Wednesday, 3 January 2018

कविताः तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून

विद्रोह

तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
तुम देखो, डरो,
चाहो तो गरम लोहे की कोई रॉड
घावों में घुसा लो।
मगर, जिधर तुम देखते हो
अपने घावों का इलाज,
महज भ्रम तुम्हारा है।
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
उन्हें दिखते हैं इक मज़मून
जिससे वो खरीदेंगे
तुम्हारे ज़ख्म गहरे
और करने के लिए हथियार।
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
उनकी पार्टी के
वोट देने की किसी अपील के मानिंद
केवल होर्डिंग हैं,
जिसे वो देश भर में, विश्व भर में
बेच देंगे, तुम्हें आश्वस्ति भर का
कमीशन देकर।
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून,
उनके हाथ की दहकती मशाल है
जिसकी जद में कभी भी आ सकती है
तुम्हारी फटी बनियान।
जानते हो?
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
बहा सकते हैं उनके सिंहासनों के
पायों के नीचे की जमीन,
इसलिए, मत देखना
उस ओर, जिधर से
आते हैं ये नीम-हकीम,
हो सके तो बुझा देना उनकी मशाल
फाड़ देना उनकी होर्डिंग,
और लोहे की सरिया ही घुसा लेना,
अपने घावों में,
क्या पता! इससे ही घाव भर जाएं पल भर में
सदियों के
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून के।

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