एक दिन की बात
है।अवस्थीलाल के दोनो लड़के अभय और विष्णु बस्ती के अपने दोस्तों के साथ खेल रहे
थे।यमुना तट पर टहल रहे राजेश कुमार शर्मा की नजर धूल-धूसरित वस्त्र वाले इन खेलते
हुए बच्चों पर पड़ी।उन्होने उन सभी को पास बुलाया और पूछा कि कहां पढ़ते हो।बच्चों
ने कहा,हम पढ़ने नहीं जाते।हम खेतों में काम करते हैं।राजेश कुमार को यह बात
नागवार गुजरी।देश का भविष्य इस तरह अशिक्षित और उपेक्षित हो,यह बात उन्हे मंजूर
नहीं था।उन्होने बच्चों के मां-बाप से संपर्क किया।उन्हे आश्वस्त किया कि शिक्षा
से ही उनके बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।फिर क्या था,एक अस्थायी
स्कूल के तौर पर एक झोपड़ी में राजेश कुमार बच्चों को पढ़ाने लगे।बाद में
शिक्षादान का यह पुनीत कार्य डीडीए के नियमों के आड़े आने लगा।झोपड़ी तोड़ दी
गयी।स्कूल टूट गया।और साथ ही टूट गये सपने,एक बेहतर और कामयाब जिंदगी के निर्माण
के।बच्चों के अभिभावकों ने राजेश शर्मा से गुहार लगायी।आखिर उनके बच्चों के भविष्य
का जो सवाल था।राजेश कुमार को तो देश के नौनिहालों को शिक्षित करने का धुन सवार
था।
बात 2010 की है।एक तरकीब निकाली गयी।यमुना बैंक मेट्रो
ओवरब्रिज के नीचे राजेश कुमार ने कक्षाएं लेनी शुरू की।अजय और भरत नाम के दो
बच्चों के साथ राजेश कुमार ने 15 दिसंबर
2010 को ‘फ्री स्कूल अण्डर द ब्रिज’ का उद्घाटन किया।और शुरु हो गया एक अनोखा सिलसिला,शिक्षादान का।जहां ज्ञान
बांटने का जुनून और ज्ञान प्राप्त करने की ललक किसी सुविधाओं की मोहताज नहीं
थी।राजेश कुमार का समर्पण देख बिहार के मगध विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक
लक्ष्मी चन्द्र ने भी फ्लाइओवर स्कूल को उसके उद्देश्यों तक ले जाने के कार्य में
अपना योगदान देने का निश्चय किया।
‘मैं तो
अकेला चला था जानिबे मंज़िल पर,लोग साथ आते गये,कारवां बनता गया’।कुछ इसी पंक्तियों का अनुसरण करता है राजेश कुमार का
प्रयास।दो छात्रों के साथ शुरु किया गया उनका स्कूल दो-चार महीनों देखते ही देखते
200 छात्रों का विद्यालय बन गया।अवस्थीलाल के दोनों बच्चे अब स्कूल जाते
हैं।हां..उसी फ्लाईओवर वाले स्कूल में।उसी स्कूल में जहां किताबें और कापियां
मुफ्त मिलतीं हैं।जहां निशुल्क शिक्षादान के माध्यम से आने वाले समय में देश के
हाथ मजबूत करने की कवायद चल रही है।वही स्कूल जहां ऊपर रेल की पटरियों पर गतिमान मेट्रो
दौड़ रही है,और नीचे भविष्य का हिंदुस्तान दुनिया से कदमताल करने की तरकीबें सीख
रहा है।
फ्लाईओवर की दीवारों पर
तीन जगह पेंट पोतकर बनाए गए ब्लैकबोर्ड वाले इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का
उत्साह देखते बनता है।किसी को यहां डाक्टर बनना है,तो किसीकी ख्वाहिश पुलिस बनने
की है।जमीन पर बैठकर पढ़ने वाले इन छात्रों का हौसला आसमान छू रहा है।हर चार मिनट
पर ऊपर से गुजरने वाली मेट्रो का शोर भी मासूम आँखों में स्वप्नों के पंख उगाने के
काम को बाधित नहीं कर पाती।
साल 2011 की जनगणना के
अनुसार,भारत में ऐसे बच्चों की संख्या 78 लाख के आस पास है जो स्कूल तो जाते हैं
मगर उनका परिवार उन्हे इसके अतिरिक्त जीविका के लिए काम करने को भी विवश करता
है।और तो और देश में 8.4 करोड़ बच्चे ऐसे भी हैं जो किन्ही कारणों से स्कूल ही
नहीं जाते।यह संख्या शिक्षा का अधिकार कानून के तहत आने वाले कुल बच्चों की संख्या
का 20 फीसदी है।आँकड़े कितने गंभीर और हैरान करने वाले हैं।शिक्षा का अधिकार कानून
लागू होने के बाद प्राथमिक विद्यालयों में 7लाख क्लासरूम,साढ़े पांच लाख टायलेट और
34000 प्याऊ जैसी सुविधाएं तो बढ़ीं हैं,लेकिन अब भी सिर्फ 8 फीसदी प्राइमरी स्कूल
आरटीई के मानदण्डों पर खरे उतरे हैं।कुछ इसी तरह के हालात देश में अवस्थीलाल जैसे
लोगों की ख्वाहिशों को पंख देने के लिए राजेश शर्मा और लक्ष्मीचंद जैसे लोगों और
फ्लाईओवर स्कूल जैसे संस्थानों का महत्व और इनकी आवश्यकता अनिवार्य कर देते
हैं।निस्वार्थ समर्पण और समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन
करने के लिए हमे राजेश शर्मा और लक्ष्मीचंद जैसे द्रोणाचार्यों को नमन तो करना ही
चाहिए,साथ ही साथ देश के मस्तिष्क की नींव को खोखला करने वाली इन अव्यवस्थाओं के
खिलाफ हर स्तर पर आवाज भी बुलंद करनी चाहिए।तभी अवस्थीलाल जैसे लोग भी अपने बेटों
के लिए सपने देख सकेंगे।।
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