Monday, 21 November 2016

कविताः तब जागता है...


आकाश के अवकाश में
जब रात अंधेरों की लहरें
ढांक लेती हैं शहर।
जब नील बादल
श्याम वर्णी,चाँद तारों से टँके चादर पहनकर,
नींद में होने को उद्यत हो रहा होता है,तब,
जब मार्ग-गलियाँ और चौराहे हमारे गाँव के,
सब ओढ़ लेते मौन,
उनके गात पर बिखरे से दिखते 
चिन्ह अनगिन पाँव के।
जब विश्व की आँखों पे लग
जाती है पलकों की किवाड़ी।
गाँव के पश्चिम से आती है हवा जब,
कलकलाती राप्ती के शीत जल में
केश को अपने भिगोकर,
और इठलाते हुए चलती है
खेतों की असमतल मेड़ पर,
सब वृक्ष-पौधे-फूल जब उस यौवना के
अप्रतिम सौंदर्य पर यूं मुग्ध होकर।
झूमते गाते,प्रणय के गीत सुंदर।
जब धवल-निर्दोष-पावन चांदनी की हर पुकारों पर 
सुगंधों की किरण को बांटती है रातरानी।
जब दिवसभर की अथक-अविराम चंचल हरकतों के
अस्त-व्यस्तित,एक वृद्धा के चतुर्दिक,
सो रहे जत्थों के बीचो बीच
सो जाती है नानी की कहानी।
जब बटेसर के दरकते झोपड़े के,
सामने के ताख पर जलता है मिट्टी का दिया,
जब गाँव से दो कोस पर
इक झोपड़ी में ओम बाबा,
जपते हुए श्रीराम के हर नाम पर
हैं जोड़ते जाते प्रभु के नाम का ही काफ़िया।
तब जागती है एक चिंता,
जीर्ण सी उस खाट पर लेटे
हुए सरजू के मन में।
साथ जिसके जागता है 
सेठ के खाते में पंजीकृत उधारी का भयंकर सूद।
और खेतों में पड़े कुछ अन्न के ऊपर उगी
सुखी हुयी झाड़ी सदृश,जिसको
फसल कहता है,वो बदकिस्मती।
तब जागता कर्तव्य है,उस रेत के जंगल में भी,
उन पर्वतों के गोद में भी,मृत्यु है सस्ती जहाँ,
और अग्नि को भी जो गला दे,
बर्फ के आगोश में भी,
जागता है लांस नायक,जागृति सोती जहां।
तब जागते हैं ख्वाब कुछ,
नींदों की किरणों से हुए उस भोर में।
तब जागती है एक आशा,
ओस के ठंडे थपेड़ों से डरे उद्यान में।
तब जागता है सत्य शाश्वत,
कल सुबह फिर से उगेगा,सूर्य 
अपनी दीप्ति ले,
इस तिमिर युक्त वितान में।
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राघवेंद्र शुक्ल

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