Tuesday, 7 February 2017

कविताः कोई तो शिकायत रही

नहीं जोड़कर के मोहब्बत के तिनके,
कभी नीड़ मैत्री का हम बुन सके थे।
कहाँ किस फ़लक़ पर हमारा दिवाकर-
उगेगा,न वो आसमां चुन सके थे।
क्यों बढ़ती गयी दूरियां दो दिलों की,
क्यों बढ़ते गए फासले ज़िन्दगी से।
कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो,
न हम कह सके थे,न तुम सुन सके थे।

न कोई गलतियां,न तो कोई झगड़े,
न तुम रूठ पाये,न हमने मनाया।
हमारी मोहब्बत में दिल पिस रहा था,
जो तेरी-मेरी ज़िद की ज़द में था आया।
उधर तुम तड़पते,इधर हम मचलते,
न सो पाते तुम,हम भी करवट बदलते।
बहुत बातें मन में हैं कहने को तुमसे,
मगर पहले तुम कुछ कहो,हम भी कहते।
यही जंग अपनी अना की या ज़िद की,
हमारी मोहब्बत की दुश्मन बनी है।
तुम्हारे अधर की ये हड़ताल अब तो,
हमारे भी होठों का अनशन बनी है।
हुआ ज़िन्दगी का है तख़्तापलट यूं,
तुम्हे हार बस अपना सर धुन सके थे।
कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो,
न हम कह सके थे,न तुम सुन सके थे।

न जाने दिलों पर रखा भार कितना,
जो हम रोज मजबूर हो ढो रहे हैं।
अजब हाल अपना बना आजकल यूं,
न तो हंस रहे हैं न ही रो रहे हैं।
अजब सी बेचैनी,अजब सी बेहोशी।
न जाने क्या अपराध,है कौन दोषी!
न जाने कहाँ तक है विस्तार इसका
जो पीड़ा हृदय में बसी दानवों सी।
न हो संग तुम तो लगे विश्व खाली,
तुम्हारे सहित ही है गर विश्व,तो है।
न जाने कहाँ-कौन रोके खड़ा है,
ह्रदय-जीत के यज्ञ का अश्व जो है।
रिश्ते बरफ हो गए यूं कि अपनी
उपेक्षा से भी हम न जल-भुन सके थे।
कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो
न तुम कह सके थे,न हम सुन सके थे।

है बढ़ती चली जा रही पीर प्रतिदिन,
ये इक दिन का हो मर्ज तो झेल लेते।
ये पल-पल के घुटने से बेहतर था कोई
मरण का हो गर खेल तो खेल लेते।
न मिलता है यादों को विश्राम पलभर,
न दिनभर,न शब भर,न संध्या,न क्षण भर।
न जाने कहाँ खो गये ख्वाब सारे,
न जाने कहाँ खो गयी हसरतें सब।
थे गिरते रहे हौसले,ध्येय,उम्मीद
कट-कट समय की कृपाणों से रण भर।
न आँखों में सपने,न दिल में थी उम्मीद।
न चैनो अमन दिल में,आँखे भी बे-नींद।
था पल-पल मरण ज़िन्दगी का चरण पर,
ज़हर थी दवा,ना ज़हर चुन सके थे।

कोई तो शिकायत रही दरमियाँ जो
न तुम कह सके थे,न हम सुन सके थे।
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राघवेंद्र शुक्ल

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