Thursday, 12 September 2019

प्रेम में नाराजगी की ज़रूरत

तस्वीरः पीयूष कुंवर कौशिक

नाराजगी हमेशा नकारात्मक नहीं है। नाराजगी एक तरह की अभिव्यक्ति भी है। एक संदेश है या एक तरीका है जिससे आप अपनी वे बातें कह सकते हैं जो सामाजिक संबधों के अनुच्छेदों में सैद्धांतिक तौर पर शामिल हैं भी और नहीं भी। ऐसी बातें जिनकी सामाजिक मान्यता पर कई सवाल भौहें चढ़ाए खड़े होते हैं। आप नाराजगी के जरिए अपने उन संदेशों को संप्रेषित करते हैं, जो सिद्धांतों में सही लगते हैं लेकिन व्यवहारिकता में जिन्हें कहने में संकोच है।

प्रेम में नाराजगी
प्रेम में नाराजगी एक अदा है। एक अदाकारी है। नाराज होना और फिर नाराजगी खत्म करने के जतन से प्रेम पुष्ट होने का दावा प्रेम मर्मज्ञों की ओर से किया जाता रहा है। केवल स्त्री-पुरुष प्रेम में नहीं बल्कि किसी भी तरह के प्रेम-स्नेह में नाराजगी की अपनी जरूरत है। नाराजगी की सबसे पहली घोषणा ही यही है कि आपसे प्रेम है। आपसे प्रेम है इसलिए नाराज हैं। दोस्ती की या रिश्तों की नाक में भी कभी-कभी खर-पतवार जाने लगते हैं। नाराजगी एक जोरदार छींक है जो झटक कर ऐसे पतवारों को बाहर कर देती है। यह रिश्तों की कड़वाहटें दूर करने में भी मदद करता है। रिश्तों को डिटॉक्सिफाइ करने वाला ग्रीन टी। कड़वा तो है, तकलीफदेह तो है लेकिन अगर पी ले गए, संभाल लिया सही से तो संबंधों की सेहत भी दुरुस्त होगी।

नाराजगी का जवाब
लेकिन इन सबकी कुछ शर्तें हैं। किसी की नाराजगी को ठीक तरीके से बरतने का हुनर आना चाहिए। यहां अगर लापरवाही हुई या अहं बीच में आया तो वह सब कुछ खत्म हो सकता है जिसे बड़ी आसानी से बचाया जा सकता था। पहली शर्त ये कि नाराजगी का जवाब कभी नाराजगी नहीं हो सकता। खासकर उसके लिए जिसे आप चाहते हों। जिससे प्रेम करते हैं। प्रेम में प्रतिकार तो होता ही नहीं है। दूसरी शर्त यह कि किसी की नाराजगी को ज्यादा देर तक के लिए छोड़ नहीं सकते। इससे उस पर दुनिया भर की गलतफहमियों, आशंकाओं और कड़वाहट के कीटों का डेरा जमने लगता है। यह आपके रिश्ते को बीमार बना सकता है, जिससे उसकी मौत भी हो सकती है। और इन सबसे ज़रूरी शर्त यह कि नाराजगी को स्वीकार करें। उसकी उपेक्षा कम से कम कभी न करें। नाराजगी को बहलाकर टाल देना रिश्तों के लिए सबसे घातक हो सकता है।

इक्विलिब्रियम के लिए नाराजगी
दो मन कभी एक जैसे नहीं हो सकते। मनांतर को समतल करने की प्रक्रिया ही नाराजगी है। हम एक दूसरे के साथ इक्विलिब्रियम में आना चाहते हैं इसलिए नाराजगी होती है। इसका उद्देश्य निःसंदेह पवित्र है इसलिए इसका सम्मान भी होना चाहिए। नाराजगी के सम्मान की जरूरत मैं सबसे ज्यादा समझता हूं। मेरे साथ इसका बुरा अनुभव रहा है। मुझे हमेशा से लगता है कि मेरी नाराजगी का किसी ने सम्मान नहीं किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मैं कई बार अकारण (लोगों की नजर में) नाराज हो जाता हूं। कई बार मैं अपने प्रिय लोगों में अपनी कीमत महसूस करने के लिए भी नाराज हो गया हूं। ऐसे वक़्त में जब नाराजगी का सम्मान नहीं होता तो मन में घृणा भी भरने लगती है।

नाराजगी का सम्मान
अपनी गलती मान लेना कोई बड़ा अपराध नहीं है। मैंने अपने जीवन में हमेशा कोशिश की है कि अगर कोई मुझसे नाराज है तो उसकी नाराजगी का सम्मान करूं। मैंने किया भी है। हालांकि, नाराजगी जाहिर करने वाले भी कम ही रहे हैं लेकिन जितने भी रहे हैं मैंने कोशिश की है कि उनकी नाराजगी को सही तरीके से दूर किया जाए। मतभेद भुला दें उस वक्त पर। बीच में अभिमान न लाएं। हो सकता है मैं हमेशा से ऐसे न रहा होऊं लेकिन मेरे साथ कई बार ऐसी घटनाएं घटीं कि मुझे यह चीज सबसे जरूरी लगने लगी।

आपबीती
मां से नाराज होता तो जिद कर लेता कि जब तक उन्हें यह नहीं लगेगा कि उनकी गलती थी, मेरी नहीं, तब तक मैं उनसे बात नहीं करूंगा। कई बार मां को पता ही नहीं होता कि मैं उनसे किस बात पर नाराज हूं। मेरी भी जिद कि बताऊंगा नहीं। ज्यादातर बार तीन-चार दिन में मामला सामान्य हो जाता और बातचीत की प्रक्रिया बहाल हो जाती। इस बीच मां अगर मनाने की कोशिश नहीं करतीं तो गुस्सा बढ़ता जाता था। कई बार खाना-पीना छोड़ दिया। मां छटपटाहट के स्तर पर परेशान हो जातीं लेकिन मैं नहीं बताता कि बात क्या है? किसलिए नाराज हैं?

स्थायी रिक्ति
ऐसे ही किसी मामले पर नाराजगी ऐसी बढ़ी कि मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा नुकसान कर लिया। मां से नाराज होना अपने आप में एक बड़ी विपदा है। मैंने तो इस नाराजगी को स्थायी बना दिया। सिर्फ अपनी जिद और अपने गुस्से की वजह से। विश्लेषण हो तो शायद मेरी ही गलती सामने आए लेकिन यह प्रवृत्ति रही और अब भी है। यह मेरा निजी नुकसान है। भावनात्मक स्तर पर आज भी एक रिक्ति है, जिसे अब मैं चाहते हुए भी भरना नहीं चाहता। शायद यह नाराजगी अब स्थायी हो गई है।

अप्रभावना का अभिनय खतरनाक
खैर, ऐसे अनेक मामले हैं परिवार में ही। बाहर भी। कई मित्रों से जो बातचीत छूटी वह आज तक बहाल नहीं हो पाई। इनमें से कई घनिष्ठ दोस्त रहे। भावनात्मक आशावाद का यह चरित्र मुझे लगातार तबाह करता रहा है। खैर, इन सब अनुभवों में मैं जो सबसे जरूरी चीज महसूस करता हूं वह यही है कि जो आपसे प्यार करता है उसकी नाराजगी का सम्मान कीजिए। बहुत सी समस्याएं बस इसी से सुलझ जाती हैं कि आपने उसकी नाराजगी को संज्ञान में लिया। अपने करीबी की नाराजगी पर अगर आप अप्रभावित होने का प्रदर्शन कर रहे हैं तो यह युद्ध के ऐलान जैसा है। यह उस नाराजगी के अपमान जैसा है जिसकी जड़ में आपसे अथाह प्रेम है और आपसे अनेक आशाएं हैं।

Thursday, 5 September 2019

असहिष्णु 'गुरुविहीन' लोग बनेंगे 'विश्वगुरु'?

दो साल पहले 5 सितंबर को गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई थी। अच्छा है कि जीवन भर हमें गुरु नहीं मिलता। हम इतने असहिष्णु हैं कि गुरु मिल जाए तो दस दिन के भीतर हम उसकी हत्या कर देंगे। हम लंकेश को सार्वभौमिक और आदर्श गुरु की तरह स्थापित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं बल्कि भारतीय समाज की मानस-काया पर गुरु के शरीर से विकिरित होने वाले प्रकाश के ताप को सहन कर पाने की क्षमता का आकलन कर रहे हैं। लंकेश ने किसी को विचारधारात्मक मुक्ति के लिए नहीं उकसाया लेकिन गुरु तो आपको विचारधारात्मक 'मृत्यु' के लिए प्रेरित करता है।

गुरु मृत्यु है
शास्त्रों में कहा है कि 'आचार्यो मृत्यु'। गुरु मृत्यु है। गुरु सबसे पहले आपको 'मृत्यु' देता है। सद्गुरु के पास जाना मृत्यु है और सद्गुरु के पास से जाना निर्वाण। गुरु पहले हमारी विचारधाराएं तोड़ता है, हमारा सारा संसार विनष्ट कर देता है और फिर निर्माण के फूल खिलाता है। नवनिर्माण के फूल। जो यह सहन कर ले, गुरु उसके ही नसीब में है। आत्मिक पर तौर पर हमारी गहरी नींद को देखकर नहीं लगता कि हम ऐसे किसी गुरु के सामीप्य को लेकर जरा भी तैयार हैं। हम उसे भी गौरी लंकेश की तरह मार देंगे। उसकी गैलिलियो की तरह, सुकरात की तरह हत्या कर देंगे। 

यह सच है कि ऐसे में हम गुरू की हत्या नहीं करेंगे तो गुरु हमारी हत्या कर देगा। इस खेल में एक का तो मरना तय है लेकिन शिष्य के मरने में सृजन है। गतिशीलता है। गुरु के मरने में अंधकार के द्वार का खुलना है। अज्ञात के रहस्य बने रहने की शाश्वतता पर मुहर है। नींद की अमरता की घोषणा है, इसलिए दीप बुझाने से मिट्टी का संगठन तोड़कर और उसे पुनर्गठित कर दीया बनाने की प्रक्रिया ज्यादा पावन और संसार के अनुकूल है। इसलिए गुरू की हत्या नहीं, शिष्य की मृत्यु सही है, अनिवार्य है।

हत्या की आवश्यकता क्यों?
लेकिन, अगर सवाल उठे कि गुरु को आखिर इस 'हत्या' की आवश्यकता क्यों है? उसे ज्ञान देने के लिए अपने शिष्य को 'मृत्यु' क्यों देनी है? तो इसका उत्तर भी जागृति की हमारी लालसा है। जागरण के लिए नींद का मरना जरूरी है। नींद के सपनों का मरना जरूरी है। नींद में हमारा एक संसार है, उसका विध्वंस जरूरी है। हमारे संसार में मर जाना यही तो है।

हम गुरु के पास जागृति के लिए जाते हैं। जगत की निद्रा से जागरण की ओर, प्रकाश की ओर जाने के लिए। इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व हम नींद में थे। स्वप्न में थे। ख्वाब में कोई भी चीज यथार्थ नहीं है। सब कल्पना है। सब अयथार्थ है। नींद में आपकी जो भी विचारधारा थी, आपका जो भी स्वप्न था, आपका जो भी संसार था, सब काल्पनिक था। अयथार्थ था। झूठा था। गुरु आपके इस स्वरुप की मानस 'हत्या' करता है। हत्या अगर नकारात्मक लगता हो तो मान लें कि गुरु आपको ज्ञान से पहले एक प्रकार की मृत्यु देता है। एक काल्पनिक और अयथार्थ संसार से मुक्ति। इसके बाद ज्ञान की, जागरण की और प्रकाश की आधारशिला रखी जाती है।

गुरु विध्वंसक है
गुरु विध्वंसक है। हमारी रूढ़िगत परम्पराएं और उधार की जीवनशैली तोड़कर ही गुरु हमारे अंदर मौलिकता पैदा करने की कोशिश करता है। हमने जो जीवनशैली, परंपराएं अपने पूर्वजों से उधार ली होती हैं, गुरू उस पर भी प्रहार करता है। उन्हें विनष्ट करता है। हमें अपने भीतर इतने विध्वंस अगर स्वीकार्य हों, तभी हम गुरु के पास रुकने की हिम्मत कर सकते हैं। हमें इस 'मृत्यु' के लिए तैयार होकर ही गुरु के समीप जाना चाहिए।

गुरु के यहां जो सबसे पहले तोड़ा जाएगा वह मंदिर होगा। मठ होगा। मस्जिद और गिरजाघर होगा। आपके धार्मिक पाखण्ड सबसे पहले तोड़े जाएंगे। मंदिर-मस्जिद बनवाने के लिए मुक़दमे लड़ रहे हम लोग ऐसे गुरु को बर्दाश्त कर पाएंगे क्या? हम उसकी हत्या ही कर देंगे और समय-समय पर हम इस चीज को सिद्ध ही कर रहे हैं।

ईश्वर सुलभ पर गुरु नहीं
गुरु जागरण है। हम आराम तलब लोगों के लिए जागरण ठीक बात नहीं। हम सोए हुए ही सुख महसूस करने वाले हैं। गुरु हमें जगा देगा और जगा देने वाले हमें प्रिय कैसे हो सकेंगे। वह तो दुश्मन ही हैं। शास्त्रों में इसीलिए गुरु का मिलना कठिन बताया गया होगा। कबीर इसीलिए गुरु की महत्ता पर अपने सबसे अधिक दोहे रचे होंगे। गुरु तक पहुंचने का मार्ग कठिन तो है। इसलिए गुरू का सबको मिल पाना सहज नहीं है। इसलिए, गुरु का स्थान शायद ईश्वर से भी ऊपर होगा क्योंकि ईश्वर का मिल जाना भी सुलभ हो सकता है लेकिन गुरु का मिल पाना नहीं।

गुरु मांग का परिणाम नहीं
गुरु मांग का परिणाम नहीं है। हो सकता है कि आप गुरु के लिए जिस समस्या का समाधान कराने जाएं उसका हल न मिले। क्योंकि, गुरु मांग का परिणाम है। गुरु वाणिज्यिक प्रत्युत्पन्न नहीं है। जैसे- हमें लंबी यात्राओं के लिए यंत्र की आवश्यकता हुई तो प्लेन, ट्रेन और कार जैसी चीजें बनीं। संपर्क के संसाधनों की जरूरत लगी तो फोन, इंटरनेट जैसी चीजों का आविष्कार हुआ। वैसे ही, भावनात्मक सांत्वना की मांग से गुरु तो मिल जाएंगे लेकिन सद्गुरु पैदा नहीं होंगे। मांग-आपूर्ति के सूत्र से पैदा होने वाले गुरु असंख्य हैं। वह आपके हिसाब से चलेंगे। जैसे बाजार उपभोक्ताओं के हिसाब से चलता है। अब तो वह उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को भी पैदा करने लगा है। ऐसे ही व्यापारिक गुरु भी पहले आपके लिए कष्ट तैयार करेंगे फिर उसके इलाज के लिए दुकानें सजा लेंगे। यह झूठे गुरु हैं।

गुरुविहीन लोग बनेंगे विश्वगुरु?
ऐसे गुरु आपकी अनुभूति का शोषण करेंगे। वे आपको मूल रूप में जिंदा रखेंगे। वे बीज को जमीन के अंदर ही सो जाने को प्रेरित करेंगे और उसके ही उपाय में लगे रहेंगे जबकि सद्गुरु तो आपको सबसे पहले भीतर ही तोड़ देगा। आपके मूल स्वरूप को मार देगा जिसमें आप निद्रित अवस्था में थे। उसके बाद आप स्वतः ही उगने लगेंगे। पौध बनेंगे। फिर वृक्ष बनेंगे। सद्गुरु आपसे 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' के लिए कहेंगे। अगर आप तैयार होंगे, तो आप कबीर हो जाएंगे। फिर आपके मन में भी सदैव एक 'हौंस' रहेगी कि 'क्या ले गुरु संतोषिए।' तब आप 'सात समंद की मसि' और 'सब धरती को कागज' करने के बाद भी 'गुरु गुण' नहीं कह पाएंगे। नहीं तो, आप गुरु की हत्या कर देंगे। प्रतिकूलता को बर्दाश्त कर पाने की हमारी यही आदत हमें गुरुविहीन कर रही है और हम विश्वगुरु बनने के सपने देख रहे हैं। 

नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

Monday, 2 September 2019

मोक्ष पर निरर्थक विचार-द्वंद्व

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हुसड़िया चौराहे से ग्वारी चौराहे के बीच रास्ते में एक अपरिचित चाचाजी ने सुकरात के बारे में पूछते हुए रोक लिया। वह साइकल-पथ के किनारे पर लोहे की एक बेंच पर बैठे थे। बोले, सुकरात को अंग्रेजी में क्या कहते हैं। मैंने बताया तो बोले, प्लेटो को अरबी में अफलातून कहते हैं। दार्शनिक बातों की शुरुआत समझकर न चाहते हुए भी उनके बगल में बेंच पर बैठ गया। जैसे ही मैं बैठा, सुकरात-प्लेटो और अरस्तू में सम्बन्ध समझाकर वह चुप हो गए। यह चुप्पी जैसे विषयान्तर को स्पष्ट करने के लिए ज़रूरी ही थी क्योंकि इस विराम के बाद हमारी बातचीत का (लगभग प्रवचन का) ट्रैक बदल गया।

अपरिचित चाचाजी ने अचानक पूछा कि मोक्ष जानते हो? मुझे लगा कि बात सुकरात से शुरू हुई है तो मोक्ष की ज़रूर दूसरी कुछ व्याख्या मिलेगी इसलिए मैंने इस बारे में अल्पज्ञान का संकेत करते हुए ससंदेह कहा कि मेरी जानकारी में तो इसका मतलब है मुक्ति। आध्यात्मिक व्याख्या में जाएं तो 84 लाख योनियों में आवागमन से मुक्ति। सम्पूर्ण स्वतंत्रता। चाचाजी चुप हो गए। मैं प्रतीक्षा करने लगा कि मेरी बात में अब संशोधन किया जाएगा। सन्दर्भ पुराणों से हटाए जाएंगे और कुछ दार्शनिकता या वैज्ञानिकता की बात की जाएगी। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। चाचाजी तो मेरी बात पर सहमत हो गए। बोले, सही है। यही मतलब है। इतना ही नहीं, प्रवचन आगे बढ़ाते हुए बोले कि मनुष्य के जीवन का एक ही उद्देश्य हो। मोक्ष। बाकी सब कुछ विनाशी है। मोक्ष ही असल पुरुषार्थ है जो सही मायने में अविनाशी है। बाकी सभी पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम) के फल नाशवान हैं।

वह मुझे समझाने लगे कि उम्र के एक छोर पर मैं खड़ा हूँ और एक छोर पर तुम हो। मैं अनुभव से कहता हूँ कि खाली वक़्त पर गीताप्रेस की गीता पढ़ा करो। जीवन के बहुत सारे सवालों का जवाब मिल जाएगा। फिर उन्होंने आत्मा की अनश्वरता का वही सिद्धांत समझाया जिसे बचपन से हज़ारों बार सुन चुके हैं। बोले कि मानव होना सौभाग्य की बात है इसलिए इसका महत्त्व समझना और जिस भी ईश्वर को मानते हो उसका भजन करना।

असहमतियां हज़ार थीं उनसे। तकरीबन हर कदम पर। इससे पहले भी एक बार उनसे मुलाक़ात हुई थी। तब भी उनकी बातें प्रगतिशील आधुनिकता के आवरण में रूढ़िवादी पुरातनता का विस्तृत विवरण ही लगी थीं। खैर, यह उनके निजी विचार और विमर्श थे जो निश्चित ही उपदेशात्मक उद्देश्यों के अधीन ही विकसित हुए थे। बुज़ुर्ग हिंदुओं में यह प्रवृत्ति है। अपने अनुभव से यथार्थ बताने की बजाय वह आदर्शवादी हो जाते हैं। धर्म-अध्यात्म की शरण में न सिर्फ जाते हैं बल्कि हर किसी को वहीँ जाने की सलाह देने लगते हैं।

उनसे बातचीत के दौरान मैं उनकी अवस्था विशेष के लोगों का मनोविज्ञान सोच रहा था। नौकरी कर चुकने के बाद, रिटायर हो जाने के बाद जब वह अपना अब तक का हासिल देखते होंगे, जब देखते होंगे कि सामाजिक भागदौड़ का हिस्सा बनकर अंत में क्या मिला? तो ज़रूर एक नैराश्य की छाया उनके दिलोदिमाग पर तारी हो जाती होगी। उन्हें लगता होगा कि अब तक तो कुछ मिला नहीं, अब क्या किया जाए कि जीवन तर जाए। आध्यामिकता ऐसे में उन्हें अंतिम विकल्प नज़र आता होगा। समय चूक जाने के बाद भी सम्भलने का उपाय यहीं मिलता है। हां, उसकी सार्थकता सदैव से संदिग्ध है।

एक सवाल और उठाकर आता होगा। आखिर, यह नैराश्य क्यों है। ऐसा क्या तय करके चले थे कि अभाव महसूस हो। खालीपन महसूस हो। ऐसा क्या करना था कि कर लेते तो संपूर्णता का बोध होता। मोक्ष की दावेदारी होती। क्या बहुत नाम कमा लेना। पैसे कमा लेना। या फिर भगवन्नाम की सांख्यिकी का पहाड़ खड़ा कर देना। किससे मोचन हो? कैसे मोक्ष हो? मनोविज्ञान में भी शायद इसका स्पष्ट जवाब नहीं है। वहां भी कहा गया कि अपने मन से जीना। अपने दिल से जीना। जो ऐसे जिया, उनमे से भी किसी ने दावा नहीं किया कि वह अंतिम में अपने आपको सम्पूर्ण अनुभव करते थे।

आध्यात्म केवल एक उपाय सुझाता है। धर्मगुरुओं के हवाले से वह यह है कि भगवान के नाम का जाप करते जाओ। केवल वह नाम ही मोक्ष दिला सकता है। तुलसीदास लिख गए। कलियुग केवल नाम आधारा। हालांकि, यह बड़ा कुतार्किक लगता है। किसी का ऋणी होना, किसी के प्रति भक्ति रखना एक बात है। केवल उसका नाम जपना दूसरी बात। नाम जपने के लिए जन्म होना मतलब आप आत्मश्लाघा के एक अजीब खेल के टूल भर हैं, जहाँ एक ईश्वर है और उसने आपको बना दिया कि आप उसका नाम जपें। मुझे हाथ-पांव-भाव-संकल्प-जिज्ञासा वाला मानव ऐसा टूल नहीं लगता। इसलिए मैं इसे मोक्ष का उपाय नहीं मानता।

अब सवाल है कि संतुष्टि फिर कैसे हो? समाधान क्या हो? जीवन की साँझ में संतोष का प्रकाश कैसे जीवित रखें? क्या करें कि चाचाजी की अवस्था में पहुंचे तो यह निराशा न हो कि तन-मन-धन में से किसी की भी सेहत पर बुरा असर पड़े। यह सोचते हैं तो लगता है कि संतुष्टि चाहिए ही क्यों? क्या संतोष ही आखिरी लक्ष्य है? संतोष के बाद क्या है? क्योंकि ब्रह्माण्ड का प्रसार तो अनंत है। इसका तो कोई चरम नहीं है। अगर चरम नहीं है इसका सिर्फ माइलस्टोन हो सकता है, पड़ाव हो सकता है, अंतिम बिंदु नहीं हो सकता। हिन्दू ग्रंथों में निरन्तर चलने को ही जीवन कहा गया है। सम्यक प्रकारेण सरति इति संसारः। निर्लक्ष्य। हर दिन नए लक्ष्य बनाते।

संतुष्टि की कोशिश में अभाव चोटिल करने लगते हैं और सैद्धांतिक तौर पर संतोष का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जीवन और इच्छाएं एक-दूसरे के समानांतर चलती हुई रेखाएं हैं। यह अनंत पर मिलती हैं और अनंत होता ही नहीं। तो क्या करें? क्या सही है करना। संसार का उद्देश्य क्या हो। बस चलना। लगातार यात्रा। कुछ भी लक्ष्य नहीं। कोई घर नहीं।

चाचाजी बोले कि स्वर्ग पा लेना भी नाशवान उपलब्धि है। वह भी ख़त्म हो जाना है। वह बड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। समग्रता में। जन्म-मृत्यु के पार तक। इसलिए वह सुझा रहे थे कि मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य हो। उसकी कोई सीमा नहीं है। अनन्त की तरह। अनंत ही अंतिम है। अनंत के आगे कुछ नहीं है। यह सोच भी सही है कि मोक्ष ही लक्ष्य हो। मोक्ष मतलब ही संतुष्टि है। संतुष्टि मतलब जीवन और इच्छाओं का एक बिंदु पर मिलना। वह बिंदु जो अनंत है। अनंत मतलब जो अस्तित्वहीन है। अंतिम मतलब कि संतोष वास्तव में कुछ नहीं है। अभाव ही जीवन को आगे बढ़ाते हैं। वेकैंसी रहना ही अभिक्रियात्मक है। अभिक्रिया नहीं है तो सब शून्य है।

निर्णय ये कि चाचाजी का कहना सर्वथा ग़लत नहीं था। उनके साधन अवैज्ञानिक, अतार्किक और अति प्रतीकात्मक थे लेकिन जीवन के उद्देश्य में मुक्ति के अंतिम लक्ष्य होने को इंकार नहीं किया जा सकता। यह संसार ही शून्य और अनंत के बीच है और ये दोनों ही लक्ष्यात्मक बिंदु वास्तव में केवल कल्पना और सिद्धांतों में हैं। यथार्थ में नहीं। सो, मोक्ष भी यथार्थ में नहीं है। केवल कल्पना में है।