अच्छे-बुरे का मानक क्या है!क्या बेहतर भविष्य की संकल्पनाओं के आधार पर लिए गए फैसले ज्यादा सही हैं,या अपनी क्षमता-रुचि-योग्यता-आदर्श-उसूल आदि के आधार पर लिए गए फैसले?
कुछ तो अवसर ऐसे भी आते हैं ज़िन्दगी में जब ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जिन पर अच्छे या बुरे होने का ठप्पा हम तभी लगा पाएंगे जब उनके परिणाम हमें प्राप्त हो जाएं,जिनमें ज्यादातर किस्मत-आधारित भी होते हैं।
अपने आदर्शों,उसूलों और अपनी पसंद के आधार पर लिए गए निर्णयों में एक उत्तरदायित्व का उत्तरदायित्व होता है,आप अपने रिस्क पर ऐसे निर्णय लेते हैं।
नैतिक बुद्धिजीवियों का मानना है कि ऐसा निर्णय ज्यादा सही होता है,जिसमें कोई मजबूरी की गंध न हो।लेकिन बिना मजबूरी के तो शायद कोई निर्णय लिए ही नहीं जा सकते।अब चाहे वो मजबूरी ज़रूरत की हो,लालच की हो,आदर्शों की हो,उसूलों की हो,जिम्मेदारियों की हो या कोई भी।हर निर्णय मजबूरियों के ही ईंधन से जीवित है।अब इनमें से कौन सी मजबूरी सही है और कौन गलत,ये भी तो मानसिक कुरुक्षेत्र में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आमने-सामने है।कभी-कभी तो मन का अर्जुन गांडीव उठाने से ही इंकार कर देता है।लेकिन फिर भी युद्ध तो अटल है।तब तो बस वही "हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं,जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्" वाली स्थिति होती है।इसलिए लड़ते हैं।
लेकिन स्पष्ट भी तो होना चाहिए कि क्या गलत है और क्या सही!समाज में साम्प्रदायिकता के ज़हर बोकर भी लोग सत्ताधिपति हो जाते हैं,और उसी समाज के लिए आदर्श भी,जबकि यह महाघृणित है।मानवाधिकारों के लिए 16 वर्षों तक लम्बे और आत्मघाती आंदोलन करने वाले को महज 90 वोट मिलते हैं और इस तरह एक वैकल्पिक और आशाजनक राजनीति का वध हो जाता है,जबकि आदर्शों की कसौटी पर यह अपेक्षाकृत शुद्ध और खरा कृत्य है।ये उदाहरण तो कम से कम यह सिद्ध करते हैं कि बेहतर परिणाम कभी काम के अच्छे या बुरे होने का मानक नहीं हो सकते।
तो क्या हो मानक?किससे माना जाय कि जो हम कर रहे हैं वह सही है!और इसके परिणाम भी सही होंगे।हमें इसका कोई दार्शनिक या फिर शब्दों की कड़ियों से जुड़ा कोई आध्यात्मिक तर्क नहीं चाहिए,बैठे-बैठे दो चार ठीक-ठाक कोटेशन बोकर उपजे हुए सिद्धांत और ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं है।इसका कोई व्यवहारिक उदाहरण हो किसी के पास,जिससे ये सही-गलत का मसला हल हो सके तो उसका स्वागत है।नहीं तो 'ज़िन्दगी' का शिक्षक तो तैयार है ही इसे बेहतर समझाने के लिए।हाँ,थोड़ा टाइम ज़रूर लगेगा,या शायद एक उम्र भी।राघवेंद्र
कुछ तो अवसर ऐसे भी आते हैं ज़िन्दगी में जब ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जिन पर अच्छे या बुरे होने का ठप्पा हम तभी लगा पाएंगे जब उनके परिणाम हमें प्राप्त हो जाएं,जिनमें ज्यादातर किस्मत-आधारित भी होते हैं।
अपने आदर्शों,उसूलों और अपनी पसंद के आधार पर लिए गए निर्णयों में एक उत्तरदायित्व का उत्तरदायित्व होता है,आप अपने रिस्क पर ऐसे निर्णय लेते हैं।
नैतिक बुद्धिजीवियों का मानना है कि ऐसा निर्णय ज्यादा सही होता है,जिसमें कोई मजबूरी की गंध न हो।लेकिन बिना मजबूरी के तो शायद कोई निर्णय लिए ही नहीं जा सकते।अब चाहे वो मजबूरी ज़रूरत की हो,लालच की हो,आदर्शों की हो,उसूलों की हो,जिम्मेदारियों की हो या कोई भी।हर निर्णय मजबूरियों के ही ईंधन से जीवित है।अब इनमें से कौन सी मजबूरी सही है और कौन गलत,ये भी तो मानसिक कुरुक्षेत्र में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आमने-सामने है।कभी-कभी तो मन का अर्जुन गांडीव उठाने से ही इंकार कर देता है।लेकिन फिर भी युद्ध तो अटल है।तब तो बस वही "हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं,जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्" वाली स्थिति होती है।इसलिए लड़ते हैं।
लेकिन स्पष्ट भी तो होना चाहिए कि क्या गलत है और क्या सही!समाज में साम्प्रदायिकता के ज़हर बोकर भी लोग सत्ताधिपति हो जाते हैं,और उसी समाज के लिए आदर्श भी,जबकि यह महाघृणित है।मानवाधिकारों के लिए 16 वर्षों तक लम्बे और आत्मघाती आंदोलन करने वाले को महज 90 वोट मिलते हैं और इस तरह एक वैकल्पिक और आशाजनक राजनीति का वध हो जाता है,जबकि आदर्शों की कसौटी पर यह अपेक्षाकृत शुद्ध और खरा कृत्य है।ये उदाहरण तो कम से कम यह सिद्ध करते हैं कि बेहतर परिणाम कभी काम के अच्छे या बुरे होने का मानक नहीं हो सकते।
तो क्या हो मानक?किससे माना जाय कि जो हम कर रहे हैं वह सही है!और इसके परिणाम भी सही होंगे।हमें इसका कोई दार्शनिक या फिर शब्दों की कड़ियों से जुड़ा कोई आध्यात्मिक तर्क नहीं चाहिए,बैठे-बैठे दो चार ठीक-ठाक कोटेशन बोकर उपजे हुए सिद्धांत और ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं है।इसका कोई व्यवहारिक उदाहरण हो किसी के पास,जिससे ये सही-गलत का मसला हल हो सके तो उसका स्वागत है।नहीं तो 'ज़िन्दगी' का शिक्षक तो तैयार है ही इसे बेहतर समझाने के लिए।हाँ,थोड़ा टाइम ज़रूर लगेगा,या शायद एक उम्र भी।राघवेंद्र