कराया जाए और जो भी लोग इसमें व्यवधान डालेंगे, उनपर कार्रवाई की जाए।

दूसरा मुद्दा ताजमहल को लेकर था। ताजमहल के 22 कमरों को खोलने की याचिका पर सुनवाई जस्टिस डीके उपाध्याय और जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बेंच सुनवाई कर रही थी। हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा कि आप मानते हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनाया है? क्या हम यहां कोई फैसला सुनाने आए हैं? जैसे कि इसे किसने बनवाया या ताजमहल की उम्र क्या है? हाई कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि आपको जिस टॉपिक के बारे में पता नहीं है, उस पर रिसर्च कीजिए, जाइए एमए कीजिए, पीएचडी कीजिए, अगर आपको कोई संस्थान रिसर्च नहीं करने देता है तो हमारे पास आइए।

दोनों को मुद्दों को ऊपरी तौर पर देखें, तो दोनों ही इस्लाम विरोधी नजर आते हैं। दोनों ही मामले कल पूरे दिन टीवी चैनलों पर चलते रहे। बिना इसकी परवाह किए कि इनको बार-बार दिखाना भारतीय जनता के मानस पर धार्मिक सद्भाव को लेकर कैसा प्रभाव डालेगा? ऐसे ही आज की मीडिया कवरेज में एक कश्मीरी पंडित की हत्या प्रमुख विषय है। टीवी चैनलों ने मृतक राहुल भट्ट के पिता के हवाले से दावा किया है कि हत्या करने से पहले आतंकवादियों ने राहुल भट्ट से उनका नाम पूछा। वह ऑफिस में थे और नाम कन्फर्म हो जाने पर उन्हें गोली मार दी गई। राहुल बडगाम में राजस्व अधिकारी के पद पर तैनात थे। टीवी चैनल पर कश्मीरी पंडित की हत्या शीर्षक से लगातार इसकी कवरेज की जा रही है। 

कुछ दिन पहले कश्मीरी पंडितों को लेकर विवेक अग्निहोत्री की एक फिल्म भी आई थी। फिल्म को एक खास मजहब के लोगों के खिलाफ नफरत फैलाने वाला बताया गया था। फिल्म पर कश्मीर की अधूरी कहानी बताते हुए प्रोपोगेंडा फैलाने के भी आरोप लगे। पूरे देश में इस अधूरे सत्य वाली फिल्म देखने के बाद एक खास वर्ग के लोगों के प्रति नफरत की झलक देखने को मिली थी। इस फिल्म को देखने के बाद लोगों को रवांडा नरसंहार अनायास ही याद आने लगा था। कश्मीरी पंडित की हत्या या कश्मीर में किसी की भी हत्या एक प्रशासनिक विफलता की घटना है। सरकार दावे करती है कि कश्मीर से उसने आतंकवाद खत्म कर दिया है और वहां जनजीवन सामान्य हो गया है लेकिन फिर भी कश्मीरी पंडित की हत्या हो जाती है। 

टीवी चैनलों पर इसकी कवरेज देखकर लगता है कि किसी बड़े जनसमूह को भड़काने की कोशिश की जा रही है। हालांकि, आप इसे प्रमाणित नहीं कर सकते लेकिन संवेदनशील मन के साथ देखेंगे तो महसूस करेंगे कि इस खबर की कवरेज में संवेदनशीलता जीरो है। खैर, इस घटना में एक डिवेलपमेंट ये भी है कि पीडीपी चीफ महबूबा मुफ्ती राहुल भट्ट के घर जाना चाहती थीं। परिवार से मिलना चाहती थीं लेकिन प्रशासन ने उन्हें नजरबंद कर दिया है। 

Sunday, 10 April 2022

शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ


राम कलियुग में क्रोध के पृष्ठसंगीत के साथ आते हैं। एक वीररस का कृत्रिम और अनावश्यक शोर लेकर श्रीराम का जयघोष होता है। तस्वीरों में राम क्रोध में दिखाए जा रहे हैं। तीर तना हुआ है। जाने किस पर तना हुआ है। राम का धनुष व्यर्थ नहीं तनता। दो बार ऐसा हुआ, जब युद्ध जैसी परिस्थिति नहीं थी और राम की प्रत्यंचा तन गई थी। पहली बार परशुराम ने राम के भगवान होने का परीक्षण करने के लिए उन्हें एक धनुष दिया। बोला, इस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर दिखाओ। राम ने चढ़ा दिया। तीर तान दिया और परशुराम से बोले, बताइए। किस पर चलाना है। तान दिया है तो क्षत्रिय होने के नाते धनुष से बाण नहीं उतार सकता। इसे किस पर छोड़ूं। आपके तप से प्राप्त मनगति गामी सिद्धि पर या फिर आपके जीवन के समस्त पुण्यों पर? परशुराम ने दूसरा विकल्प चुना। उनके आग्रह पर राम ने तीर दक्षिण दिशा में छोड़ दिया। दूसरा मौका, समुद्र से राह मांगते समय की है। तब भी राम ने तीर तान दिया था। बाद में समुद्र के आग्रह पर उन्होंने उसे मेरू पर्वत की ओर छोड़ा। 

राम व्यर्थ धनुष तानते ही नहीं हैं लेकिन आधुनिक रामभक्तों को बाण का संधान किए राम ही भाते हैं। क्रोधी राम ही पसंद आते हैं। उनके सौम्य चेहरे पर कठोर क्रोध की छाया आधुनिक राम का चित्र है, जबकि राम ऐसे हैं ही नहीं। राम कैसे हैं? राम को कैसे याद किया जा रहा है? रावण का वध करने वाले राम। तड़का, खर-दूषण और कुम्भकर्ण का वध करने वाले राम! क्या राम इतने ही हैं? 

द्वापर में दुनिया के सबसे बड़े धनुर्धर को गीतोपदेश देते कृष्ण कहते हैं कि शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ। क्या शस्त्र और राम का संयोजन ही सही 'रामत्व' है? क्या राम को इसीलिए याद किया जाए? क्या राम के अलावा किसी ने अन्याय के खिलाफ युद्ध नहीं जीता? क्या किसी ने राक्षसों का संहार नहीं किया? अगर किया तो राम में विशेष क्या है? राम को अलग से क्यों याद रखा जाए? राम से महान त्याग भी हुए हैं? परशुराम ने ही पूरी पृथ्वी गुरु को दान कर दी थी। दधीचि ने तो प्राण दान ही दे दिया था। प्राण छोड़ देने से भी बड़ा दान कुछ हो सकता है क्या? राज्य छोड़ना उसके आगे कहाँ ठहरता है? फिर राम महान क्यों हुए? भगवान क्यों हुए? कृष्ण ने क्यों कहा कि शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ?

"संत हृदय नवनीत समाना"

संतों का हृदय मक्खन की तरह मुलायम होता है। संतों के हृदय में राम रहते हैं। राम की शारीरिक कोमलता को तुलसीदास ने मक्खन से भी श्रेष्ठ बताया है। ऐसा कोमलांग सूर्यवंशी और कृष्ण कहते हैं कि शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ। राम के हाथ मे शस्त्र होने के मायने क्या हैं?

तीन दिवस तक पन्थ मांगते रघुपति सिंधु किनारे

राम के पास ऐसा शस्त्र है कि पल भर में पूरा समुद्र सुखा दें। दो मिनट में सेना के लिए रास्ता बन जाता। फिर भी राम समुद्र से प्रार्थना करते हैं। तीन दिन तक प्रार्थना करते हैं कि हमे रास्ता दो। समुद्र का कोई उत्तर नहीं मिलता। 

"बोले राम सकोप तब, भय बिन होई न प्रीति"

इसके बाद कहते हैं कि भय के बिना प्रीति नहीं है। तब शस्त्र उठाते हैं। राम के शस्त्र उठाने में अधीरता नहीं है। तभी समुद्र के पास अपनी बात रखने की गुंजाइश बचती है। राम का शस्त्र चलता भी है तो पर्वत के अहंकार पर। अहंकार के पर्वत को खंड-खंड कर राम समन्वय और सामंजस्य का पुल बनवाते हैं। 


रावण से युद्ध से पहले अंगद को भेजते हैं कि उसे समझाओ कि युद्ध कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ विनाश का रास्ता है। लाखों लोग मारे जाएंगे। रावण नहीं मानता। राम के पास ऐसे-ऐसे दिव्यास्त्र थे, जिनका मुकाबला तीन लोक में कोई नहीं कर सकता था। राम फिर भी शांति चाहते थे। राम फिर भी करुणा करते हैं कि रावण को बोलो, युद्ध मे लंका की प्रजा को बहुत नुकसान होगा। मैं क्षमा करने को तैयार हूँ। रावण नहीं मानता। तब युद्ध होता है।

प्रजा संग है। उत्तराधिकार का ऐलान हो चुका है। राजा बनने वाले हैं राम कि अचानक आदेश आता है कि जंगल जाना है। कैकेयी के वर दशरथ की राजाज्ञा बन गए हैं। दशरथ चाहते हैं कि राम विद्रोह कर दें। उनसे बगावत कर राज्य छीन लें और राजा बन जाएं। उनका प्रण भी रह जाए। राम अधिकार से भी वंचित न रहें लेकिन राम क्या करते हैं? राम को राज्य का लोभ नहीं। छोटा भाई राजा बनेगा, इसी से प्रसन्न। वन जाने को तैयार हो जाते हैं। युवराजों के इतिहास के प्रतिकूल विद्रोह का ख्याल तक राम को नहीं आता जबकि वह शस्त्रधर हैं।

धनुष है, फिर भी राम शांति का विकल्प खोजते हैं। क्षमा का रास्ता चुनते हैं। राम के शरीर पर शस्त्र है, फिर भी वह लोगों को आतंकित नहीं करता। वह हर किसी को सुरक्षा देता है। शस्त्र का यह सन्तभाव सिर्फ राम के यहाँ सुलभ है। कृष्ण इसीलिए शस्त्रधारियों में राम हैं क्योंकि दुनिया के असंख्य शस्त्रधारियों में सिर्फ राम हैं, जिन्हें पता है कि शस्त्र की मर्यादा क्या है? जिन्हें पता है कि वीरता, शौर्य और बाहुबल क्रूरता, बर्बरता और अधिनायकवाद के पूर्वज हैं। वीरता से बर्बरता आएगी ही आएगी। करुणा मौलिक चीज है। दया, क्षमा, प्रेम मौलिक चीज है। 

राम के जीवन में करुणा, प्रेम, दया और क्षमा ही मुख्य है। युद्ध लड़ना, जीतना राम के जीवन की त्रासदी है। राम मूलतः प्रेम करने वाले पुरुष हैं। क्रोधी नहीं हैं। आतंकित करने का नाम नहीं हैं। कल्याणकारी हैं, विध्वंसक नहीं हैं। इसलिए जिन्हें राम के क्रोधी मूर्तियों या तस्वीरों से श्रद्धा है, वो गलत राम को पूज रहे हैं। जिन्हें 'जय श्रीराम' वर्चस्व और दबदबे का विजयनाद लगता है, उन्होंने गलत रामायण पढ़ ली है। राम को जो सही से जानेगा, वह कभी नफरत का कारोबार नहीं कर पाएगा। 

रामनवमी शुभ हो.