Tuesday, 5 June 2018

पर्यावरण मंथन: 'प्रकृति' की नाराजगी के आगे घुटने टेकती 'संस्कृति'


आर्कटिक के बर्फीले देश की सफ़ेद लोमड़ी अपने रंग का फायदा उठाकर शिकार करती है। वह सफ़ेद बर्फ में छिप जाती है और सच में लगभग अदृश्य हो जाती है। ऐसा वह तब भी करती है जब बाज़ उसका शिकार करने की कोशिश करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आर्कटिक पिघल रहा है। लोमड़ी का सफ़ेद रंग अब काम नहीं आ रहा। उसकी समूची प्रजाति पर खत्म होने का संकट आन पड़ा है। रंग सिर्फ लोमड़ी की धरती का नहीं बदल रहा है। आपकी अपनी धरती का भी बदल रहा है। बहुत तेजी से। पर्यावरण संकट का शोक गीत गाते आज 43 साल बीत गए। वैश्विक तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। ऐसे में आर्कटिक लोमड़ी केवल एक उदहारण है। हमारी तथाकथित विकास-धारा में धरती के विभिन्न कोनों में ऐसी न जाने कितनी प्रजातियां अपने अस्तित्व की समाप्ति के संकट के मुहाने पर खड़ी हैं। और किसी की क्या बात करें, हमारी अपनी प्रजाति क्या इस संकट से अछूती है!

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कार्बन उत्सर्जन में तत्काल कमी नहीं लायी गयी तो सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में भयानक स्तर की वृद्धि होगी। ये वृद्धि हम अभी ही नहीं झेल पा रझे हैं। सोचिए, आने वाली पीढ़ियां इसे कैसे झेलेंगी। इसके दुष्प्रभाव देश के अनेक हिस्सों में दिखाई देने लगे हैं। शिमला के लोगों ने अपने पर्यटकों से अपील की है कि हमारे यहाँ हमारे लिए ही पानी नहीं है, आपको क्या पिलाएंगे। इसलिए यहाँ न ही आइये। हमारे यहाँ आगंतुकों का पानी और मीठा से स्वागत करने की परंपरा रही है। लेकिन वहां अब मीठा बचा है। पानी नहीं है। देख लीजिए, स्वाद और रंग से हीन एक पदार्थ आपके जीवन के सारे रंग कैसे छीन लेता है। इतनी सुंदर जगह शिमला। लोगों ने किसी बाहरी को वहां आने से मना कर दिया है। होटलों ने बुकिंग बंद कर दी है। अतिथि देवो भवः की संस्कृति ने प्रकृति की एक नाराजगी के आगे घुटने टेक दिए हैं। अब ये आपको सोचना है कि आप प्रकृति को बचाएंगे या संस्कृति को।

यह केवल शिमला की हालत नहीं है। बुंदेलखंड और मराठावाड़ा के बारे में हम अक्सर समाचारों में सुनते रहते हैं। सूखा और अकाल का नाम सुनते ही इन दो क्षेत्रों के नाम बरबस होठों पर आ जाते हैं। जल का दोहन, जंगलों का खात्मा और बढ़ता वैश्विक तापमान अगर नहीं रुका तो न सिर्फ सारे देश का बल्कि समूची दुनिया का 'बुन्देलखण्डीकरण' होना तय है। पानी है तो सब कुछ है। गर्मियों में देश की नदियों की हालत नालों की तरह हो जाती है। नाले फिर भी अपने स्तर पर पानी से भरे होते हैं। नदियों के टापुओं पर लोग गाड़ी चलाना सीख रहे हैं। बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि 22वीं सदी तक समुद्री जलस्तर में तकरीबन 1 मीटर का इज़ाफ़ा हो जाएगा और लगभग साढ़े 5 हजार वर्गकिमी की जमीन समुद्र में समा जाएगी। इससे करीब 70 लाख लोग अपनी जमीन से विस्थापित होंगे। इतना ही नहीं क्लाइमेट चेंज की वजह से मौसम का वो हाल होगा कि सूखा और बाढ़ की ऐसी भयावह स्थिति पैदा होगी जिसका सानी इतिहास में ढूंढना मुश्किल होगा। इससे खाद्य संकट की भयानक स्थिति हमारे समक्ष उपस्थित होगी।

किसानों का आंदोलन आजकल चर्चा में है। उन्हें अपनी फसल का उचित दाम नहीं मिल रहा है। ऐसे भी किसान हैं जिनकी फसल मौसम की वजह से ख़राब हो जाती है। फसल के लिए जब बारिश होनी चाहिए तब होती नहीं। जब नहीं होनी चाहिए तब होती है। दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है। कुछ झेल नहीं पाते तो आत्महत्या कर लेते हैं। मौसम की मार से हमारी भोजन की थाली पर असर पड़ना तो तय है। थाली के साथ पानी के गिलास पर भी संकट है। बारिश न होने की वजह से किसान सिंचाई के अन्य विकल्पों की ओर बढ़ते हैं। इनमें नदियों-नहरों से फसल सींचने का विकल्प है। इनकी व्यवस्था न होने पर किसान बोरिंग से भूमिगत जल सिंचाई के लिए निकालते हैं। भूमिगत जल स्तर पहले ही गिरता जा रहा है। ऐसे में आपके पीने के हिस्से के पानी से सिंचाई हो रही है। भोजन के लिए की जाने वाली यह कवायद आपके लिए भयंकर जल संकट की भूमिका तैयार कर रही है।

पॉलीथीन हमारे पर्यावरण के लिए एक नए दानव की तरह उभर रहा है। इसे नष्ट होने में हजारों साल लगते हैं। इसे नष्ट करने की दूसरी विधि है कि इसे जला दिया जाए लेकिन ऐसा करना भी बड़ी मूर्खता होगी। इसके धुएं से निकलने वाले हानिकारक रसायन हमारा सांस लेना दूभर कर देंगे। पिछले दो दशकों में पॉलिथीन के इस्तेमाल में काफी वृद्धि देखने को मिली है। केवल भारत की ही बात करें तो आज की तारीख में देश में प्लास्टिक की उत्पादन क्षमता तकरीबन 50 लाख टन से भी ज्यादा है। 2001 तक भारत में हर दिन 5400 टन के हिसाब से साल भर में 20 लाख तन प्लास्टिक कचरा पैदा होने लगा था। अब तो 2018 है। आज की स्थिति का आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। पॉलीथीन गैर- जैव विघटित पदार्थ है। मतलब कि यह सड़ता-गलता नहीं है। ऐसे में यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करता है। भूमिगत जल के पुनर्संचयन में दिक्कतें पैदा करता है। नालियों में पहुंचकर जाम की स्थिति बनाता है। इससे तमाम तरह की बीमारियां फैलती हैं। अक्सर पशु इनमें अपने लिए भोजन तलाशते इन्हें निगल जाते हैं। जिससे उनकी मौत तक हो जाती है।

प्लास्टिक से पर्यावरण को बचाने का एक ही उपाय है कि इसके इस्तेमाल में कमी लाई जाए। इसके लिए कठोर संकल्प की जरूरत होगी। प्लास्टिक थैलियों के उपयोग के हम इतने आदी हो चुके हैं कि इसे छोड़ पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन यह असंभव नहीं है। तमाम प्रदेशों की सरकारों ने इनके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया है लेकिन फिर भी यह चोरी-छिपे दुकानों पर मिल ही जाती हैं। हम इनसे होने वाले नुकसानों को इग्नोर कर धड़ल्ले से इसके इस्तेमाल में जुट जाते हैं। यह जानते हुए भी कि पॉलिथीन पर्यावरण को बाद में नुकसान पहुंचाता है, उससे पहले यह आपकी सेहत पर हमला बोलता है। कई शोधों में यह बताया गया है कि पॉलिथीन में रखे गर्म भोजन, चाय आदि का सेवन करने से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है। गर्म खाद्य पदार्थों की वजह से पॉलिथीन के केमिकल्स टूटते हैं और खाने वाली चीजों में घुल जाते हैं। यही चीजें जब आप खाते हैं तो बीमारी की चपेट में आते हैं।

इस साल पर्यावरण दिवस की थीम बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन रखी गई है। पॉलीथीन पॉल्यूशन दूर करने का एक ही तरीका है कि इसके इस्तेमाल में कमी लाई जाए। इसके लिए खुद के प्रति जवाबदेही रखते हुए ईमानदारी से पॉलीथीन को अपने जीवन से रिमूव करना होगा। सामान रखने के अन्य विकल्प जैसे- जूट या कपड़ों की थैली का इस्तेमाल इसमें आपकी मदद कर सकते हैं।  ध्यान रखें, धरती आने वाली पीढ़ियों के लिए आपके पास रखी विरासत की तरह है। इसे जब आप अपनी अगली नस्लों को सौंपेंगे तो यह आपकी जिम्मेदारी है कि इसका माहौल जीवनानुकूल हो। यह धरती जैसी आपको मिली थी आप उससे बेहतर रूप में आने वाले वक़्त को सौंपे, आज के दिन आपका यही संकल्प होना चाहिए।

(5 जून 2018 को जनसत्ता वेब में प्रकाशित)

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