Monday, 2 September 2019

मोक्ष पर निरर्थक विचार-द्वंद्व

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हुसड़िया चौराहे से ग्वारी चौराहे के बीच रास्ते में एक अपरिचित चाचाजी ने सुकरात के बारे में पूछते हुए रोक लिया। वह साइकल-पथ के किनारे पर लोहे की एक बेंच पर बैठे थे। बोले, सुकरात को अंग्रेजी में क्या कहते हैं। मैंने बताया तो बोले, प्लेटो को अरबी में अफलातून कहते हैं। दार्शनिक बातों की शुरुआत समझकर न चाहते हुए भी उनके बगल में बेंच पर बैठ गया। जैसे ही मैं बैठा, सुकरात-प्लेटो और अरस्तू में सम्बन्ध समझाकर वह चुप हो गए। यह चुप्पी जैसे विषयान्तर को स्पष्ट करने के लिए ज़रूरी ही थी क्योंकि इस विराम के बाद हमारी बातचीत का (लगभग प्रवचन का) ट्रैक बदल गया।

अपरिचित चाचाजी ने अचानक पूछा कि मोक्ष जानते हो? मुझे लगा कि बात सुकरात से शुरू हुई है तो मोक्ष की ज़रूर दूसरी कुछ व्याख्या मिलेगी इसलिए मैंने इस बारे में अल्पज्ञान का संकेत करते हुए ससंदेह कहा कि मेरी जानकारी में तो इसका मतलब है मुक्ति। आध्यात्मिक व्याख्या में जाएं तो 84 लाख योनियों में आवागमन से मुक्ति। सम्पूर्ण स्वतंत्रता। चाचाजी चुप हो गए। मैं प्रतीक्षा करने लगा कि मेरी बात में अब संशोधन किया जाएगा। सन्दर्भ पुराणों से हटाए जाएंगे और कुछ दार्शनिकता या वैज्ञानिकता की बात की जाएगी। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। चाचाजी तो मेरी बात पर सहमत हो गए। बोले, सही है। यही मतलब है। इतना ही नहीं, प्रवचन आगे बढ़ाते हुए बोले कि मनुष्य के जीवन का एक ही उद्देश्य हो। मोक्ष। बाकी सब कुछ विनाशी है। मोक्ष ही असल पुरुषार्थ है जो सही मायने में अविनाशी है। बाकी सभी पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम) के फल नाशवान हैं।

वह मुझे समझाने लगे कि उम्र के एक छोर पर मैं खड़ा हूँ और एक छोर पर तुम हो। मैं अनुभव से कहता हूँ कि खाली वक़्त पर गीताप्रेस की गीता पढ़ा करो। जीवन के बहुत सारे सवालों का जवाब मिल जाएगा। फिर उन्होंने आत्मा की अनश्वरता का वही सिद्धांत समझाया जिसे बचपन से हज़ारों बार सुन चुके हैं। बोले कि मानव होना सौभाग्य की बात है इसलिए इसका महत्त्व समझना और जिस भी ईश्वर को मानते हो उसका भजन करना।

असहमतियां हज़ार थीं उनसे। तकरीबन हर कदम पर। इससे पहले भी एक बार उनसे मुलाक़ात हुई थी। तब भी उनकी बातें प्रगतिशील आधुनिकता के आवरण में रूढ़िवादी पुरातनता का विस्तृत विवरण ही लगी थीं। खैर, यह उनके निजी विचार और विमर्श थे जो निश्चित ही उपदेशात्मक उद्देश्यों के अधीन ही विकसित हुए थे। बुज़ुर्ग हिंदुओं में यह प्रवृत्ति है। अपने अनुभव से यथार्थ बताने की बजाय वह आदर्शवादी हो जाते हैं। धर्म-अध्यात्म की शरण में न सिर्फ जाते हैं बल्कि हर किसी को वहीँ जाने की सलाह देने लगते हैं।

उनसे बातचीत के दौरान मैं उनकी अवस्था विशेष के लोगों का मनोविज्ञान सोच रहा था। नौकरी कर चुकने के बाद, रिटायर हो जाने के बाद जब वह अपना अब तक का हासिल देखते होंगे, जब देखते होंगे कि सामाजिक भागदौड़ का हिस्सा बनकर अंत में क्या मिला? तो ज़रूर एक नैराश्य की छाया उनके दिलोदिमाग पर तारी हो जाती होगी। उन्हें लगता होगा कि अब तक तो कुछ मिला नहीं, अब क्या किया जाए कि जीवन तर जाए। आध्यामिकता ऐसे में उन्हें अंतिम विकल्प नज़र आता होगा। समय चूक जाने के बाद भी सम्भलने का उपाय यहीं मिलता है। हां, उसकी सार्थकता सदैव से संदिग्ध है।

एक सवाल और उठाकर आता होगा। आखिर, यह नैराश्य क्यों है। ऐसा क्या तय करके चले थे कि अभाव महसूस हो। खालीपन महसूस हो। ऐसा क्या करना था कि कर लेते तो संपूर्णता का बोध होता। मोक्ष की दावेदारी होती। क्या बहुत नाम कमा लेना। पैसे कमा लेना। या फिर भगवन्नाम की सांख्यिकी का पहाड़ खड़ा कर देना। किससे मोचन हो? कैसे मोक्ष हो? मनोविज्ञान में भी शायद इसका स्पष्ट जवाब नहीं है। वहां भी कहा गया कि अपने मन से जीना। अपने दिल से जीना। जो ऐसे जिया, उनमे से भी किसी ने दावा नहीं किया कि वह अंतिम में अपने आपको सम्पूर्ण अनुभव करते थे।

आध्यात्म केवल एक उपाय सुझाता है। धर्मगुरुओं के हवाले से वह यह है कि भगवान के नाम का जाप करते जाओ। केवल वह नाम ही मोक्ष दिला सकता है। तुलसीदास लिख गए। कलियुग केवल नाम आधारा। हालांकि, यह बड़ा कुतार्किक लगता है। किसी का ऋणी होना, किसी के प्रति भक्ति रखना एक बात है। केवल उसका नाम जपना दूसरी बात। नाम जपने के लिए जन्म होना मतलब आप आत्मश्लाघा के एक अजीब खेल के टूल भर हैं, जहाँ एक ईश्वर है और उसने आपको बना दिया कि आप उसका नाम जपें। मुझे हाथ-पांव-भाव-संकल्प-जिज्ञासा वाला मानव ऐसा टूल नहीं लगता। इसलिए मैं इसे मोक्ष का उपाय नहीं मानता।

अब सवाल है कि संतुष्टि फिर कैसे हो? समाधान क्या हो? जीवन की साँझ में संतोष का प्रकाश कैसे जीवित रखें? क्या करें कि चाचाजी की अवस्था में पहुंचे तो यह निराशा न हो कि तन-मन-धन में से किसी की भी सेहत पर बुरा असर पड़े। यह सोचते हैं तो लगता है कि संतुष्टि चाहिए ही क्यों? क्या संतोष ही आखिरी लक्ष्य है? संतोष के बाद क्या है? क्योंकि ब्रह्माण्ड का प्रसार तो अनंत है। इसका तो कोई चरम नहीं है। अगर चरम नहीं है इसका सिर्फ माइलस्टोन हो सकता है, पड़ाव हो सकता है, अंतिम बिंदु नहीं हो सकता। हिन्दू ग्रंथों में निरन्तर चलने को ही जीवन कहा गया है। सम्यक प्रकारेण सरति इति संसारः। निर्लक्ष्य। हर दिन नए लक्ष्य बनाते।

संतुष्टि की कोशिश में अभाव चोटिल करने लगते हैं और सैद्धांतिक तौर पर संतोष का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जीवन और इच्छाएं एक-दूसरे के समानांतर चलती हुई रेखाएं हैं। यह अनंत पर मिलती हैं और अनंत होता ही नहीं। तो क्या करें? क्या सही है करना। संसार का उद्देश्य क्या हो। बस चलना। लगातार यात्रा। कुछ भी लक्ष्य नहीं। कोई घर नहीं।

चाचाजी बोले कि स्वर्ग पा लेना भी नाशवान उपलब्धि है। वह भी ख़त्म हो जाना है। वह बड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। समग्रता में। जन्म-मृत्यु के पार तक। इसलिए वह सुझा रहे थे कि मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य हो। उसकी कोई सीमा नहीं है। अनन्त की तरह। अनंत ही अंतिम है। अनंत के आगे कुछ नहीं है। यह सोच भी सही है कि मोक्ष ही लक्ष्य हो। मोक्ष मतलब ही संतुष्टि है। संतुष्टि मतलब जीवन और इच्छाओं का एक बिंदु पर मिलना। वह बिंदु जो अनंत है। अनंत मतलब जो अस्तित्वहीन है। अंतिम मतलब कि संतोष वास्तव में कुछ नहीं है। अभाव ही जीवन को आगे बढ़ाते हैं। वेकैंसी रहना ही अभिक्रियात्मक है। अभिक्रिया नहीं है तो सब शून्य है।

निर्णय ये कि चाचाजी का कहना सर्वथा ग़लत नहीं था। उनके साधन अवैज्ञानिक, अतार्किक और अति प्रतीकात्मक थे लेकिन जीवन के उद्देश्य में मुक्ति के अंतिम लक्ष्य होने को इंकार नहीं किया जा सकता। यह संसार ही शून्य और अनंत के बीच है और ये दोनों ही लक्ष्यात्मक बिंदु वास्तव में केवल कल्पना और सिद्धांतों में हैं। यथार्थ में नहीं। सो, मोक्ष भी यथार्थ में नहीं है। केवल कल्पना में है।

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