Thursday, 11 April 2019

डरिए नहीं, डराने वालों को कीजिए रिजेक्ट

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डर हमेशा कमजोरी का पर्यायवाची नहीं होता। दुनिया की सबसे बड़ी विभत्सताएं इसी के साए में पली-बढ़ी और घटित हुई हैं। डर का इस्तेमाल सत्ता एक्सीलरेटर की तरह करती है। जितना ज्यादा जोर देंगे, उनकी गाड़ी उतनी ही आगे बढ़ेगी। यह सच नहीं है क्या कि डर इंसान के अंदर एक अबूझ, बर्बर और अनजान ताकत पैदा कर देता है। इस बारे में उस डरे हुए इंसान को भी पता नहीं होता। दुनिया भर में धर्म संरक्षण, जाति संरक्षण और राष्ट्रीयता संरक्षण के नाम पर जितने भी नरसंहार हुए हैं, उनके मूल में क्या इसी डर के बीजरोपण का मंत्र नहीं है।

'तुम प्रतिकार करो, प्रहार करो, नहीं तो तुम्हारा अस्तित्व खत्म हो जाएगा।' यह ध्येय वाक्य किसे उन्मादी नहीं बना देगा। आखिर हर कोई बच जाना तो चाहता ही है। सत्ताएं यही डर आपके भीतर बोती हैं। आप अपने ही देश को लीजिए। चुनाव का मौसम चल रहा है। वादों-दावों के बीच अक्सर दलों के नेता इस बात पर जोर डालना नहीं भूलते कि 'फलां पार्टी सत्ता में आएगी तो आपको बरबाद कर देगी। देश को विनष्ट कर देगी। आपके धर्म को खत्म कर देगी। आपके बीच खाई पैदा कर देगी। आपके समुदाय के लोगों का खात्मा कर देगी', वगैरह-वगैरह। यह डर का बीज नहीं है तो क्या है।

डर के आधार पर आपसे वोट ही नहीं मांगे जाते, आपको भड़काया जाता है। आपके मन में नफरत बोई जाती है। दो घरों के बीच दीवार नहीं खड़ी की जाती, खाई खोदी जाती है। सत्ताएं आपके सामाजिक साहचर्य की क्षमता, योग्यता, विवेक और प्रतिभा पर सवाल उठाती हैं। वे लगातार आपके अंदर प्रेम के साम्राज्य को चुनौती देती हैं। वे वहां नफरत की कॉलोनियां बनाती हैं और आपका हृदय उन्माद का उपनिवेश होता जाता है। इसलिए, गुलामी से बचना है तो विवेक जगाइए। प्रेम बढ़ाइए। डरिए नहीं क्योंकि डर बर्बरता को जन्म दे सकता है, संरक्षण की गारंटी नहीं।

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डर के बीज से उगी वीरता कभी सार्थक और उपयोगी नहीं हो सकती। अफ्रीका के रवांडा में 25 साल पहले एक भीषण नरसंहार हुआ था। उसकी बुनियाद नफरत थी और नफरत की जड़ में था लोगों के मानस में बोया गया डर का रक्तबीज। हुतु समुदाय के लोगों में यह डर भरा गया कि तुत्सी लोग गैर-ईसाई हैं और वह तुत्सी-साम्राज्य कायम करना चाहते हैं। रवांडा के एक रेडियो स्टेशन ने यह आह्वान किया था कि तुत्सियों का सफाया करने का वक्त आ गया है क्योंकि हमें अपना अस्तित्व बचाना है। तकरीबन 8 लाख लोग इस डर की भेंट चढ़ गए। उनकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इनमें केवल अल्पसंख्यक तुत्सी ही नहीं थे बल्कि हुतु समुदाय के वे लोग भी शामिल थे जो शांति की बात करते थे। जो थोड़े नरम थे।

हमारे देश में अभी ऐसा माहौल नहीं है कि हम नरसंहार तक पहुंचे लेकिन यह जानने-समझने वाली बात तो जरूर है कि चिंगारियों की तीव्रता ज्यादा नहीं होती लेकिन असावधानी उनके विकराल रूप को आमंत्रण दे सकती है। बीज और फिर पौध कोई विशालकाय पदार्थ नहीं होता लेकिन धीरे-धीरे पोषण मिलने पर वह हमारी बेखबरी के पीछे एक बड़ा वृक्ष बन जाता है। इसलिए, बेखबर न रहिए। हवा की गंध को सूंघिए, पहचानिए और कोशिश कीजिए कि जितनी मात्रा में लोग आग बो रहे हैं, हम उस हिसाब से उस पर पानी डालें। मन की मजबूती में भय नहीं पनपता। भय की अनुपस्थिति में हिंसा नहीं जनमती। ऐसे में चुनाव प्रचार में वादों-दावों और उकसाए जाने वाले भाषणों में डराने की भाषा को पहचानिए।

नेताओं की उकसाने वाली भाषाएं अराजकत तत्वों को अभयदान देती हैं। वह जिस भीड़ की आड़ लेते हैं, वह ऐसे ही कथित संरक्षणजन्य भय के बहकावे में आकर उनके साथ होती हैं। पहलू खान, अखलाक, जुनैद और ऐसे ही न जाने कितने ही अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दोष रवांडा की तर्ज पर बहुसंख्यक समुदाय की भीड़ का शिकार हो रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि केवल निजी राजनैतिक फायदे के लिए सामाजिक सद्भाव में भय का यह जहर घोला जाता है। नयति इति नेता के भावार्थ से उपजने वाले शब्द को धारण करने वाले लोग समावेशी राजनीति करने की बजाय सामुदायिक और विभाजनकारी राजनीति को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं।

अगर हमें यह लगता है कि ऐसे लोगों की भारतीय राजनीति में जगह नहीं है तो इन डराने वाले नेताओं को रिजेक्ट कीजिए और डरना भी बंद कर दीजिए। अपने विवेक पर भरोसा रखिए। सामाजिक विश्वास बनाए रखिए क्योंकि बांटना अगर सत्तालोलुपता की जिम्मेदारी है तो नागरिकता की जिम्मेदारी है कि वह पुल बने। ताकि, सारी घृणा, सारे षड्यंत्र उसके नीचे से बह जाएं और लोगों का एक-दूसरे के गांव-देश में आना-जाना बना रहे।

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