Monday, 17 April 2017

कविताः इक बार जी लेते

अकेलेपन का मंजर इस कदर है
भीड़ में भी,आजकल
है हो गया जीवन का मौसम
यूं कि बादल
हैं गरजते पर बरसते ही नहीं हैं
कभी लगता है यूं मुझको
कि जैसे दिल हथेली में
जकड़कर
नोचता कोई।
कि जैसे खून लावा बनके
बहता है रगों में।
कि जैसे थाम रखा हो
पलक ने सात सागर को
नयन में।
कि जैसे सात मरुतों के मिलन से
उठ रहा तूफ़ान कोई
सांस में बंधक बना हो,
वही अब मुक्त होना चाहता हो।
कि जैसे इस अँधेरी रात की कोई
सुबह होती ही न हो।
कि जैसे रात के पंजे में फंसकर
छटपटाती सी सुबह हो।
कि जैसे विश्व सारा
काटने को दौड़ता हमको।
सभी उल्लास,सभी परिहास
सभी निर्णय,सभी निश्चय
सभी आनन्द,रचना-छंद,
सारे हर्ष,पूरे वर्ष-
जीवन से रहे जाने कहाँ गायब।
कहीं भी चैन,दिल-मन-नैन,
ढूंढे पा नहीं सकते।
दिलों की भूमि वो रणभूमि
जिसको छोड़कर भी हम कहीं पर
जा नहीं सकते।
ठहर भी तो नहीं सकते,
न चल पाना ही वश में है।
ये दुनिया इस तरह थी गर,
या जीवन की परीक्षा इस कदर
होती है तो,
ये दुनिया और ये जीवन-
मेरे मौला,मेरे मालिक
मेरे ईश्वर, मेरे भगवान,
मुझसे छीन ही लेते।
कबर में ही सही,या फिर
चिताओं पर ही,पल भर तो
पुनः
वो दिन पुराने खुशनुमा,निश्चिन्त
ह्रदय की पीर से जो मुक्त थे
क्षण भर सही,दो पल सही
इक बार जी लेते।
इक बार जी लेते...
-राघवेंद्र

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