कोई पूछे तो मैं बताऊँ कि मैं कवि नहीं हूँ, बीमार हूँ। हालांकि, कवि बीमार ही होता है। किसी कवि ने ही परिभाषा दी है कि आह से उपजा होगा पहला गान। जो अपने में स्थित नहीं है, वही तो अस्वस्थ है। अगर यह परिभाषा न भी दी जाती तो भी मैं यही कहता कि मैं कवि नहीं बीमार हूँ। कविता मेरी अफनाहट की खिड़की है। यह जो खिड़की है यह कविता है या नहीं, मैं इसका दावा करने के लिए भी पर्याप्त स्वस्थ नहीं हूँ।
एक समय था, जब मैं कवि बनने का जुनूनी था। कविता लिखना चाहता था, ताकि मरने के बाद अपने शब्दों में जीवित रह जाऊं। तब कविता नहीं लिखी जा पाती थी। ये वो समय था जब मैं खूब जीना चाहता था। पत्रा देखना नहीं आता था लेकिन उसमें अपनी राशि खोजकर उसके सामने उम्र की भविष्यवाणियां देखा करता था। मुझे नहीं पता कि मैं सच में क्या देखता लेकिन अपनी राशि के आगे 100 लिखा देखकर उसे 100 साल की आयु समझता और बहुत खुश हो जाता था। मेरी प्रार्थनाओं में शतायु होने की प्रार्थना सबसे पहले थी।
एक यह समय है कि जीने की इच्छा-अनिच्छा के बीच में कहीं अटक गया-सा हूँ। लगता है कि इस बात से फ़र्क़ पड़ना बन्द हो गया है कि मृत्यु आज आए या कल या परसों। दिन में कई बार ऐसा होता है, जब घुटन चरम पर पहुंच जाती है। ऐसा अंधेरा दिखता है कि दिमाग सन्न हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे सांस न ले पाऊंगा। ऐसा लगता है जैसे कोई प्राण छीन ले गया। ऐसा लगता है जैसे सब कुछ, सब जीवन, सब करीबी, रिश्तेदार, मां-पिता साथ छोड़कर भाग रहे हों। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा होता है। दरअसल वो नहीं भाग रहे होते हैं। वह तो समय की धारा में वैसे ही बहे जा रहे हैं, जैसे पहले बहते थे। तब मैं उनके साथ था।
अब मैं इस धारा में कहीं ठहर गया हूँ। जैसे नदियों के बीच कहीं द्वीप ठहर जाते हैं। यह ठहराव काफी ठहर गया है। जाने किसकी प्रतीक्षा है? हालांकि यह कहना भी झूठ है कि नहीं जानता किसकी प्रतीक्षा है। सब अपने अहंकार को तुष्ट करने का प्रपंच है। हार न मानने की इस जिद का इस बार ठीक पहाड़ से पाला पड़ गया है। ऐसा लगता है कि इस पहाड़ के भार से मैं गलने लगा हूँ। गलता-गलता शायद द्वीप से नदी हो जाऊं। नदी तो होने से रहा। इस संघर्ष में बस भाप बनता जा रहा हूँ। उड़ता जा रहा हूँ। क्षरता जा रहा हूँ।
उससे पहले इस द्वीप की नदी न हो पाने की छटपटाहट कविता में अपना रास्ता खोजती है। शब्दों में टूट-टूटकर जीवन की हिमशीलता झरती है। कुछ देर को तो लगता है कि शायद एक कदम आगे बढ़े हैं। शब्द बहुत महान चीज हैं। शब्द से बने वाक्य और वाक्य से बनी कविता पृथ्वी की महानतम रचनात्मकता है लेकिन मेरे लिए शब्द, शब्द से वाक्य, वाक्य से बनी कविता पलायन की एक जगह है, जहां मैं शरण पाता हूँ। शरणागत भी कम महान नहीं होता। मेरी कविता अगर महान होगी, तो सिर्फ इसलिए होगी कि इसने अंधेरे में घुटते एक हृदय को अपने आँचल में पनाह दी है।
मेरी कविता रचनात्मकता नहीं है। सृजनात्मकता नहीं है। मेरी कविता जीर्णोद्धार का अनुष्ठान है। निर्माण नहीं है, मरम्मत है। कला नहीं है, चिकित्सा है। मैं कविता क्या रचूंगा, कविता मुझे प्राण देती है। मैं कवि से ज्यादा एक बीमार हूँ। बीमार होने में कोई बुराई नहीं है बल्कि बीमारी का स्वीकार उसके इलाज का पहला चरण है।
#डायरी
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