फोटो साभार:पार्थ सारथि निगम |
मुझे नहीं पता था ये बाजार कैसे लगता था!यहां खरीददारी कैसे होती थी!लगने वाली कीमत का आधार क्या होता था!सब बिक जाएगा,ये तब से सुन रहे थे,जब इस बाजार का बस नामै सुने थे।सच सुना था भई, बिल्कुल वही हो रहा है।
"का हो!कहाँ लगे?"
"ज़िन्दगी नरक होइ गयी है,#@%&!"
"हो जाएगा,दोस्त!डोंट वरी"
"सबका हो जाएगा!"
क्रान्ति-परिवर्तन-बदलाव-सत्य-न्याय-आवाज़-जीवंतता-संघर्ष-शान्ति-समानता-अडिगता-आदर्श-प्रतिष्ठा-समाज-देश-गाँव-गरीब-किसान-पीड़ित-दलित-शोषित-दमन-अमन-चमन-शमन-हिम्मत-ताकत-हौसला-फैसला आदि आदि आदि आदि आदि
ये शब्द...महत्वकांक्षाओं-आकाँक्षाओं-ज़रूरतों और मजबूरियों की चपेट में कैसे दम तोड़ देते हैं,ये शब्द स्थापित सामाजिक मापदंडों की मांग पर किस तरह से सिर्फ किताबी हो जाते हैं,ये शब्द एक छद्म उद्देश्य की आखिरी लाइन से किस तरह से उस पार फेंक दिए जाते हैं,ये सब हमारे लिए आज तक समझना मुश्किल था(हाँ!मानना आसान था)और अब इसके प्रत्यक्ष दृष्टांतों की आंतों और दांतों तक से परिचित हो रहे हैं।बुरा तो लगता ही है।लेकिन उत्तरदायित्व की विवशता भी तो है,जनाब!सफलता का प्रमाण भी तो समाज में रखना है।गाँव के सिरीनाथ चाचा,स्कूल के शर्मा सर,पड़ोस के लेखपाल साहब,भोपाल वाली मौसी,बिहार वाले फूफा,फलाने, ढेकाने सबको निरुत्तर करने का टास्क भी तो पूरा करना है।बहुत से कारण हैं।एक बार शुरुआत तो कर लें,आत्मनिर्भर हो लें,फिर आगे तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है!देख लेंगे सब कुछ बाद में।
बड़ा अंतर्द्वंद है साहब!क्या सही है?क्या गलत?कौन जानता है,कौन समझाए!हर दिन चेहरे मुंह पर झूलते जा रहे हैं।भौंहें चढ़ती जा रही हैं।मुस्काने मरती जा रही हैं।निराशाएं पनपती जा रही हैं।हर कोई कंधे ढूंढ रहा है।हर कोई आंसू छिपा रहा है।ढांढसों और बधाइयों का दौर दौड़ रहा है।मंजर ऐसा है जैसे जीवन का 'असंशोधनेबल' संविधान लिखा जा रहा हो।जैसे इस बाजार के खत्म होने के बाद मिट्टी आलू उगाना बन्द कर देगी,पालक उगाना बन्द कर देगी,गेहूं-धान-बाजरा-जौ उगाना बन्द कर देगी।
सब सबको पता है!यह न तो संभावनाओं का अंत है और न ही जीवन का।अवसर और भाग्य की भी मजबूरी है कि उन्हें समय-समय पर हमारे पास आना ही है।निराश होना भी ज़रूरी है,पर कुछ देर के लिए।दुखी होना भी ज़रूरी है,पर कुछ देर के लिए।उसे अपने दिलो-दिमाग में स्थायी आवास दे देना शायद हमारी असली हार है।
ज्ञान तो बंट ही रहे हैं आजकल!हम भी बहुत कुछ सीख रहे हैं।हमारी कहानी भी औरों से बहुत ज्यादा अलग नहीं है।हमारी मजबूरी थोड़ी सी अलग थी।रेस में हम भी हैं।और उपर्युक्त तमाम टिप्पड़ियों के हम भी हकदार हैं।एक झोंका आया था,सारे वृक्ष लहरा उठे थे।लेकिन अब तनकर खड़े रहने का मन है।टूटने का मन है।और अपने ही खण्डहर पर नवीन 'हम' का निर्माण करने का मन है।इसलिए अब हम कोशिश करेंगे,कि आगे बनी बनायी सफलता की सामाजिक मान्यताओं से आगे निकलने की कोशिश करें,एक सोच,जिससे कभी हमने अपना चरित्र सजाया था,अपना चित्र संवारा था,उसे प्रायोगिक पटल पर अंकित करने का प्रयास करें,अपने फैसलों का स्विच किसी प्रलोभन की सर्किट से न जोड़ें जो रेगुलेटर के घूमने के साथ-साथ बदलता रहे और सबसे ज़रूरी कि 'कुछ' लोगों के प्रति उत्तरदायी होने के उत्तरदायित्व से खुद को अलग करें,नहीं तो खुद के ही सामने एक ऐसा प्रश्न खड़ा हो जाएगा कि उसका उत्तर देना मुश्किल हो जाएगा,और हमें लगता है कि ये उत्तर न दे पाना एक ऐसी हार होगी जिस पर कोई दिलासा,कोई ढांढस काम नहीं करेगा।क्योंकि इस हार के बाद जीत नहीं,सिर्फ पतन मिलने की संभावना है।अंत में सिर्फ यही बात कहना है कि बाजार नहीं अधिकार हमारी निष्ठा का प्रथम केंद्र है।
नोट:-
1.सफल लोगों की भावनाओं पर कोई भी प्रहार करने का कोई इरादा नहीं है,न था,न होगा।उनकी काबिलियत प्रमाणित है।शुभकामनाएं।
2.असफल होने वालों के लिए मेरी तरफ से दी गयी कोई दलील नहीं है,मेरा अपना वैचारिक द्वंद है।दुआएं।
3.सभी नाम काल्पनिक हैं,बयान काल्पनिक हैं।किसी के भी सत्य होने की संभावना को मात्र एक संयोग कहा जाएगा।
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