आज जब मैं लौटा
घर,
तो जैसे लगा,छूट गया हूँ कहीं।
कपड़े बदलते वक्त,
हाथ-पैर धोते वक़्त
बिस्तर पर लेटे हुए मोबाइल पर
मेसेजेज चेक करते वक़्त।
मैं था ही नहीं कहीं,
मैं तो छूट गया था कहीं
किसी ईटों की दीवारों से घिरे उस कारखाने में
जहां हमारी ज़िंदगी का स्टैंड
गढा जा रहा था,
हमारी हैसियत की लाठी
गढ़ी जा रही थी,
जिसके शिखर पर
आज से कुछ वर्षों बाद
हमारे व्यक्तित्व का परचम लहरना है।
मैंने बड़ी कोशिश की
खुद को वहां से वापस लाने की,
मैं था कि लौटने को तैयार नहीं,
साथी-संघाती थक गये,
सारे मंजर एक जैसा बने रहते -रहते थक गए,
मैं नहीं लौटा,
यूं जम गया था वहां
जैसे टूट गए हों पाँव,
बुझ गयी हों आँखें,
टूट तो गया था मैं!
मेरे हौसले-मेरे सपने-मेरी आशा
सब कुछ,
बिखरे पड़े थे,
मैंने सब जुटाया,इकट्ठा किया,
कॉलेज की कैंटीन में गिरी आशाएं
विवेकानन्द शिला पर अटके हौसले
और ब्रह्मपुत्र हॉस्टल के लॉन में बिखरे सपने,
सबको समेटकर
जोड़कर
सजाकर
तरतीब से
पुस्तकालय में
बना ली एक कविता।
अब शायद मैं
घर लौट आया हूँ,
समूचा मैं,
अपनी एक नई कविता के साथ।
और कविता,
जो अब मुझमें है या मैं उसमें,
नहीं कह सकता,
अगर मुझ बिखरे हुए को जोड़ सकती है,
तो ये मेरे अंदर निराशा की हर धारणा
तोड़ भी सकती है,
हताशा के अँधेरे में आशा की
जो सविता है,
वही तो कविता है,
शायद।
--राघवेंद्र
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