Friday, 23 March 2018

2जी स्पेक्ट्रम और आरूषि हत्याकांड जैसे मामलों के परिणाम देखकर सीबीआई पर कैसे भरोसा हो ?

उनमें से हर किसी ने काग़ज़ पर एक-दो शेर लिख रखा था जिसे वो तब सुनाते थे जब उन्हें अपनी बात रखने के लिए माइक थमाया जाता था। राहत इन्दौरी से लेकर रामप्रसाद बिस्मिल तक के इंक़लाबी शेरों से वो अपने पीछे की बिल्डिंग में बैठने वाले 'स्वप्न-चोरों' को सख़्त चेतावनी देते कि उनके सपनों पर डाका पड़ेगा तो कुछ नहीं बचेगा। इंक़लाब का सैलाब सब कुछ बहा ले जाएगा। ये व्यवस्था, व्यवस्था के साजो सामान और व्यवस्था के तथाकथित रहनुमा सब। लेकिन इस अदम्य जोशो-जुनूँ और साहस के दूसरे पृष्ठ पर एक डर भी है। एक चिंता, एक आशंका, कि आवाज की बुलन्दी कहीं उनके स्वप्नों के महीन धागों को तोड़कर न रख दे जिससे उनके भविष्य के सुखद वक़्त की उम्मीदें जुड़ी हैं। एक आशंका है कि आवाज की बुलन्दी कहीं उनकी कोई गलती तो नहीं जिसके लिए उन्हें बाद में पछताना पड़े। यह जायज भी है और इसीलिए तमाम छात्रों से जब बातचीत की कोशिश की गयी तब अपनी बात रिकॉर्ड करवाने को लेकर वो तैयार न हुए। साथ ही अपनी लड़ाई में केंद्र सरकार को ख़िलाफ़ रखने से भी बचते रहे।

उनके शेरों के दावे थोडे़ हास्यास्पद जरूर लग रहे होंगे लेकिन उनकी हिम्मत को जीवन देने के लिए ये बहुत जरूरी हैं। देश के युवापन पर गर्व करने के लिए प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक हमेशा तैयार रहते हैं। युवाओं, किशोरों और बच्चों के हितों पर मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री उम्मीदें बहुत जगाते हैं। उनके मन में छात्रों के भविष्य को लेकर चिंता है या इस बारे में वह सोचते हैं यह जानकर अच्छा लगता है। देश के तमाम छात्र भी इस वजह से उनसे अपनापन महसूस करते होंगे लेकिन उनके मन की चिंता की जब असली परीक्षा होती है तब वो मौन क्यों हो जाते हैं? युवाओं ने जब नौकरियां मांगी, युवाओं ने जब अपने अधिकार मांगे, युवाओं ने जब अपनी परीक्षाओं की सुरक्षा मांगी तब प्रधानमंत्री मौन क्यों हो जाते हैं? क्या यह उनके वश की बात नहीं है? क्या ऐसी कोई मजबूरी है जो उन्हें इन छात्रों की मदद करने से रोकती है? क्या वह इसे बेहद ही मामूली सा मुद्दा समझते हैं जिस पर प्रधानमंत्री का बोलना ठीक नहीं है? या फिर अभी देश के विकास के मार्ग में इतनी भारी मात्रा में युवाओं की निराशा कोई बड़ी बाधा नहीं? क्या कारण है आखिर?

एसएससी बिल्डिंग के सामने छात्रों का प्रदर्शन आज हो रहा है तो इसका मतलब यह नहीं कि परीक्षाओं में धांधली की यह पहली घटना है। मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों की मजबूरियों का सागर लांघकर अगर ये छात्र अपने अधिकारों के लिए इस स्तर पर लड़ने आए हैं तो जाहिर है कि सब्र का घड़ा भर चुका होगा। आंदोलनरत छात्रों में ऐसे भी कई छात्र दिखे जो मीडिया के कैमरे से इसलिए दूरी बनाए हुए थे कि अगर बाद में इसमें दिख रहे लोगों पर कार्रवाई होती है और उन पर मुकदमा हो जाता है तो जीवन भर उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। इस आशंका या भय से पार पाकर आंदोलन के लिए आए छात्रों की मजबूरी कौन समझेगा और कौन इसका समाधान निकालेगा?

इलाहाबाद को सरकारी नौकरियां दिलाने के तमाम गढ़ों में से एक माना जाता है। तीन साल इलाहाबाद रहने के दौरान हमें नौकरियां मिलने की उतनी चर्चा सुनने को नहीं मिली जितनी परीक्षाओं में धांधली को लेकर प्रदर्शन करने वाले छात्रों की सुर्खियां कानों में पड़ीं। ग्रेजुएशन द्वितीय वर्ष के एक मेरे मित्र ने पीसीएस परीक्षाओं में धांधली को लेकर तकरीबन 8 दिन का अनशन किया था। सरकारी व्यवस्थाएं यह क्यों नहीं समझतीं कि जिन पेपर्स को वह 'सेटिंग्स' के जरिए प्रभावशाली लोगों के हाथों में बेच रहे हैं उनके एक-एक अक्षर में न जाने कितने छात्रों की जमीन, उनके घर बार तक की नीलामी के हर्फ होते हैं। प्रशासन और छात्रों का वर्ग जमीन-आसमान का अंतर रखता है। हर छात्र प्रशासनिक अधिकारी होना चाहता है। हर प्रशासनिक अधिकारी कभी न कभी छात्र रहा होता है। दुख की बात भी तो यही है। जो छात्र कल तक इन्ही परीक्षाओं से होकर अपनी दक्षता और अपनी प्रतिभा के बल पर आज अधिकारी के मुकाम तक पहुंचा वही आखिर क्यों अपनी परंपरा की नई नस्लों के अवसरों का व्यापार करने में लगा हुआ है?

बेरोजगारी के सुरसा-मुखी दौर में सरकारी नौकरियां ग्रामीण और शहरी निम्न और उच्च मध्यवर्गीय परिवारों के लिए बहुत मायने रखती हैं। यह उनके लिए आर्थिक सुरक्षा का सबसे विश्वसनीय विकल्प होते हैं। भारी संख्या में छात्र एसएससी, बैंक, रेलवे, सिविल सर्विस आदि की परीक्षाओं की तैयारियों के लिए अपना घर-बार छोड़ते हैं और इलाहाबाद, दिल्ली, पटना जैसी जगहों पर किराए पर कमरे लेकर तैयारी करते हैं। अधिकांश छात्र नारकीय हालात में रहते हुए परीक्षाओं की तैयारियां करते हैं। डब्बों की तरह बंद कमरों में रहकर पढ़ाई करते हुए उन्हें सिर्फ एक ही उम्मीद होती है कि ये संघर्षों का दौर है और सुकून और आराम इन संघर्षों के उस पार ही मिलता है। पता है, इन संघर्षों में उन्हें प्रेरित कौन करता है? यातनामय संघर्षों के बीच जीत के लिए उन्हें आश्वासन देती हैं असीम खुराना जैसे अधिकारियों की प्रेरक कहानियां। ये वो कहानियां होती हैं जिनमें आज बड़े से बड़े अधिकारी एक दिन उनके किरदारों में हुआ करते थे और ऐसे ही हालातों से होकर गुजरे होते थे जिनसे वो अभी गुजर रहे हैं। हैरत है कि उनके वही प्रेरक, उनके वही हीरो बाद में उनके इन संघर्षों के प्रतिफलों की खरीद-फरोख्त करते पाए जाते हैं।

सरकार ने परीक्षा में धांधली को लेकर सीबीआई जांच को मंजूरी दे दी है। हालांकि, यह कोई बहुत बड़ी फतह नहीं है। इसलिए भी कि 2जी स्पेक्ट्रम से लेकर आरूषि हत्याकांड मामले तक की जांच में सीबीआई ने ऐसा कोई झंडा नहीं गाड़ा है जिससे इस बात का आश्वासन मिले कि जांच में दोषी पकड़े ही जाएंगे और छात्रों को न्याय मिल ही जाएगा। दिल्ली की सड़कों पर विद्यार्थियों की इस आवाज को कुछ प्रभावी काम करके जाना चाहिए।  इस आंदोलन को एक निर्णायक मोड़ मिलना चाहिए। इस बात का एक मजबूत आश्वासन मिलना चाहिए जिसमें ऐसी धांधली की पुनरावृत्ति की संभावनाएं खत्म हों। छात्र, आमजन, शिक्षक अपने दैनिक जीवन की तमाम जिम्मेदरियों से बंधे होते हैं। बार-बार आंदोलन नहीं किया जा सकता। कानूनों के भरोसे देश चल रहा है। कानूनों की मजबूती जरूरी है और उनका क्रियान्वन भी। आपकी ये व्यवस्थाएं एक अंधेरे का सृजन कर रही हैं। जिसमें सपने भी दिखाई नहीं देते। आप इस देश की आंखों से सपने छीन रहे हैं। कानून और सजाओं से इतर आप अधिकारियों को अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनना चाहिए। निबलों की आह, उनकी विवशता की कराह और उनके आंसुओं की आंच बेहद धीमी होती है। शायद आप तक नहीं पहुंच पाए। लेकिन इसे अनसुना मत करिएगा। इसे नैतिक शिक्षा की तरह भी समझिए और एक चेतावनी की तरह भी। क्योंकि ये सपनों के मरने की परणति हैं और पाश कहते हैं कि सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। यह खतरनाकत्व आपके लिए भी डरावना है और आपके देश के लिए भी बेहद भयावह है।

जनसत्ता वेब में प्रकाशित

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