Thursday, 15 March 2018

राही मासूम रजाः 'मैं गंगा-पुत्र हूं, मैं लिखूंगा महाभारत'


ऐसे ही नहीं कलम ने लिखा होगा कि 'मेरा नाम मुसलमानों जैसा है, मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो',  कि 'मेरे लहू में गंगा का पानी दौड़ रहा है' या फिर कि 'मेरे लहू में से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंकों'। कलम ऐसा इसलिए लिख सकी क्योंकि राही साहब की नसों में लहू नहीं हिंदुस्तानियत बहती थी। हिंदुस्तानियत वह, जिसमें महादेव की जटाओं से निकलने वाली गंगा और उस गंगा से सरगोशी करके कालिदास के मेघदूत से संदेश भेजने की रवायत शामिल थी। इसीलिए तो राही साहब कहते हैं कि मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुंह पर फेंककर उनसे कहो कि अपनी गंगा को वापस ले लें। कि ये अब हम जलील, तुर्क, पाकिस्तानी आदि कहे जाने वाले लोगों के रगों में लहू की तरह दौड़ रही है। यह पीड़ा केवल राही साहब की नहीं थी। वह इस पीड़ा के पीड़ितों का विस्तार जानते थे। इसीलिए जीवनभर आधा गांव, नीम का पेड़ और टोपी शुक्ला जैसी अपनी रचनाओं से इस पीड़ा का मरहम तैयार करने की कोशिश करते रहे।

अगर राही साहब को ठीक से पढ़ें (केवल उनके उपन्यास नहीं उन्हें भी) तब समझ आए कि उनके लहू में मुसलमानत्व ज्यादा था या हिंदुस्तानियत। गंगा किनारे वाला गंगापुत्र लगातार कट्टरपंथियों के लांछनों से नवाजा जाता रहा। मुसलमान कहते कि कुरआन पर कुछ नहीं लिख सकते। महाभारत लिख रहे हो। हिंदू कहते कि सारे हिंदू मर गए हैं क्या जो यह मुसलमान हमारे धर्मग्रंथों के बारे में लिखेगा। राही डटे रहे कि इन्हें भाव नहीं देना है। इसीलिए तो जब बीआर चोपड़ा ने हिंदू कट्टरपंथियों के धमकी भरे खत राही साहब को दिखाए तब उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास और थोड़े क्रोध के साथ कहा - मैं लिखूंगा महाभारत। गंगा-पुत्र होने के नाते कोई मुझसे ज्यादा इस संस्कृति के बारे में नहीं जानता। चोपड़ा यह नहीं जानते थे कि उन्होंने महाभारत लिखने के लिए एक नए जमाने के वेदव्यास को नियुक्त कर दिया है।

'मैं समय हूं' वो खुशनुमा आवाज होती थी जिससे यह महाकाव्य परदे पर शुरू होता था। शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी जो सामान्य से सामान्य दर्शकों को समझ आ जाए, साथ ही कथा के देशकाल के हिसाब से फिट हो, इस धारावाहिक के संवाद लेखन की मुख्य चुनौती थी। पिताश्री, भ्राताश्री, तातश्री, आदि संबोधन पुराने किंतु प्रयोग के नवीन संस्करणों जैसे हो गए थे। यह अचंभित करने वाला ही है कि महाभारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला-बढ़ा व्यक्ति भी उसके बारीक मर्म को इतनी सहज और सच्ची भाषा नहीं दे सकता जितनी डॉ. साहब ने दी है। इसीलिए वह विलक्षण थे, अद्भुत थे। भारतीय संस्कृति के विभिन्न प्रतीकों के प्रति उनका सम्मान भाव अद्भुत था। उनका निर्मल मन इसीलिए आक्रामक हो गया था जब उन्हें पता चला था कि हिंदुत्व के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदारों ने उनके मुसलमान होने पर महाभारत संवाद लेखन की उनकी दावेदारी पर सवाल उठाए थे। राही साहब ने महाभारत लिखकर उनके मुंह पर तमाचा ही मार दिया था।

पहली बार जब मुझे पता चला था कि महाभारत के संवाद लिखने वाले राही मासूम रजा मुसलमान हैं तो यह मेरे लिए तब बेहद आश्चर्य का विषय था। अब मुझे अपने उस आश्चर्य पर अपराधबोध होता है। कि संस्कृतियां कभी अपनी-पराई नहीं होतीं। संस्कार कभी अपने-पराए नहीं होते। राही साहब को कभी इस बात से दिक्कत नहीं थी कि उनकी भारतीय संस्कृति में महाभारत-रामायण-गीता आदि शामिल हैं और उनके साथ ही कुरआन भी। ये बातें आज के दौर में तब और प्रासंगिक हो जाती हैं जब धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और सबसे प्राचीन समावेशी संस्कृति वाले देश के संवैधानिक पदों से इस तरह की आवाजें आती हों कि उन्हें गर्व है कि वे हिंदू हैं और वे ईद नहीं मनाते।

मैं हिंदू हूं। बचपन से दादी की गोद में पुराणों की अनेक कथाएं सुनते आया हूं लेकिन गीता समझ तभी आई जब नीतिश भारद्वाज की आवाज में राही साहब ने समझाया।

'हे पुत्र! किसी समाज की कुशलता की सही कसौटी यही है कि वहां नारी जाति का मान होता है या अपमान किया जाता है।

'देश की सीमा माता के वस्त्र की भांति आदरणीय है। उसकी सदैव रक्षा करना।'

'धर्म विधियों और औपचारिकताओं का अधीन है। धर्म अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के संतुलन का नाम है।'

'यदि कोई परिस्थिति देश के विभाजन की मांग कर रही हो तो कुरुक्षेत्र में आ जाओ लेकिन देश का विभाजन कभी न होने दो।'

महाभारत के संदर्भों से आधुनिक सामाजिक विषमताओं का संदेश देते ये संवाद धारावाहिक के अंतिम भाग से लिए गए हैं। महाभारत का यह एपिसोड मेरा सबसे पसंदीदा भाग है। इसी एपिसोड के अंतिम गीत की आखिरी पंक्ति कहती है - महाभारत है शांति संदेश। वो राही मासूम रजा ही थे जिन्होंने मनोरंजन के दृष्टिकोण से मार-काट, राजनीति, षड्यंत्र, घृणा की अनेक आकर्षक कथाओं से भरे महाभारत की भाषा को शांति संदेश की तरह बना दिया था। धारावाहिक के आखिरी दृश्य में श्रीकृष्ण संसार को संबोधित करते हुए कहते हैं - 'धन्य हैं वे, जो नश्वर के अनश्वर होने का दृश्य देख रहे हैं।' सच में, वो लोग धन्य थे जो मेरे जन्म से तीन साल पहले तक के समय के गवाह हैं, जब राही साहब उनके साथ इस दुनिया में थे।

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