दुख को आने देना चाहिए। अगर दुख का कोई एक कारण है तो उससे भागने से बचना चाहिए। दुख को खत्म करने की कोशिश उसे और प्रबल बना देती है, इसलिए जरूरी है सबसे पहले दुख से सामान्य व्यवहार। जैसे हम उसके आगमन के तैयारी कर के बैठे हों या फिर ऐसे जैसे उसके आगमन के इतने अभ्यस्त हो गए हों कि हमें ठीक-ठीक वह बिंदु पता ही नहीं है जब वह आया या फिर जब वह चला जाएगा।
इतना सामान्य हो जाने का अभ्यास हो दुख में। हम जैसे अपने सुख का क्षण भोग कर आनंदित होते हैं और उसे किसी से शब्द, वाक्य और ध्वनियों के जरिए अभिव्यक्त नहीं करते हैं, वैसे ही दुख के साथ भी करें क्योंकि यह सत्य है कि इन दोनों का स्वाद हमारे लाख वर्णन करने के बाद भी कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता है।
इसे महसूस करने के लिए उसे इस प्रकार का स्वाद पहले लिया जाना आवश्यक है। फिर वह अपने स्वाद की भाषा में तुम्हारे स्वाद का अनुवाद कर सकता है। यह अनुवाद भी कितना सटीक होगा? कहां नहीं जा सकता इसलिए दुख को आने दो। उसे तुम्हारे पूरे मनस में फैल जाने दो। उसे अपना काम करने दो। तुम्हें उसके लिए अपना काम रोकने की जरूरत नहीं है। तुम जैसा सुख के समय करते हो, करो वही दुख के समय भी।
किसी बात से दुख पहुंचा है और वह बात बार-बार मानसिक पटल पर प्रकाशित हो जाती है तो होने दो। उससे लड़ो नहीं। उस से भागने की चेष्टा न करो। तुम उसका जितना सामना करोगे वह उतना ही प्रबल होता जाएगा। बालि की तरह, जो सुग्रीव का सबसे बड़ा दुख था। तुम दुखी करने वाली बात को मस्तिष्क में गूंजने दो और फिर जो भी अनुभूति होती है उसे साक्षी भाव से देखो। उसे बरतने की कोशिश करो। सहेजने की कोशिश करो। तुम्हारी कोशिश इतनी ही हो कि उसके प्रभाव से तुम किसी अन्य का नुकसान न करना। ऐसा करोगे तो धीरे-धीरे दुख का शमन होता जाएगा। उसकी धार कुंद होती जाएगी।
दुख हमारे जीवन के प्रवाह का एक हिस्सा है। हम उसको दबाकर अपने मानसिक वातावरण में कैद नहीं कर सकते। हम उसे जाने दे सकते हैं और हमें यही करना चाहिए। दुख को, शोक को, त्रास को अपनी गति से जाने देने की छूट देनी होगी। तभी वह संपूर्ण रूप से जा पाएगा। अन्यथा अपना कुछ हिस्सा या फिर अपना शव हमारे भीतर ही छोड़ जाएगा।
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