Thursday, 23 March 2017

कविताः लौ न हो मद्धिम










कर्मों के चौबारे पे जलती ही रहे दीपक सदृश,
औ' हो न लौ मद्धिम तनिक भी हौसलों के प्राण की।
मत हो निराशा टूटने पर भी कभी,यह जान लो!
है टूटना भी तो ज़रूरत,नव्य के निर्माण की।

जो खेलते हैं खेल वो हैं जानते भी हारना।
लिखते पराजय की परत पर जीत की अवधारणा।
इक हार को ही वह समापन खेल का कहते नहीं।
जब तक नसों में है रवानी,चैन से रहते नहीं।

जब टूटता है,पूजता उसको तभी संसार है,
आखिर बिना खण्डित हुए क्या हैसियत पाषाण की।
मत हो निराशा टूटने पर भी कभी,यह जान लो!
है टूटना भी तो ज़रूरत,नव्य के निर्माण की।
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--राघवेंद्र😊

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