सर पटकता हूँ मैं,
स्मृतियों के किताबों में,
अपना गुनाह ढूँढने की
कोशिश में।
मोम की तरह जलकर पिघलकर
बहता हूँ,तुम्हारा साथ पाने की
ख्वाहिश में।
कई दिन से,कई दिनों तक।
तुम्हारे हर बयान में सूँघता रहता हूँ,
मुझसे हुए किसी
अनजान अपराध का सुराग़।
पता है,
इस अपराध की सजा अगर मौत है,
तो भी कम है,
क्योंकि वह,तुम्हारे
मुझे देख
नज़रें फेर लेने से ज्यादा
तकलीफ नहीं दे सकती।
पर अब
थक गया हूँ,
जल जलकर,
आशाओं की भट्ठी में,
कि तुम फिर लौटोगे।
थक गया हूँ
सांसों की रफ़्तार और,
दिल की धड़कनों को थामते थामते।
मेरे अधरों की हंसी,
हमारी दोस्ती के बीच खड़े
एक अदृश्य पहाड़ से टकराकर,
हो जाती है चकनाचूर।
तुम्हारे बिन अकेलेपन का इक उड़नखटोला,
उदासी के वरद आकाश में
हमारे मन को ले जाता है
कहीं दूर।
और खोया सा,भटकता सा,
मैं फिरता हूँ इतस्तः।
मुझे इतना न भटकाओ,
बस इतना बताओ,
हमारी श्वेत मैत्री की चदरिया पर,
किसी संदेह सा चिपका हुआ
ये स्याह क्या है?
मना करता नहीं,रूठो!
तुम्हारा मन जभी हो,
मनाऊँगा! मगर ये तो बता दो,
मैं अभियुक्त हूँ जिसका,
मेरा वो गुनाह क्या है?
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-राघवेंद्र शुक्ल
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