दो साल पहले 5 सितंबर को गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई थी। अच्छा है कि जीवन भर हमें गुरु नहीं मिलता। हम इतने असहिष्णु हैं कि गुरु मिल जाए तो दस दिन के भीतर हम उसकी हत्या कर देंगे। हम लंकेश को सार्वभौमिक और आदर्श गुरु की तरह स्थापित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं बल्कि भारतीय समाज की मानस-काया पर गुरु के शरीर से विकिरित होने वाले प्रकाश के ताप को सहन कर पाने की क्षमता का आकलन कर रहे हैं। लंकेश ने किसी को विचारधारात्मक मुक्ति के लिए नहीं उकसाया लेकिन गुरु तो आपको विचारधारात्मक 'मृत्यु' के लिए प्रेरित करता है।
गुरु मृत्यु है
शास्त्रों में कहा है कि 'आचार्यो मृत्यु'। गुरु मृत्यु है। गुरु सबसे पहले आपको 'मृत्यु' देता है। सद्गुरु के पास जाना मृत्यु है और सद्गुरु के पास से जाना निर्वाण। गुरु पहले हमारी विचारधाराएं तोड़ता है, हमारा सारा संसार विनष्ट कर देता है और फिर निर्माण के फूल खिलाता है। नवनिर्माण के फूल। जो यह सहन कर ले, गुरु उसके ही नसीब में है। आत्मिक पर तौर पर हमारी गहरी नींद को देखकर नहीं लगता कि हम ऐसे किसी गुरु के सामीप्य को लेकर जरा भी तैयार हैं। हम उसे भी गौरी लंकेश की तरह मार देंगे। उसकी गैलिलियो की तरह, सुकरात की तरह हत्या कर देंगे।
यह सच है कि ऐसे में हम गुरू की हत्या नहीं करेंगे तो गुरु हमारी हत्या कर देगा। इस खेल में एक का तो मरना तय है लेकिन शिष्य के मरने में सृजन है। गतिशीलता है। गुरु के मरने में अंधकार के द्वार का खुलना है। अज्ञात के रहस्य बने रहने की शाश्वतता पर मुहर है। नींद की अमरता की घोषणा है, इसलिए दीप बुझाने से मिट्टी का संगठन तोड़कर और उसे पुनर्गठित कर दीया बनाने की प्रक्रिया ज्यादा पावन और संसार के अनुकूल है। इसलिए गुरू की हत्या नहीं, शिष्य की मृत्यु सही है, अनिवार्य है।
हत्या की आवश्यकता क्यों?
लेकिन, अगर सवाल उठे कि गुरु को आखिर इस 'हत्या' की आवश्यकता क्यों है? उसे ज्ञान देने के लिए अपने शिष्य को 'मृत्यु' क्यों देनी है? तो इसका उत्तर भी जागृति की हमारी लालसा है। जागरण के लिए नींद का मरना जरूरी है। नींद के सपनों का मरना जरूरी है। नींद में हमारा एक संसार है, उसका विध्वंस जरूरी है। हमारे संसार में मर जाना यही तो है।
हम गुरु के पास जागृति के लिए जाते हैं। जगत की निद्रा से जागरण की ओर, प्रकाश की ओर जाने के लिए। इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व हम नींद में थे। स्वप्न में थे। ख्वाब में कोई भी चीज यथार्थ नहीं है। सब कल्पना है। सब अयथार्थ है। नींद में आपकी जो भी विचारधारा थी, आपका जो भी स्वप्न था, आपका जो भी संसार था, सब काल्पनिक था। अयथार्थ था। झूठा था। गुरु आपके इस स्वरुप की मानस 'हत्या' करता है। हत्या अगर नकारात्मक लगता हो तो मान लें कि गुरु आपको ज्ञान से पहले एक प्रकार की मृत्यु देता है। एक काल्पनिक और अयथार्थ संसार से मुक्ति। इसके बाद ज्ञान की, जागरण की और प्रकाश की आधारशिला रखी जाती है।
गुरु विध्वंसक है
गुरु विध्वंसक है। हमारी रूढ़िगत परम्पराएं और उधार की जीवनशैली तोड़कर ही गुरु हमारे अंदर मौलिकता पैदा करने की कोशिश करता है। हमने जो जीवनशैली, परंपराएं अपने पूर्वजों से उधार ली होती हैं, गुरू उस पर भी प्रहार करता है। उन्हें विनष्ट करता है। हमें अपने भीतर इतने विध्वंस अगर स्वीकार्य हों, तभी हम गुरु के पास रुकने की हिम्मत कर सकते हैं। हमें इस 'मृत्यु' के लिए तैयार होकर ही गुरु के समीप जाना चाहिए।
गुरु के यहां जो सबसे पहले तोड़ा जाएगा वह मंदिर होगा। मठ होगा। मस्जिद और गिरजाघर होगा। आपके धार्मिक पाखण्ड सबसे पहले तोड़े जाएंगे। मंदिर-मस्जिद बनवाने के लिए मुक़दमे लड़ रहे हम लोग ऐसे गुरु को बर्दाश्त कर पाएंगे क्या? हम उसकी हत्या ही कर देंगे और समय-समय पर हम इस चीज को सिद्ध ही कर रहे हैं।
ईश्वर सुलभ पर गुरु नहीं
गुरु जागरण है। हम आराम तलब लोगों के लिए जागरण ठीक बात नहीं। हम सोए हुए ही सुख महसूस करने वाले हैं। गुरु हमें जगा देगा और जगा देने वाले हमें प्रिय कैसे हो सकेंगे। वह तो दुश्मन ही हैं। शास्त्रों में इसीलिए गुरु का मिलना कठिन बताया गया होगा। कबीर इसीलिए गुरु की महत्ता पर अपने सबसे अधिक दोहे रचे होंगे। गुरु तक पहुंचने का मार्ग कठिन तो है। इसलिए गुरू का सबको मिल पाना सहज नहीं है। इसलिए, गुरु का स्थान शायद ईश्वर से भी ऊपर होगा क्योंकि ईश्वर का मिल जाना भी सुलभ हो सकता है लेकिन गुरु का मिल पाना नहीं।
गुरु मांग का परिणाम नहीं
गुरु मांग का परिणाम नहीं है। हो सकता है कि आप गुरु के लिए जिस समस्या का समाधान कराने जाएं उसका हल न मिले। क्योंकि, गुरु मांग का परिणाम है। गुरु वाणिज्यिक प्रत्युत्पन्न नहीं है। जैसे- हमें लंबी यात्राओं के लिए यंत्र की आवश्यकता हुई तो प्लेन, ट्रेन और कार जैसी चीजें बनीं। संपर्क के संसाधनों की जरूरत लगी तो फोन, इंटरनेट जैसी चीजों का आविष्कार हुआ। वैसे ही, भावनात्मक सांत्वना की मांग से गुरु तो मिल जाएंगे लेकिन सद्गुरु पैदा नहीं होंगे। मांग-आपूर्ति के सूत्र से पैदा होने वाले गुरु असंख्य हैं। वह आपके हिसाब से चलेंगे। जैसे बाजार उपभोक्ताओं के हिसाब से चलता है। अब तो वह उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को भी पैदा करने लगा है। ऐसे ही व्यापारिक गुरु भी पहले आपके लिए कष्ट तैयार करेंगे फिर उसके इलाज के लिए दुकानें सजा लेंगे। यह झूठे गुरु हैं।
गुरुविहीन लोग बनेंगे विश्वगुरु?
ऐसे गुरु आपकी अनुभूति का शोषण करेंगे। वे आपको मूल रूप में जिंदा रखेंगे। वे बीज को जमीन के अंदर ही सो जाने को प्रेरित करेंगे और उसके ही उपाय में लगे रहेंगे जबकि सद्गुरु तो आपको सबसे पहले भीतर ही तोड़ देगा। आपके मूल स्वरूप को मार देगा जिसमें आप निद्रित अवस्था में थे। उसके बाद आप स्वतः ही उगने लगेंगे। पौध बनेंगे। फिर वृक्ष बनेंगे। सद्गुरु आपसे 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' के लिए कहेंगे। अगर आप तैयार होंगे, तो आप कबीर हो जाएंगे। फिर आपके मन में भी सदैव एक 'हौंस' रहेगी कि 'क्या ले गुरु संतोषिए।' तब आप 'सात समंद की मसि' और 'सब धरती को कागज' करने के बाद भी 'गुरु गुण' नहीं कह पाएंगे। नहीं तो, आप गुरु की हत्या कर देंगे। प्रतिकूलता को बर्दाश्त कर पाने की हमारी यही आदत हमें गुरुविहीन कर रही है और हम विश्वगुरु बनने के सपने देख रहे हैं।
नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में
गुरु मृत्यु है
शास्त्रों में कहा है कि 'आचार्यो मृत्यु'। गुरु मृत्यु है। गुरु सबसे पहले आपको 'मृत्यु' देता है। सद्गुरु के पास जाना मृत्यु है और सद्गुरु के पास से जाना निर्वाण। गुरु पहले हमारी विचारधाराएं तोड़ता है, हमारा सारा संसार विनष्ट कर देता है और फिर निर्माण के फूल खिलाता है। नवनिर्माण के फूल। जो यह सहन कर ले, गुरु उसके ही नसीब में है। आत्मिक पर तौर पर हमारी गहरी नींद को देखकर नहीं लगता कि हम ऐसे किसी गुरु के सामीप्य को लेकर जरा भी तैयार हैं। हम उसे भी गौरी लंकेश की तरह मार देंगे। उसकी गैलिलियो की तरह, सुकरात की तरह हत्या कर देंगे।
यह सच है कि ऐसे में हम गुरू की हत्या नहीं करेंगे तो गुरु हमारी हत्या कर देगा। इस खेल में एक का तो मरना तय है लेकिन शिष्य के मरने में सृजन है। गतिशीलता है। गुरु के मरने में अंधकार के द्वार का खुलना है। अज्ञात के रहस्य बने रहने की शाश्वतता पर मुहर है। नींद की अमरता की घोषणा है, इसलिए दीप बुझाने से मिट्टी का संगठन तोड़कर और उसे पुनर्गठित कर दीया बनाने की प्रक्रिया ज्यादा पावन और संसार के अनुकूल है। इसलिए गुरू की हत्या नहीं, शिष्य की मृत्यु सही है, अनिवार्य है।
हत्या की आवश्यकता क्यों?
लेकिन, अगर सवाल उठे कि गुरु को आखिर इस 'हत्या' की आवश्यकता क्यों है? उसे ज्ञान देने के लिए अपने शिष्य को 'मृत्यु' क्यों देनी है? तो इसका उत्तर भी जागृति की हमारी लालसा है। जागरण के लिए नींद का मरना जरूरी है। नींद के सपनों का मरना जरूरी है। नींद में हमारा एक संसार है, उसका विध्वंस जरूरी है। हमारे संसार में मर जाना यही तो है।
हम गुरु के पास जागृति के लिए जाते हैं। जगत की निद्रा से जागरण की ओर, प्रकाश की ओर जाने के लिए। इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व हम नींद में थे। स्वप्न में थे। ख्वाब में कोई भी चीज यथार्थ नहीं है। सब कल्पना है। सब अयथार्थ है। नींद में आपकी जो भी विचारधारा थी, आपका जो भी स्वप्न था, आपका जो भी संसार था, सब काल्पनिक था। अयथार्थ था। झूठा था। गुरु आपके इस स्वरुप की मानस 'हत्या' करता है। हत्या अगर नकारात्मक लगता हो तो मान लें कि गुरु आपको ज्ञान से पहले एक प्रकार की मृत्यु देता है। एक काल्पनिक और अयथार्थ संसार से मुक्ति। इसके बाद ज्ञान की, जागरण की और प्रकाश की आधारशिला रखी जाती है।
गुरु विध्वंसक है
गुरु विध्वंसक है। हमारी रूढ़िगत परम्पराएं और उधार की जीवनशैली तोड़कर ही गुरु हमारे अंदर मौलिकता पैदा करने की कोशिश करता है। हमने जो जीवनशैली, परंपराएं अपने पूर्वजों से उधार ली होती हैं, गुरू उस पर भी प्रहार करता है। उन्हें विनष्ट करता है। हमें अपने भीतर इतने विध्वंस अगर स्वीकार्य हों, तभी हम गुरु के पास रुकने की हिम्मत कर सकते हैं। हमें इस 'मृत्यु' के लिए तैयार होकर ही गुरु के समीप जाना चाहिए।
गुरु के यहां जो सबसे पहले तोड़ा जाएगा वह मंदिर होगा। मठ होगा। मस्जिद और गिरजाघर होगा। आपके धार्मिक पाखण्ड सबसे पहले तोड़े जाएंगे। मंदिर-मस्जिद बनवाने के लिए मुक़दमे लड़ रहे हम लोग ऐसे गुरु को बर्दाश्त कर पाएंगे क्या? हम उसकी हत्या ही कर देंगे और समय-समय पर हम इस चीज को सिद्ध ही कर रहे हैं।
ईश्वर सुलभ पर गुरु नहीं
गुरु जागरण है। हम आराम तलब लोगों के लिए जागरण ठीक बात नहीं। हम सोए हुए ही सुख महसूस करने वाले हैं। गुरु हमें जगा देगा और जगा देने वाले हमें प्रिय कैसे हो सकेंगे। वह तो दुश्मन ही हैं। शास्त्रों में इसीलिए गुरु का मिलना कठिन बताया गया होगा। कबीर इसीलिए गुरु की महत्ता पर अपने सबसे अधिक दोहे रचे होंगे। गुरु तक पहुंचने का मार्ग कठिन तो है। इसलिए गुरू का सबको मिल पाना सहज नहीं है। इसलिए, गुरु का स्थान शायद ईश्वर से भी ऊपर होगा क्योंकि ईश्वर का मिल जाना भी सुलभ हो सकता है लेकिन गुरु का मिल पाना नहीं।
गुरु मांग का परिणाम नहीं
गुरु मांग का परिणाम नहीं है। हो सकता है कि आप गुरु के लिए जिस समस्या का समाधान कराने जाएं उसका हल न मिले। क्योंकि, गुरु मांग का परिणाम है। गुरु वाणिज्यिक प्रत्युत्पन्न नहीं है। जैसे- हमें लंबी यात्राओं के लिए यंत्र की आवश्यकता हुई तो प्लेन, ट्रेन और कार जैसी चीजें बनीं। संपर्क के संसाधनों की जरूरत लगी तो फोन, इंटरनेट जैसी चीजों का आविष्कार हुआ। वैसे ही, भावनात्मक सांत्वना की मांग से गुरु तो मिल जाएंगे लेकिन सद्गुरु पैदा नहीं होंगे। मांग-आपूर्ति के सूत्र से पैदा होने वाले गुरु असंख्य हैं। वह आपके हिसाब से चलेंगे। जैसे बाजार उपभोक्ताओं के हिसाब से चलता है। अब तो वह उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को भी पैदा करने लगा है। ऐसे ही व्यापारिक गुरु भी पहले आपके लिए कष्ट तैयार करेंगे फिर उसके इलाज के लिए दुकानें सजा लेंगे। यह झूठे गुरु हैं।
गुरुविहीन लोग बनेंगे विश्वगुरु?
ऐसे गुरु आपकी अनुभूति का शोषण करेंगे। वे आपको मूल रूप में जिंदा रखेंगे। वे बीज को जमीन के अंदर ही सो जाने को प्रेरित करेंगे और उसके ही उपाय में लगे रहेंगे जबकि सद्गुरु तो आपको सबसे पहले भीतर ही तोड़ देगा। आपके मूल स्वरूप को मार देगा जिसमें आप निद्रित अवस्था में थे। उसके बाद आप स्वतः ही उगने लगेंगे। पौध बनेंगे। फिर वृक्ष बनेंगे। सद्गुरु आपसे 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' के लिए कहेंगे। अगर आप तैयार होंगे, तो आप कबीर हो जाएंगे। फिर आपके मन में भी सदैव एक 'हौंस' रहेगी कि 'क्या ले गुरु संतोषिए।' तब आप 'सात समंद की मसि' और 'सब धरती को कागज' करने के बाद भी 'गुरु गुण' नहीं कह पाएंगे। नहीं तो, आप गुरु की हत्या कर देंगे। प्रतिकूलता को बर्दाश्त कर पाने की हमारी यही आदत हमें गुरुविहीन कर रही है और हम विश्वगुरु बनने के सपने देख रहे हैं।
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