जब
दीवारों का लाल रंग
कारनामों के काले हो जाने पर
आँखों में उतर आता हो।
जब
अविरत और अबाध
बहने वाली हवाओं की,
गुब्बारे की सरहद में
बंधने की मजबूरी
संयम की सीमा
पार करने का सिग्नल देने लगे।
जब
सलाम करने वाले हाथों की दूरी
गिरेबां से कम होने का
भय महसूस होने लगता हो।
तब 'साहब' की छटपटाहट
का अक्स
उनके चेहरे पर नहीं,
उनकी आँखों में नहीं,
उनकी जुबां पर नहीं,
'चौराहे' से उठती किसी
आवाज़ के हश्र में
दिखायी पड़ता है।
सड़क पर ज़ारी
सन्नाटों को कायम रखने की कोशिश में
देखा जा सकता है।
'अधिकार' और 'कर्तव्य'
के शब्दों के शिल्प
से बनी हर बुलन्द 'शाब्दिक आवाज' के फ़टे
बिखरे पन्नों में देखा जा सकता है।
'मंचों' के आइनों पर
पत्थर फेंकते हाथों की
स्फूर्ति,तत्परता और बौखलाहट में देखा जा सकता है।
तब 'साहब' की छटपटाहट का अक्स
'सभाओं' में शहीद
'कविता' की हर एक पंक्ति
से जलती मशालों की
हर लपट से उठने वाली
रौशनी की
तीव्रता में देखा जा सकता है,
जिसमें जलकर राख हो ही जाती है
'साहब' की छटपटाहट भी,
और 'साहब' की औकात भी।
--राघवेंद्र शुक्ल
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