वायरल अंकल का डांस वीडियो वायरल होते ही पेट्रोल की महंगाई का प्रतिरोध पार कर भी हमारे मीडिया के जांबाज़ अंकल के घर पहुँच गए। उनका इंटरव्यू लिया गया जो अखिल भारतीय नृत्यकला प्रशिक्षण और प्रेरणा के लिए ऐतिहासिक जरूरत है। ऐसे ही कुछ दिन पहले कोई प्रिया प्रकाश वारियर भी वायरल हुई थीं। तब हिंदुस्तान का आखिरी किनारा भी दिल्ली से काफी नज़दीक हो गया था। सभी के माइक के पीछे वारियर थीं और कैमरे पर उनका मुस्कुराता चेहरा। रातोरात प्रसिद्धि के उड़नखटोले पर विराजमान उस दिव्य महिला के सौंदर्य और उसकी खुशी पर समूचा देश मोहित था। हमें उसकी खुशी करीब से महसूस हो इसलिए समाचार वालों ने दिन भर उसके हंसते चेहरे के प्रसारण की पुनरावृत्ति की हद कर डाली थी।
वायरल चीजें हैं भाई। जो देश देखना चाहता है हम तो वही दिखाते हैं। लेकिन मैं नहीं मान सकता कि देश गुज्जू पहलवान का डांस नहीं देखना चाहता होगा। हाँ, थोड़ा बोरिंग है पर डांस तो डांस है। नृत्य कला। एकदम नए जमाने की नृत्य कला। पहले कभी नहीं देखी गयी। गुज्जू पहलवान कोई प्रोफेशनल डांसर नहीं थे। किसान थे। डांस तो उनसे देश की कला-प्रेमी सरकार ने जबर्दस्ती करवाया। खेत के लिए बैंक से लगायत खाद-बीज-विक्रय केंद्र तक नाचने के बाद गुज्जू ने आखिरी नाच में तो कमाल कर दिया। बिना प्राण के नाचना तो कमाल ही है न। पहलवान आखिरी बार नाचे अपने दुआर पर खुद ही के लगाए नीम के पेड़ पर। गले में फंदा था। टांगें जमीन से कुछ ऊपर थीं और शरीर एक शांत, स्थिर डांस में मग्न। वीडियो तो नहीं, फोटो वायरल हुआ। बहुत वायरल हुआ। ट्वीट भी हुआ। लोग रोए, धिक्कारे सब किए। एमपी वाले मामा तब मुंह में पान चबाकर भोपाल की सड़क (बेटर दैन अमेरिका) रंग रहे थे। नहीं तो बोलते जरूर कि पसन्द आया डांस।
टीवी का असर बहुत दूर तक है। मामला वहां पहुँच जाए तो नदियापार वाले जेबकतरा भक्कू की चोरी हुई साइकिल के बदले नयी मोटरसाइकिल सरकार घर आकर दे जाती है। बस नाटक मज़ेदार होना चाहिए कि टीवी पर चले तो लोगों का अच्छा खासा मनोरंजन हो। मनोरंजन से कोई समझौता नहीं। मनोरंजन के लिए हम किसी के मौत का भी तमाशा बना सकते हैं। बस, एंटरटेनमेंट-एंटरटेनमेंट-एंटरटेनमेंट। खैर, यही सोचकर मद्रास वाली मंडली ने पहली बार स्क्रिप्ट लिखी। तैयार होकर आए। लेकिन क्या करें। 'प्रचारक' तो नहीं थे। किसान ही तो थे। उन्होंने सोचा जब यही सब करने से लोग 'ट्वीट' करेंगे तो यह भी कर लें। लेकिन कोई फायदा नहीं। ट्वीट तो छोड़िए किसी 'सफेद कबूतर' ने 'बीट' तक करने की जरूरत नहीं समझी।
इसलिए, खेत वालों को अभी और मेहनत करना चाहिए। थोड़ा डांस-वांस सीखें। गाना-वाना गाएं तब तो लोग देखना पसंद करने के बारे में सोचें भी। क्या हर बार वही रोना रोते रहें कि 'कर्ज माफ कर दो' - 'कर्ज माफ कर दो'। कर्ज क्या पेड़ पर उगते हैं! वो 'पेड' पर उगते हैं। जिसने 'पेड' किया उसको कर्ज भी अदा किया और उसके प्रति फ़र्ज़ भी अदा किया। तुम रोना रोओ। देते भी क्या हो! चावल-दाल-रोटी। कुछ इनोवेटिव करो यार। जिससे मज़ा आए। नहीं कुछ तो गेंहू-चावल का नाम ही बदलो। जैसे, चावल का नाम बदलकर 'वंदे मातरम अन्न' और गेहूं का नाम 'जय हिंद दाना' करो। देशभक्ति झलके। तब तो लोग इमोशनली जुड़ेंगे। यू नो! देश ही सबकुछ है। तुम्हारे खेत से देशभक्ति वाली फीलिंग ही नहीं आती। एक तो फसल भी तुम्हारी हरी-हरी होती है। उगाओगे भारत की जमीन पर पाकिस्तान का झंडा। तुम्हारे देशद्रोह पर बुलेटिन नहीं चलवा रहे, ये क्या कम है!
देखिए! वायरल अंकल के डांस के परम आनन्द के बीच किसान की याद दिलाने का अपराध मैं बिल्कुल नहीं करना चाहता था। लेकिन उन्हें भी समझाना जरूरी हो गया था कि हर बार का नाटक बंद करें। सारा देश अंकल का वायरल डांस देखने में बिजी है। किसानों ने अपनी सब्जियां सड़क पर फेंक दी तो क्या हुआ। इससे हमारे (अ)धर्म को, हमारी देश(भक्ति) को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचा। किसानों ने दूध ही तो सड़क पर बहाया है। अब ये तो कन्फर्म नहीं ही है कि दूध गाय का है। एक बार हो जाए तो हड्डी पसली एक करने में देर थोड़े लगेगी। ऐसे नाटक चलते रहते हैं। सब मीडिया में आने की ललक है। मैले-कुचैले कपड़ों के साथ देश को रुलाने के लिए टीवी पर आना है इनको। अरे, देश को हंसने दीजिए भाई। वैसे ही कितने सारे रोने के संसाधन जनता के पास उपलब्ध हैं। जिस टीवी पर तुम रोने जा रहे हो वहां देश के जिम्मेदार प्रतिनिधि लाखों रुपए की सैलरी लेकर जनता को हंसाने का काम करते हैं। वे मेहनत करके ऐसे वाहियात बयान देते हैं जिस पर जनता हंसे और आलू-टमाटर-दाल-पेट्रोल के दर्द को भुलाए रखे। मंत्री जी ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि तुम लोग मीडिया में आने के लिए ही ये सब करते हो। मंत्री जी को डर है कि अगर तुम मीडिया में आ जाओगे तो उनका क्या होगा। महीने में दो-तीन बार जब तक मंत्री जी को फुटेज नहीं मिलता है तब तक उनका दस्त ठीक नहीं रहता। उनकी भी तो सोचो।
सोशल मीडिया पर लिखने वाले धुरंधरों की भी अपनी मजबूरी है। वह अपने सभी करुण शब्दों को विभिन्न घटनाओं पर खर्च कर चुके हैं। वे अब कुछ भी लिखते हैं तो बहुत बोरिंग लगता है। वो क्या ही करें। इतनी बार उन्हें भावुक पोस्ट लिखना पड़ता है कि शब्दों और आंसू का स्टॉक ही खत्म हो जाता है। वैसे, जनता का दुख-दर्द दूर करने की यह सरकारी नीति भी हो सकती है। इससे आप सुख में और दुख दोनों में एकदम सामान्य रहने लगेंगे। सरकार ने वह स्टेटस पढ़ा है जो एक बार द्वापर में श्रीकृष्ण ने अपने वाट्स एप पर लगाया था। जिसमें उन्होंने कहा था कि सुख-दुख में समान रहने वाला ही योगी है। सरकार सबको योगी बना रही है तो इसमें क्या हर्ज है। क्या पता, कब मुख्यमंत्री या राज्यमंत्री का दर्जा मिल जाए। हम सबको वहीं तो पहुंचना है। जब तक तुम्हारी बात करेंगे लात खाएंगे। कुर्सी मिलने के बाद कहां तुम-कहां हम।
वायरल होना है तो रोना छोड़ो। कुछ नया करो। बिना वायरल हुए कौन पूछेगा तुम्हें? वैसे भी वायरल के नाम पर तुम्हारे हिस्से सिर्फ वायरल वाला बुखार ही आता है। ये दूध फेंकने, सब्जियां फेंकने से काम नहीं बनेगा। लोग इतनी बार ये 'नाटक' देख चुके हैं कि अब भावुक होने भर की भावुकता उनके जेहन में बची ही नहीं है। लोगों का दिल भी तो अब सरकार-सरकार हो गया है, कुछ भी करो वह क्या ही पिघलेगा!
(5 जून 2018 को जनसत्ता वेब में प्रकाशित)
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