अष्टभुजा शुक्ल कविता ऐसे लिखते हैं, जैसे अहाते में सब्जी बोते हों। या खेत की मेढ़ पर पेड़ लगाते हों। या दुआर पर क्यारियों में तुलसी या गुड़हल या रातरानी या गुलाब। इतनी सहज। इतना आसान। इतना कलात्मक। इतना आवश्यक। खेत के पृष्ठ पर बीज की लेखनी से फसल की भाषा में कविता लिखने की शैली 'अठभुजवा अबोध' की है। पढ़िए तो भाषा से गांव की सुगन्ध फूटती है।
शब्द ऐसे इस्तेमाल होंगे, जैसे तमाम शुद्धतावादी 'पवित्र शब्दकोशों' के सामने अकिंचनता और निर्भरता के खिलाफ खड़े हो गए हों। कहते हुए कि 'अव्वल तो मैं लिखने के लिए शब्दों पर निर्भर नहीं करता। भाषा से क्रिया सम्पादित नहीं करता। क्रियाओं से भाषा सम्पादित करता हूँ।' अस्तित्व हो तो ऐसा कि नेमप्लेट लेकर न चलना पड़े। आपका आभास ही परिचायक हो। कथन हो तो ऐसा कि व्याख्या साथ लेकर न चलनी पड़े। कवि ऐसा जो कविताओं का अर्थ बताता न चले। ऐसी कविताएं लिखे जो लौटकर कवि के पास नहीं आतीं।
अष्टभुजा तो कागज पर लिखने वाले कवि हैं भी नहीं। उनके पास कविता का कारखाना नहीं है। खेत है और बीज हैं। सिंचाई के लिए नदी का पानी है। लोहे के बन्द और लकड़ी से बना हाथा है, जिसके लिए उन्हें पहले बढ़ई के पास जाना पड़ा और फिर लोहार के पास भी। कुल मिलाकर वह 'हाथा मारने वाले' लेखक हैं।
"काग़ज़ पर मैं उतना अच्छा नहीं लिख पाता
इसलिए खेत में लिख रहा था
अर्थात हाथा मार रहा था।"
'हाथा' को आप कैसे समझेंगे। ऐसे समझिए कि:
"जहां जमीन अचढ़ होती है
वहां के पौधे
हाथा के ही सपने देखते हैं।"
अष्टभुजा हाथा ही तो हैं। तभी तो उनकी कविता अचढ़ 'हलंत' तक भी पहुंचती है, जो किसी मंत्र की टूटी हुई पूंछ की तरह है। जिसने कभी दावा नहीं किया कि वह हिंदी की वर्णमाला में किसी आरक्षित स्थान का अधिकारी भी है या नहीं। जिनके यहां 'छोटे-छोटे आलू' 'मशरूम केयर ऑफ कुकुरमुत्ता', 'बांस की जड़ें', 'दुख का घर' और 'मक्के के दाने' तक शीर्षक बने हैं। उन पर लिखा गया है।
"हिंदी में अफ़सोस की तरह मौजूद
×××
इतने नीचे से उठकर
वह हलंत
आज कविता का शीर्षक बना
तो यूं ही नहीं"
अष्टभुजा की कविता में रहस्य कम है। बोलचाल ज्यादा है। फरमान नहीं है। एक मुखर, निर्भीक और व्यंग्यसिद्ध आलोचक का अवलोकन है। लहजे में स्पष्टवादिता है और कहन में व्यंग्यात्मकता की अंतर्ध्वनि। बहुत सीधी-सीधी भाषा है। जिसमें
"पसीना गिराया तो खून नहीं बता सकता
सहयोग को सहायता नहीं कह सकता।
समझौते को सहअस्तित्व पुकारना मेरे बस की बात नहीं
गद्य को कविता नहीं कह सकता तो नहीं कह सकता"
('इसी हवा में अपनी भी दो-चार सांस है' पढ़ने के बाद)
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