तरकशः 'अराजक' कानून के प्रति आस्थावान प्रधानमंत्री की संवैधानिक सजा क्या है?
लोकतंत्र में किसी पार्टी का समर्थक होना बुरा नहीं है। दलीय जनतंत्र में जब हम एक दल से निराश होते हैं तो दूसरी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं। उम्मीदों का यही विस्थापन जनतंत्र को जीवित रखता है। दलों में एक दूसरे से बेहतर होने की होड़ इसी से लगती है। ताकि, वह उम्मीदें खरीद सकें अपने सुचरित्र से। जनतंत्र में जनता की शक्ति भी यही है। इसीलिए, किसी पार्टी का समर्थक होना उससे उम्मीद करना बुरा नहीं है। एक के बदले दूसरे के समर्थन में निश्चित रूप से हम उसका इतिहास नहीं देखते। हम उसके दावे देखते हैं। उसके वादे देखते हैं। उसकी सच्चाई परखते हैं। उसके बाद अपने समर्थन का रंग उसके झंडे में मिला देते हैं।
लेकिन तब क्या करें जब दावे धोखेबाज हो जाएं। जब वादे खोखले हो जाएं। जब झूठ बोलना ही बेहतर वक्तव्य और कुशल 'राज'नीति का मापदंड माना जाने लगे। क्या करेंगे? अगर ऐसा हो रहा है तो मान लीजिए कि अब आपकी उम्मीदें 'काले धन' से खरीदी जा रही हैं। ऐसा होने लगे तो समझ जाइए कि प्रतिस्पर्धाओं ने 'अवैध हथियारों' का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। ऐसा होने लगे तो थोड़ा सशंकित हो जाइए कि आपकी मासूमियत और आपके विश्वास को मूर्खता की उपाधि से अलंकृत करके जनतंत्र की आड़ में एकतंत्र या तानाशाही का घिनौना खेल खेला जा रहा है। थोड़ा भयभीत हो जाइए कि दूसरों को शहीद होता देखते-देखते कभी भी कोई तीर आपकी छाती से भी पार हो सकता है।
प्रधानमंत्री ने दिसंबर 2017 में कहा कि 50 दिन में अगर कोई खास उपलब्धि नहीं रही तो मैं चौराहे पर खड़ा हो जाऊंगा और आप जो सजा देना चाहें मुझे दे सकते हैं। जनता लाइनों में खड़ी हो गई कि इतने बड़े पद पर रहते हुए इतना लोकप्रिय नेता झूठ थोड़े बोलेगा। देश के लिए देशवासी 'विपदा' झेलने को तैयार हो गए। देशभक्ति की राह में न जाने कितने अघोषित शहीद हुए, न जाने कितनों के व्यापार बर्बाद हो गए। न जाने कितनों की शादियों में दिक्कतें आईं, घर अधूरे रह गए, सपने अधूरे रह गए। कितनों के घर में कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला। पकवान छोड़िए, नियमित भोजन नहीं बने। ये सब किसलिए झेला गया। इसलिए कि अनैतिक और अवैध तरीके से जुटाए गए तमाम भ्रष्ट और तथाकथित बड़े लोगों के खाते में जो काला धन है उसका हिसाब हो सके। उनको सजा दिया जा सके। सरकार ने कहा कि काला धन तो बाहर होगा ही आतंकवादियों के आर्थिक रास्ते बंद हो जाएंगे।
सब कुछ देश के लिए सहन किया गया कि एक दिन खबर आएगी कि भ्रष्टाचार को करारा तमाचा मारा गया है। इससे कम से कम कुछ सालों तक भ्रष्टाचार की तीव्रता में कमी तो आती ही। सच में जानकर खुशी होती कि देश पर हमला करने वाले आतंकियों के आय के स्रोत बंद हो गए और वो बर्बाद होकर घूम रहे हैं। ये सब हुआ नोटबंदी की वजह से। हम भी एक आर्टिकल लिखते कि इस सरकार ने चाहे 5 साल में कुछ भी न किया हो लेकिन नोटबंदी के लिए इसे एक बार वोट देना जरूरी है। लेकिन, खबर क्या आई। खबर आई कि विदेशों में जमा काला धन दोगुना हो गया। खबर आई कि आरबीआई ने एक रिपोर्ट जारी की है। जिसमें कहा गया है कि तकरीबन 99.3 प्रतिशत 500-1000 के नोट वापस आ गए हैं। सिर्फ 0.7 प्रतिशत नोट अर्थव्यवस्था से बाहर हुए।
नोटबंदी के पहले जो दावे किए जा रहे थे उसमें तो ये आंकड़ा तकरीबन 25 फीसदी के आस-पास बताया जा रहा था। तकरीबन 6-7 लाख करोड़ रुपए के इकानॉमी से बाहर होने की बात की जा रही थी। आखिर ऐसा क्या हुआ। क्या दिक्कत आई कि आपके अनुमान ध्वस्त हो गए। क्या इसका जवाब गुजरात में अमित शाह की अध्यक्षता वाले बैंक में सबसे ज्यादा नोट बदले जाने वाली रिपोर्ट जैसी घटनाओं की तह में है? नक्सलियों का हमला, सीमा पार से आतंकियों का हमला कुछ भी तो प्रभावित नहीं हुआ। डिजिटल कैश तक के माहौल तक की बातें झूठी साबित हो गईं। क्या वजह रही? कौन जिम्मेदार है? किसकी जवाबदेही है?
यह सवाल सरकार से नहीं है। आप जो कोई भी हैं और इसे पढ़ रहे हैं उनसे ये सवाल है। आप इस देश की सरकार हैं। आप भी जवाबदेह हैं। जवाब दीजिए इसका कि कौन जिम्मेदार है? नोटबंदी की लाइन में खड़े रामसुवन की मौत का जिम्मेदार कौन है? दिसंबर 2016 में नुकसान की वजह से बर्बादी की कगार पर आ गए व्यापारियों की हालत के जिम्मेदार कौन हैं? छोटे व्यापारियों, बुनकरों, कुटीर उद्योगपतियों के भयानक नुकसान का जिम्मेदार कौन है? देश में क्या कुछ हो रहा है उस पर कुछ बोलने का आपके पास वक्त है? उस पर सवाल उठाने का आपके पास वक्त है? जय शाह पुत्र अमित शाह की संपत्ति अचानक लाख गुनी कैसे बढ़ जाती है इसका जवाब ढूंढने की आपने कोशिश की? विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे लोग जनता की गाढ़ी कमाई लूटपाटकर विदेश कैसे भाग गए? मजाक बनाने के अलावा इससे जुड़ा कोई सवाल सरकार तक आपने पहुंचाया। ऐसे कई सवाल आपके पास से गुजरे होंगे, उस पर कभी ध्यान दिया?
नहीं दिया तो कम से कम अब ध्यान देने की कोशिश कीजिए। चौराहे पर खड़े होने और लोगों से सजा देने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री को ऐसी अराजक सजाएं देने की जरूरत नहीं है। हम तो कम से कम सभ्य बनें। संवैधानिक बनें। संविधान के मुताबिक उनकी जो सजा है हम उतनी ही सजा दें। इसके लिए फिर से समर्थन और उम्मीद के विस्थापन पर आइए। देवताओं की तरह पूजना बंद कीजिए। अंध समर्थन के चक्र से बाहर आइए। आपको अपने मूल्य बचाने हैं तो। आपको अपना खुद का पक्ष बचाना है तो। दिल्ली से दूर बैठे गांवों में अपने आप को महत्वहीन समझना बंद करना होगा। 5 साल के बाद अगले साल फिर से चुनाव होगा। दावों और वादों का खेल एक बार फिर खेला जाएगा। लाखों-करोड़ों रूपए पानी की तरह बहा दिए जाएंगे। आपको जबर्दस्ती बताया जाएगा कि उन्होंने आपकी बेहतरी के लिए बहुत कुछ किया। आप सुनेंगे। नारे लगाएंगे लेकिन वोट देने से पहले आप उनसे सवाल नहीं कर पाएंगे। आपको सवाल करने का मौका नहीं दिया जाएगा। आपको सवाल करने ही नहीं दिया जाएगा। क्यों!!!
क्योंकि, ऊंचे मंचों और ऊंची कुर्सियों को सवाल सुनने की आदत नहीं है। वो सवाल नहीं सुनना चाहते। वो केवल झूठ बोलना चाहते हैं। उन्होंने झूठ बोला कि हमने एसआईटी काला धन वालों को पकड़ने के लिए बनाई है। पांच साल में काला धन वालों के खिलाफ उन्होंने क्या किया, यह सवाल आप उनसे नहीं पूछ सकते। उन्होंने झूठ बोला कि हम स्मार्ट सिटी बनाएंगे। पांच साल में कितने शहर स्मार्ट बने ये सवाल उनसे नहीं पूछ सकते आप। उन्होंने झूठ कहा कि भ्रष्टाचारियों को संसद में नहीं घुसने देंगे। 5 साल में कितने भ्रष्टाचारी संसद से बाहर निकाले गए ये सवाल आपको नहीं पूछने दिया जाएगा। भ्रष्टाचार के आरोपसिद्ध लोगों को पार्टी में शामिल करने और पद देने संबंधी आपके सवाल आपकी जबान से बाहर भी नही निकलने दिए जाएंगे। किसानों की आय दोगुनी करने का झूठ देश की अधिसंख्य किसान जनता से छिपा नहीं है। किसानों को फसल की उचित कीमत पाने भर के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ा। किसानों के प्रदर्शन की अनदेखी से इस सरकार ने देश के अन्नदाताओं का सीधा अपमान किया है। किसानों का अपमान देश के उन समस्त आर्थिक मध्यवर्ग और निम्नवर्ग परिवारों का अपमान है जिनकी जिंदगी खेत के भरोसे चल रही है। क्या आपको यह अपमान नहीं लगता? अपने आत्मसम्मान को इतना सहिष्णु न बनाइए।
किसानों और गरीबों की सरकार होने का दावा करके सत्ता में आए ये लोग पूरे पांच साल जाने कैसे-कैसे मुद्दों पर राजनीति करते रहे। अपनी नाकामियां छिपाने के लिए इन्होंने राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, मां, सैनिक जैसे पावन शब्दों को राजनैतिक खिलौना बना दिया। आतंक और भ्रष्टाचार से छुटकारा दिलाने के वादे के बरअक्स इन्होंने भय और भ्रष्टाचार का नया व्यापार खड़ा किया। इन्होंने 'स्वदेशी आतंकवादी' बनाए। मॉब लिंचर्स पैदा किए गए। सवाल करने वाले लोग अलग-अलग तरह से किनारे लगा दिए गए। अभिव्यक्ति के मंचों पर डंडा चलता रहा। रचनात्मकता या तो सहमी रही या किनारे लगा दी गई या फिर राग दरबारी हो गई। राग दरबारी लोग फले-फूले। जो खिलाफ रहे उन्हें शहरी नक्सली बोलकर जेल भेज दिया गया। उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया। उन्हें तरह-तरह से परेशान किया गया। यह सरकार प्रतिरोध और सवालों की संस्कृति को गूंगा बना देना चाहती है। यह सरकार जनतंत्र को फनतंत्र बनाकर खेल रही है। लगातार उसका मजाक उड़ा रही है। सत्ता पाने के लिए हर तरह की जोड़-तोड़, संविधान के साथ खिलवाड़ को सामान्य बनाने की कोशिश कर रही है। यह बड़ी गहरी राजनीति है। कुछ दिनों बाद इस तरह की राजनीति में हर किसी का दम घुटने लगेगा।