पिछले कुछ सालों में देश में दलित-विमर्श कुछ एक अप्रिय घटनाओं का दामन थामें देश की मीडिया की दहलीज तक पहुंचा था और अब तो यह राष्ट्रीय बहस का प्रमुख केंद्र इसलिए बन गया है क्योंकि गणतंत्र के सबसे बड़े सिंहासन के लिए होने वाली लड़ाई में आमने-सामने की सेना का नायक इसी समुदाय से सम्बन्ध रखता है। राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की ओर से भाजपा अध्यक्ष के रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा 'दलित उम्मीदवार' को रेखांकित करते हुए करने के बाद विपक्ष खेमे में माकूल जवाब देने को लेकर मची हलचल ने जो परिणाम दिया है, उसने इस लड़ाई को पूर्व निश्चित परिणाम को प्रभावित किये बिना भी रोचक बना दिया है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार यूपीए समर्थित राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार हैं। बिहार से हैं और दलित भी हैं। मीरा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के उप प्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं और बिहार के सासाराम से दो बार सांसद भी रह चुकी हैं। सत्ता पक्ष से डैमेज कंट्रोल के तहत उतारे गये उम्मीदवार रामनाथ कोविंद से मुकाबले के लिए उन्हें मैदान में उतारा गया है। 'दलित उत्थान' और 'दलित समर्थक' होने का राष्ट्रव्यापी सन्देश-शंखनाद करने वाले सत्ता पक्ष का दलितों को लेकर क्या रवैया अब तक रहा है, राष्ट्र को इस पर भी थोड़ा बहुत गौर अवश्य करना चाहिए।
आंध्र प्रदेश के हैदराबाद विश्वविद्यालय में कुछ मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे 5 छात्रों का एबीवीपी के छात्रों से हाथापाई होने के बाद केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस घटना के बाबत तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखकर इस मामले पर कार्रवाई करने का निवेदन किया जिसके बाद विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर ने 5 छात्रों को हॉस्टल से ससपेंड कर दिया और उनकी फ़ेलोशिप भी बन्द कर दी। इसके विरोध में पांचों छात्रों ने विश्वविद्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। घटना राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में तब आई जब उन पांच छात्रों में से एक छात्र रोहित वेमुला ने एक खत लिखकर आत्महत्या कर ली। वेमुला दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिसके कारण विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकर को घेरने की भरपूर कोशिश की।
कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री के मॉडल स्टेट गुजरात के ऊना से एक हैरान कर देने वाली घटना की खबर आयी। इस घटना का जो वीडियो सामने आया था वो काफी भयानक था। मृत गाय के चमड़े उतारने को लेकर कुछ तथाकथित गौरक्षकों के दलित समुदाय के कुछ लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटते हुए दृश्यों वाली इस वीडियो ने सरकारी 'दलित प्रेम' के आडम्बर की पोल खोलकर रख दी। गोरक्षा के नाम पर दलितों के साथ हुए इस अत्याचार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते हुए कई लोगों ने आत्महत्या तक करने की कोशिश की थी ताकि सरकार के बाहर कानों तक अपनी पीड़ा पहुंचा सकें। इस घटना के बाद सरकार निशाने पर तो आई, लेकिन विपक्ष का निशाना हर बार की तरह इस बार भी चूक गया। प्रधानमंत्री ने अलबत्ता एक सभा में बोलते हुए गर्जना की थी कि मेरे दलित भाइयों को मारना बन्द करो, और अगर वार करना ही है तो मुझ पर वार करो। हालाँकि उनकी इस बात को उनके समर्थकों ने इतनी गम्भीरता से नहीं लिया।
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्ती को लगाने को लेकर हुए विवाद में कई दलित प्रदर्शनकारियों पर गम्भीर धाराओं में मुकदमें दायर किये गए। जिसके विरोध में भीम सेना नाम के संगठन के लोग अपने नेता चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर लामबंद हुए। आज़ाद बाद में गिरफ्तार कर लिए गए। दलितों की तथाकथित महाहितैषी सरकार ने मामले को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत नहीं समझी। अखबारों और न्यूज़ वेबसाइटों ने ऐसे कई मसले छोटे छोटे कॉलमों के माध्यम से प्रकाशित किया लेकिन इन मसलों में दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ काम करना भारतीय राजनीति में दलित प्रेम, दलित उत्थान, दलित समर्थन की परिभाषाओं में नहीं आता। दलितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए सरकार को किसी दलित नेता को ढूंढना पड़ता है जिसे वो राष्ट्रपति बनाकर उन सभी लोगों का मुंह बंद कर सके जो उपर्युक्त घटना को लेकर सरकार को घेरने की फ़िराक़ में हों।
विपक्ष ने इस मामले में हालाँकि बहुत देर कर दी। मोदी सरकार के आने के बाद विपक्ष जितना लाचार हो गया है शायद ही भारतीय राजनीति में आज से पहले गैर-सत्तापक्ष कभी इतना बेचारा रहा हो। कांग्रेस विपक्ष का अगुआ होकर एकजुटता की पहल कर सकती थी और सत्ता के खिलाफ एक ऐसा सर्वमान्य उम्मीदवार उतारकर विपक्ष की शक्ति का आभास सरकार को करवा सकती थी लेकिन वो ऐसा कर पाने में हर बार की तरह असफल रही और इस दीवार में फिर से सेंध लग गयी। हर बार ऐसा देखने को मिलता है कि विपक्षी पार्टियां जब भी एक छत के नीचे आने का प्रयास करती हैं किसी न किसी राजनेता का राजनीतिक स्वाभिमान या फिर उसकी राजनैतिक महत्वकांक्षा पूरे मंसूबे को तहस-नहस कर देती है। इस बार भी वही हुआ। जो नितीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के सबसे ज्यादा योग्य माने जा रहे थे उन्होंने सबसे पहले पाला बदल लिया और तभी जब विपक्ष ने अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा था, उनहोंने एनडीए उम्मीदवार कोविंद के समर्थन की घोषणा कर दी। काफी दिन सोचने के बाद कांग्रेस ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार को कोविंद के खिलाफ उतरने का फैसला किया। एक योग्य उम्मीदवार होने के बावजूद भी उनकी हार तो लगभग तय है, लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने राजनैतिक खेमे के कई बयानवीरों को शायद असमंजस में डाल दिया है। विपक्षी हलकों में कुछ समय तक भारत में हरित क्रांति के नायक एमएस स्वामीनाथन को उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर अटकलें थीं जो शायद सरकार के उम्मीदवार के लिए बेहतर चुनौती के रूप में उभरकर आते। सत्ता पक्ष के दलित कार्ड के मुकाबले में किसानी से सम्बंधित व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से विपक्ष को कम से कम मनोवैज्ञानिक बढ़त तो मिल ही जाती।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कोविंद का नाम प्रस्तावित करते हुए दलित हितैषी होने के दम्भ से भरे जा रहे थे और अपने चयन पर इतराते हुए उनकी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के मामले को नज़रअंदाज़ करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। कोविंद के दलित होने के कारण विपक्ष खुलकर इसका विरोध करने से भी डर रहा था कि कहीं तीन साल से 'गद्दार' 'राष्ट्रद्रोही' की उपाधि पाते पाते कहीं दलित विरोधी होने का तमगा भी न मिल जाए। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के उस बयान को याद करिये जिसमें उन्होंने कहा था कि जो कोई भी कोविंद का समर्थन नहीं करता वो दलित विरोधी है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि कोई रिपोर्टर पासवान जी से पूछे कि अब आप क्या करेंगे? कोविंद को वोट देकर महिला कम दलित विरोधी होना मंजूर करेंगे या फिर कोविंद के खिलाफ वोट देकर सरकार विरोधी होना। यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए ताकि अगली बार जब ये लोग इस तरह के बयान दें और राष्ट्रपति पद की योग्यता के पावन प्रावधानों में जातिवाद की मिलावट करें तो उन्हें ये सवाल याद आ जाएं।
राजनीति अब प्रतीकों का इस्तेमाल कर अपने काले कारनामें सफ़ेद करने का मंत्र जान चुकी है। उसके लिए गाँव के दक्खिन में बसने वाले रामधारी हरिजन की समस्याओं का समाधान, ऊना में गाय की खाल उतारने को लेकर पीटेे गये रमेश की पीठ पर कोड़ों की चोट का मरहम, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला के जीवन की कीमत महज किसी दलित को राष्ट्रपति बना भर देने से मिल जाता है। इसी से वो दलितों की हितैषी बन जाती है। इन सारे मसलों पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल की यह टिप्पणी गौर करने लायक है जिसमें वो कहते हैं, "वो हर चुनाव मे जाति-धर्म का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करेंगे पर जातिवादी नहीं कहलाएंगे। हर चुनाव में सबसे ज्यादा पैसा खर्चेगे पर इस धरती के सबसे ईमानदार माने जायेंगे। क्योंकि उनके पास कारपोरेट है, मीडिया है, सारा विधि-विधान है, तमाम एजेंसियां हैं, ब्रह्म और बाबा हैं! क्या है, जो उनके पास नहीं है!" खैर, सरकार के लिए भले ही किसी दलित को राष्ट्रपति बना देना दलित उत्थान का मापदंड हो लेकिन यह देश दलितों के उस दौर का मुन्तज़िर है जब किसी रोहित वेमुला को अपना आखिरी पत्र न लिखना पड़े जिसमें उसे कहना पड़े कि उसका जीवन एक भयानक दुर्घटना है।
आंध्र प्रदेश के हैदराबाद विश्वविद्यालय में कुछ मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे 5 छात्रों का एबीवीपी के छात्रों से हाथापाई होने के बाद केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस घटना के बाबत तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखकर इस मामले पर कार्रवाई करने का निवेदन किया जिसके बाद विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर ने 5 छात्रों को हॉस्टल से ससपेंड कर दिया और उनकी फ़ेलोशिप भी बन्द कर दी। इसके विरोध में पांचों छात्रों ने विश्वविद्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। घटना राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में तब आई जब उन पांच छात्रों में से एक छात्र रोहित वेमुला ने एक खत लिखकर आत्महत्या कर ली। वेमुला दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिसके कारण विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकर को घेरने की भरपूर कोशिश की।
कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री के मॉडल स्टेट गुजरात के ऊना से एक हैरान कर देने वाली घटना की खबर आयी। इस घटना का जो वीडियो सामने आया था वो काफी भयानक था। मृत गाय के चमड़े उतारने को लेकर कुछ तथाकथित गौरक्षकों के दलित समुदाय के कुछ लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटते हुए दृश्यों वाली इस वीडियो ने सरकारी 'दलित प्रेम' के आडम्बर की पोल खोलकर रख दी। गोरक्षा के नाम पर दलितों के साथ हुए इस अत्याचार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते हुए कई लोगों ने आत्महत्या तक करने की कोशिश की थी ताकि सरकार के बाहर कानों तक अपनी पीड़ा पहुंचा सकें। इस घटना के बाद सरकार निशाने पर तो आई, लेकिन विपक्ष का निशाना हर बार की तरह इस बार भी चूक गया। प्रधानमंत्री ने अलबत्ता एक सभा में बोलते हुए गर्जना की थी कि मेरे दलित भाइयों को मारना बन्द करो, और अगर वार करना ही है तो मुझ पर वार करो। हालाँकि उनकी इस बात को उनके समर्थकों ने इतनी गम्भीरता से नहीं लिया।
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्ती को लगाने को लेकर हुए विवाद में कई दलित प्रदर्शनकारियों पर गम्भीर धाराओं में मुकदमें दायर किये गए। जिसके विरोध में भीम सेना नाम के संगठन के लोग अपने नेता चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर लामबंद हुए। आज़ाद बाद में गिरफ्तार कर लिए गए। दलितों की तथाकथित महाहितैषी सरकार ने मामले को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत नहीं समझी। अखबारों और न्यूज़ वेबसाइटों ने ऐसे कई मसले छोटे छोटे कॉलमों के माध्यम से प्रकाशित किया लेकिन इन मसलों में दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ काम करना भारतीय राजनीति में दलित प्रेम, दलित उत्थान, दलित समर्थन की परिभाषाओं में नहीं आता। दलितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए सरकार को किसी दलित नेता को ढूंढना पड़ता है जिसे वो राष्ट्रपति बनाकर उन सभी लोगों का मुंह बंद कर सके जो उपर्युक्त घटना को लेकर सरकार को घेरने की फ़िराक़ में हों।
विपक्ष ने इस मामले में हालाँकि बहुत देर कर दी। मोदी सरकार के आने के बाद विपक्ष जितना लाचार हो गया है शायद ही भारतीय राजनीति में आज से पहले गैर-सत्तापक्ष कभी इतना बेचारा रहा हो। कांग्रेस विपक्ष का अगुआ होकर एकजुटता की पहल कर सकती थी और सत्ता के खिलाफ एक ऐसा सर्वमान्य उम्मीदवार उतारकर विपक्ष की शक्ति का आभास सरकार को करवा सकती थी लेकिन वो ऐसा कर पाने में हर बार की तरह असफल रही और इस दीवार में फिर से सेंध लग गयी। हर बार ऐसा देखने को मिलता है कि विपक्षी पार्टियां जब भी एक छत के नीचे आने का प्रयास करती हैं किसी न किसी राजनेता का राजनीतिक स्वाभिमान या फिर उसकी राजनैतिक महत्वकांक्षा पूरे मंसूबे को तहस-नहस कर देती है। इस बार भी वही हुआ। जो नितीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के सबसे ज्यादा योग्य माने जा रहे थे उन्होंने सबसे पहले पाला बदल लिया और तभी जब विपक्ष ने अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा था, उनहोंने एनडीए उम्मीदवार कोविंद के समर्थन की घोषणा कर दी। काफी दिन सोचने के बाद कांग्रेस ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार को कोविंद के खिलाफ उतरने का फैसला किया। एक योग्य उम्मीदवार होने के बावजूद भी उनकी हार तो लगभग तय है, लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने राजनैतिक खेमे के कई बयानवीरों को शायद असमंजस में डाल दिया है। विपक्षी हलकों में कुछ समय तक भारत में हरित क्रांति के नायक एमएस स्वामीनाथन को उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर अटकलें थीं जो शायद सरकार के उम्मीदवार के लिए बेहतर चुनौती के रूप में उभरकर आते। सत्ता पक्ष के दलित कार्ड के मुकाबले में किसानी से सम्बंधित व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से विपक्ष को कम से कम मनोवैज्ञानिक बढ़त तो मिल ही जाती।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कोविंद का नाम प्रस्तावित करते हुए दलित हितैषी होने के दम्भ से भरे जा रहे थे और अपने चयन पर इतराते हुए उनकी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के मामले को नज़रअंदाज़ करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। कोविंद के दलित होने के कारण विपक्ष खुलकर इसका विरोध करने से भी डर रहा था कि कहीं तीन साल से 'गद्दार' 'राष्ट्रद्रोही' की उपाधि पाते पाते कहीं दलित विरोधी होने का तमगा भी न मिल जाए। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के उस बयान को याद करिये जिसमें उन्होंने कहा था कि जो कोई भी कोविंद का समर्थन नहीं करता वो दलित विरोधी है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि कोई रिपोर्टर पासवान जी से पूछे कि अब आप क्या करेंगे? कोविंद को वोट देकर महिला कम दलित विरोधी होना मंजूर करेंगे या फिर कोविंद के खिलाफ वोट देकर सरकार विरोधी होना। यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए ताकि अगली बार जब ये लोग इस तरह के बयान दें और राष्ट्रपति पद की योग्यता के पावन प्रावधानों में जातिवाद की मिलावट करें तो उन्हें ये सवाल याद आ जाएं।
राजनीति अब प्रतीकों का इस्तेमाल कर अपने काले कारनामें सफ़ेद करने का मंत्र जान चुकी है। उसके लिए गाँव के दक्खिन में बसने वाले रामधारी हरिजन की समस्याओं का समाधान, ऊना में गाय की खाल उतारने को लेकर पीटेे गये रमेश की पीठ पर कोड़ों की चोट का मरहम, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला के जीवन की कीमत महज किसी दलित को राष्ट्रपति बना भर देने से मिल जाता है। इसी से वो दलितों की हितैषी बन जाती है। इन सारे मसलों पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल की यह टिप्पणी गौर करने लायक है जिसमें वो कहते हैं, "वो हर चुनाव मे जाति-धर्म का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करेंगे पर जातिवादी नहीं कहलाएंगे। हर चुनाव में सबसे ज्यादा पैसा खर्चेगे पर इस धरती के सबसे ईमानदार माने जायेंगे। क्योंकि उनके पास कारपोरेट है, मीडिया है, सारा विधि-विधान है, तमाम एजेंसियां हैं, ब्रह्म और बाबा हैं! क्या है, जो उनके पास नहीं है!" खैर, सरकार के लिए भले ही किसी दलित को राष्ट्रपति बना देना दलित उत्थान का मापदंड हो लेकिन यह देश दलितों के उस दौर का मुन्तज़िर है जब किसी रोहित वेमुला को अपना आखिरी पत्र न लिखना पड़े जिसमें उसे कहना पड़े कि उसका जीवन एक भयानक दुर्घटना है।
अच्छा लिखा है राघव। लिखते रहो...
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