स्वर्गीय अनुपम मिश्र ने अच्छे विचारों के अकाल की कल्पना की थी। विचारों के सन्दर्भ में कुछ और संकट हैं। विचारों के अच्छे विमर्श के अकाल का। असल मुद्दों को छिटकने न देने के कौशल के अकाल का। आज के दौर में हर दूसरी राजनितिक घटना ऐतिहासिक है। ज़ारी है उन पर विमर्श पर विमर्श। वो भी ऐसा, जैसे बांस के कईन से गन्ने का रस निकाल देंगे।
स्वस्थ प्रतिरोध का जिम्मा सँभालते-सँभालते हम कब सवालों की जिम्मेदारी से फैसले देने पर उतारू हो गए, कब विपक्ष से न्यायाधीश बन गए, पता ही नहीं चला। अब हम सब भविष्यवक्ता हैं। अब हम आंकलन नहीं करते, भविष्य बकते हैं। आलम ये है कि दीनानाथ के भैंस के रंभाने की आवाज सुनकर ही लोग बता सकते हैं कि उनका बिटवा इस बरस 12वीं में पास होगा कि नहीं। यह अद्भुत कला है।
बड़े बारीक तर्क होते हैं जो जनरलाइज्ड नहीं होते। ये तर्क हर बार अलग-अलग विमर्शों में अलग-अलग होते हैं। बहुत सारे अपवादों से भरे इस विमर्श को बुद्धिजीविता का उत्कर्ष माना जाता है। बाकी इस पर कोई भी सवालिया टिप्पणी मूर्खता, देशद्रोह और एंटी-फलां वाद का प्रमाण पत्र भी होती है। 'पक्षपात' आज के डिबेट का नया नैतिक चरित्र है। आप खोपड़ी फोड़कर भी इसे नहीं समझ सकते।
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