Tuesday, 4 April 2017

कविताः मौन हैं,मरे नहीं

तिमिर को दर्प हो गया,
जो उसने आँख खोल दी,
तो दीप-वीप,सूर्य-वूर्य
चाँद-वांद ढल गए।
कि फूल-वूल मिट गए
कि कोयलें दुबक गयीं,
कि रौशनी कुचल गयी।
सभी नगर,सभी डगर
कि गाँव,बाग़,द्वार,घर
ख़ुशी के सारे आसरे,
हंसी के सारे पैंतरे,
विशाल कृष्ण रात्रि-कण्ठ
खा गए-निगल गए।
तिमिर को दर्प हो गया
जो उसने आँख खोल दी,
तो रास्तों का बोलना,
तो ज़िन्दगी का डोलना,
तो जागृति का जागना,
तो कालरथ का भागना,
तो प्रश्न की प्रगल्भता,
तो सत्य की वाचालता,
घने तिमिर के कुण्ड में
पिघल-पिघल,पिघल-पिघल
अखण्ड मौन-शान्ति-भय
में ढल गए,बदल गए।
...मगर तभी मुंडेर पर,
तिमिर का वक्ष भेदकर,
चला था थाम ज्योति-कर,
वो अपनी आग बांटकर,
असंख्य दीप को जला
गरज उठा वितान में,
तिमिर! तुम्हारे भौंकने से,
डांटने से,छौंकने से,
सत्य तो टले नहीं।
ये शांति है तो भूलकर
ये भ्रान्ति पालना नहीं,
हम शांत हैं,डरे नहीं,
न युद्ध से परे कहीं,
न शस्त्र ही धरे कहीं।
इसीलिए ये जान ले,
या मैं कहूँ कि मान ले,
हमारी जीत-हौसले,
हमारी नीति-फैसले,
किसी भी भाग्य-साग्य के,
कभी भी आसरे नहीं।
कि मौन हार मान मत,
कि अपना शीश तान मत।
हम मौन हैं,डरे नहीं।
हम मौन हैं मरे नहीं।
हम मौन हैं...मरे नहीं।
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--राघवेंद्र 

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