Sunday, 9 April 2017

कविताः मैंने देखा...

मैंने देखा,
चाँद को इस पार से उस पार जाते।
नभ में चमकता वृत्त जब पूरब दिशा में
आ गया था यात्रा आरम्भ करने।
जल-तरंगों सी धरा की हलचलों को
बर्फ सा नीरव-स्थिर-स्तम्भ करने।
आज ठाना था नहीं कर पायेगा यह
चाँद मेरी हलचलों को शांत-स्थिर।
आज सोचा है नहीं नींदों में हूँगा,
जागृति होगी मेरे कण-कण से ज़ाहिर।
कौन जाने जीत होगी हार या फिर,
कर्म है अधिकार बस, अपना यहाँ पर।
आज जगकर देखता हूँ वो जगह भी
है टूटता-बनता कोई सपना जहां पर।
सच कहूँ
नींद इन रातों के ही हैं जो हमारे
स्वप्न इन आँखों के सारे मार जाते।
आज उन स्वप्नों की रक्षा के लिए ही,
मैंने देखा,
चाँद को इस पार से उस पार जाते।।
--राघवेंद्र

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