Tuesday, 28 August 2018

स्मृतिशेषः सार्थक वक्तव्यों का मर्यादित नेता अटल बिहारी

नफरत के खिलाफ बिगुल फूंक देने से कोई प्रेम का पैरोकार नहीं हो जाता। प्रेम का पैरोकार होने के लिए प्रेम करना भी तो जरूरी है। प्रेम होना भी तो जरूरी है। नफरत के खिलाफ नफरत से खड़े होने वाले नफरत के खिलाफ कैसे और प्रेम के साथ कैसे? यह सच है कि हालिया इतिहास में हिंदू पंथ के लोगों की प्रेम की परिभाषा थोड़ी दूषित हुई है। आप उसे सांप्रदायिकता कह सकते हैं लेकिन आस्था और सांप्रदायिकता में अंतर करने के बाद। आप किसी आस्थावान को सांप्रदायिक कैसे कह सकते हैं। आप जिनके खिलाफ हैं उनकी भाषा कैसे बोल सकते हैं? आज की दुनिया में विद्वानों की टोली में शामिल होने की बजाय प्रेम करने वालों की टोली में शामिल होना ज्यादा बेहतर है।

विश्लेषण किया जाए तो एकदम आदर्श इंसानों का समुच्चय रिक्त ही दिखेगा। गलतियां चाभी की तरह होती हैं जो सही रास्ते का ताला खोलती चलती हैं। तो क्या आलोचना गलतियों पर होगी या उसके आगे के सुधारगत कदमों की होगी? यहां हर एक बात मैं अटल बिहारी के वाजपेयी के निधन से जुड़ी लोगों की प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में कह रहा हूं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मैं ऐसा कह रहा हूं कि अटल जी ने बहुत सी गलतियां की और उन पर आलोचना होनी चाहिए। पता नहीं, जिन गलतियों को हम गलतियां कह रहे हैं वह गलतियां हैं भी कि नहीं। अटल को सांप्रदायिक घोषित किया जा रहा है। कुछ ने उन्हें बेकार कवि कहा। कुछ ने कहा कि आज भाजपा का जो स्वरूप है वह उन्हीं की वजह से है। यह सब तब कहा जा रहा है जब तकरीबन 13 9 सालों से बोलना बंद कर चुके अटल इहलोक छोड़कर चले गए। लोग ऐसे लोगों को संस्कारों की दुहाई देकर चुप करा रहे हैं। लेकिन, उन्हें तो अपनी विद्वत्ता, निष्पक्षता, पंथ-निरपेक्षता और उंगली काट शहादत पर इतराना है। उन्हें आप किसी भी विधि से चुप नहीं करा सकते।

राजनीति को आप काजल की कोठरी कहते हैं। यह सभी को पता है कि राजनीति की गाड़ी कैसे चलती है। मजबूरियों, उसूलों, चरित्र और जनहित में सामंजस्य बिठाकर राजनीति चलती है। आज के दौर की राजनीति में कोई ऐसा राजनेता ढूंढकर दिखाइए जिसने अटल जी की तरह इन चीजों से सामंजस्य बिठाया हो। राजनैतिक आदर्श और मर्यादा की अनुपालना के जितने सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अटल जी के साथ जुड़े हैं उतने हिंदुस्तान के किसी एक हथेली की उंगलियों पर गिने जा सकने वाले नेताओं से जुड़े दिखाई पड़ते हैं। अटल को इसलिए दोष दिया जाता है कि वह आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ता थे। क्या यह उनका ऐब है? क्या हम गांधी, नानक और कबीर की उसी परंपरा से हैं जिसमें कहा जाता है कि घृणा पाप से करो पापी से नहीं? अटल को अपनी संस्कृति को लेकर अभिमान था। अपने हिंदू होने पर गर्व था। यह उनकी विचारधाराई संस्कार का अभिन्न हिस्सा था तो क्या यह उनका ऐब हुआ। उन्होंने अपने धर्म के नाम पर हिंसा करने को तो कभी नहीं कहा और न किया। उल्टा जिन लोगों ने किया वह भले ही उनकी पार्टी के क्यों न थे, उनका विरोध ही किया। वो भी सार्वजनिक रूप से। पार्टी के अंतर्विरोध का प्रतिनिधि होना क्या आसान है? हिंदू तन-मन हिंदू जीवन रग-रग हिंदू मेरा परिचय। कविता में कहां गलती है। कांवड़ियों के उपद्रव, योगी आदित्यनाथ के घटिया बयान और नरेंद्र मोदी के गोधरा वाले नीच कृत्य को ही आप हिंदुत्व समझते हैं क्या? अगर हां, तो यह आपके अल्पज्ञान की समस्या है।

जगती का रच करके विनाश कब चाहा है निज का विकास
भू-भाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।

इन पंक्तियों में अटल के हिंदुत्व का अर्थ है। कविता वीररस की है। अतिशयोक्ति अलंकार है। अगर साहित्यिक सौंदर्य से उनके राजनीतिक चरित्र और व्यक्तिगत संस्कार का मूल्यांकन करेंगे तो कथित विद्वत्ता का अलंकार जरूर पा लेंगे लेकिन यह न्याय तो कतई नहीं होगा। किसी ने लिखा आज की पीढ़ी जब पैदा हुई तब अटल अपनी छवि बदल चुके थे। कौन सी छवि बदला उन्होंने? उनसे पूछने की जरूरत है। राजनीति में लंबे समय तक विपक्ष की भूमिका में रहने वाले बल्कि सशक्त विपक्ष की भूमिका में रहने वाले अटल राजनीति में तब उतरे थे जब देश में नेहरू युग चल रहा था। क्या उम्र रही होगी उनकी। लेकिन उनकी राजनीतिक समज और छवि का अंदाजा इसी से लगाइए कि नेहरू ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री से जब उनका परिचय कराया तब कहा कि विपक्ष के बड़े प्रतिभाशाली नेता हैं और मैं इनमें देश के भावी राजनेता की छवि देखता हूं। क्या आप इसी छवि की बात करते हैं? एक विदेशी पदाधिकारी से बात करते हुए नेहरू ने अटल को देश का भावी प्रधानमंत्री तक बता दिया था। अगर तब उनकी छवि ये थी और हमारे जन्म के बाद उन्होंने छवि बदल ली तो ये छवि कितनी शानदार हो गई, आप इसका अंदाजा लगाइए।

नरेंद्र मोदी को उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया। 2001 की बात है। 2002 में गोधरा कांड हुआ तो उन्हें पद से हटाने को भी तैयार हो गए। सभी जानते हैं कि पार्टी में इस मामले को लेकर अटल बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। लेकिन इस विषय पर उन्होंने अपना स्टैंड तो रखा। उन्होंने मोदी को राजधर्म की सीख दी। उन्होंने कहा कि राजा के लिए प्रजा-प्रजा में भेद करना सही नहीं है। धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर या संप्रदाय के आधार पर। यह उनकी राजनीति का राजधर्म था। उन्होंने खुद के लिए भी यह दावा नहीं किया कि वह अपने राजधर्म का पूरी तरह पालन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैं प्रयास कर रहा हूं अपने राजधर्म की पालना का। इस सत्यनिष्ठा की आज की राजनीति में उम्मीद की जा सकती है क्या? यह सबको पता है कि अटल वही बोलते थे जो कर पाते थे। एक-एक शब्द सार्थक।

अटल के वक्तव्यों में एक गैप हुआ करता था। पॉज। इस पॉज में राजनीतिक जिम्मेदारी, लोकतांत्रिक मर्यादा, सत्यनिष्ठा, भाषायी शिष्टता और मानुषिक शालीनता का शब्दकोश था। इतने लंबे राजनीतिक करियर में लगातार सक्रिय रहते आप किसी के खिलाफ अशालीन टिप्पणी, व्यवहार से बचे रहते हैं यह क्या किसी बड़ी उपलब्धि से कम है। बिना किसी ठोस मर्यादित चरित्र के क्या ऐसा हो पाना संभव है। यह सच है कि अटल आजादी की ओस में सद्यस्नात संस्कारों, विचारों, चरित्र और आचरणगत मूल्यों के आखिरी वट- वृक्ष थे। उनके बाद से ही भारतीय राजनीति ने मर्यादाओं के पर्दे फाड़ दिए। अब संसद में क्या होता है? राजनीति में क्या होता है, हम सभी देख-सुन रहे हैं।

(17 अगस्त को लिखित)

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